अभी अभी एक नए जोड़े को देखा पति चैन से जा रहा था और पत्नी घूंघट में ,भले ही दिखाई दे या न दे किन्तु उसे अब ऐसे ही चलने का अभ्यास करना होगा आखिर करे भी क्यूँ न अब वह विवाहित जो है जो कि एक सामान्य धारणा के अनुसार यह है कि अब वह धरती पर बोझ नहीं है ऐसा हमारे एक परिचित हैं उनका कहना है कि ''जब तक लड़की का ब्याह न हो जाये वह धरती पर बोझ है .''
मैंने अपने ही एक पूर्व आलेख ''विवाहित स्त्री होना :दासी होने का परिचायक नहीं '' में विवाह को दासता जैसी कुरीति से अलग बताया था किन्तु यह वह स्थिति है जिसमे विवाह संस्कार को वास्तविक रूप में होना चाहिए किन्तु ऐसा होता कहाँ है ?वास्तविक रूप में यहाँ कोई इस संस्था को रहने ही कहाँ देता है कहीं लड़के के माँ-बाप इस संस्कार का उद्देश्य मात्र लड़की वालों को लूटना -खसोटना और यदि देहाती भाषा में कहूँ तो'' मूंडना '' मान लेते हैं तो कहीं स्वयं लड़की वाले कानून के दम पर लड़के वालों को कानूनी दबाव में लेकर इसके बल पर ''कि दहेज़ में फंसाकर जेल कटवाएंगे ''उन्हें अपने जाल में फंसाते हैं और धन ऐंठकर ही छोड़ते हैं .कहीं लड़का ये सोचकर ''कि नारी हीन घर भूतों का डेरा ,नारी बिना कौन करेगा ढेर काम मेरा ''या ''इस लड्डू को जब जो खाये वह पछताए जो न खाये वह पछताए तो क्यूँ न खा कर पछताऊं ''किसी लड़की को ब्याहकर घर लाता है तो कहीं लड़की भी अपनी सामाजिक स्थिति को मजबूत करने के लिए,क्योंकि उसे समाज में ''बाप के ऊपर पहाड़ '' जैसी उक्तियों से नवाज़ा जाता है ,से मुक्ति पाने के लिए तो कहीं [कहने वालों और भुक्तभोगियों के अनुसार ]अपने कई स्वार्थ संजोये बहू बन आती है किन्तु जो सच्चाई हो कही वही जाती है और सच्चाई यही है कि आदमी औरत को अपनी गुलाम से बढ़कर कुछ नहीं समझता और अगर ऐसा नहीं है -
* तो क्यूँ एक जगह विवाह के समय लड़के द्वारा यह मांग कि लड़की अपने बड़े बड़े बालों को कटवाकर छोटा कर ले और एक जगह छोटे बालों वाली लड़की से अपने बाल बढाकर शादी करने की शर्त रखी जाती है ?
*क्यूँ शादी के बाद लड़की के रहन सहन ,पहनावे का बदल जाना ,मांग में सिन्दूर ,गले में मंगलसूत्र ,साडी या सूट हो किन्तु सिर ढका होना ,कहीं कहीं पूरे मुंह पर घूंघट पड़ा होना ,पैरों में बिछुए कहने को ये सब विवाहित होने की पहचान हैं ,स्त्री के सुहाग की रक्षा के लिए तो फिर पुरुष के रहन सहन पहनावे में कोई अंतर क्यूँ नहीं ?
*क्यूँ उसपर अपनी सुहागन की रक्षा का कोई दायित्व नहीं ,हाथ पैरों से तो उसकी पत्नी भी उसकी सेवा करती है तब भी उसपर इतने प्रतिबन्ध फिर सिर्फ उसके साथ को ही क्यूँ उसकी पत्नी की मजबूती माना जाता है उसे क्यूँ नहीं पहनने होते ये आभूषण आदि ?
* क्यूँ उसका विवाहित दिखना उसी तरह ज़रूरी नहीं जैसे नारी का विवाहित दिखना ज़रूरी है ?
* क्यूँ वही अगले जन्म में भी अपने पति को पाने के लिए व्रत रखे ,क्यूँ पति पर इस व्रत का दायित्व नहीं इसलिए तो नहीं क्योंकि वह धरती पर बोझ नहीं है उसका ब्याह हो या न हो वह तारणहार की भूमिका में ही है .अगर किसी नारी का पति किसी बीमारी या दुर्घटना वश मर जाये तो उसपर विधवा का ठप्पा लग जाता है और अगर किसी तरह उसका दूसरा विवाह होता है तो एक ''बेचारी ''कहकर ही किया जाता है किन्तु एक पुरुष भले ही दहेज़ के लिए स्वयं ही पत्नी की हत्या कर दे उसके लिए लड़कियों की ''कुंवारी ''लड़कियों की लाइन लगी रहती है ,यहाँ तक कि बुज़ुर्ग से बुजुर्ग पुरुषों को भी ''बेचारी तो बेचारी ''कुंवारी छोटी उम्र की लड़कियां भी सहजता से विवाह के लिए उपलब्ध हो जाती हैं भले ही उनके अपने बच्चे भी उस लड़की से बड़ी उम्र के ही क्यूँ न हों .
आज ''लिव इन रिलेशन ''को न्याय की संरक्षक सर्वोच्च संस्था सुप्रीम कोर्ट ही कानूनी जामा पहनाने में लगी है जबकि इसमें भी औरत की स्थिति रखैल की स्थिति से बेहतर नहीं है क्योंकि पुरुष विवाहित है या नहीं है उसकी कोई पहचान नहीं है और पहचान होने पर भी नारी की जो स्थिति है वह ''दिल के हाथों मजबूर'' की है और ऐसे में चंद्रमोहन चंद्रमोहन रहे या चाँद ,लाभ में रहता है और अनुराधा बाली फ़िज़ा बन लाश बन जाती है .
लड़कियां ही शादी के लिए खरीदी जाती हैं ,लड़कियां ही भ्रूण हत्या का शिकार बनती हैं , न कोई बड़ी उम्र की औरत शादी के लिए लड़का खरीदती है न कोई लड़का भ्रूण हत्या का शिकार होता है ऐसी बहुत सी स्थितियां हैं जहाँ ये स्पष्ट होता है कि नारी को पुरुषों ने केवल अपने गुलाम का दर्जा ही दिया है इससे बढ़कर कुछ नहीं जबकि हमारे शास्त्रों में पुराणों में नारी हीन घर भूतों का डेरा ,कहा गया है ,नारी की स्थिति को ''यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता ''कहकर सम्मानजनक स्थान दिया गया है किन्तु पहले कभी मिलने वाला ये सम्मान आज कहीं नहीं दिखाई देता आज नारी का केवल एक उत्पाद ,एक गुलाम की तरह ही इस्तेमाल नज़र आता है .कहीं नारी का घूंघट से ढका चेहरा तो कहीं छत के कुंडे में लटकता शरीर नज़र आता है .
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज शुक्रवार (06-12-2013) को "विचारों की श्रंखला" (चर्चा मंचःअंक-1453)
पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
----जो सच है उस पर किसी टिप्पणी की आवश्यकता ही नहीं है...
जवाब देंहटाएं---- हाँ एक सच यह भी है कि क्यों स्त्रियाँ यह सब सह लेती हैं, ...पढी-लिखी भी...
बहुत सुन्दर प्रस्तुति............
जवाब देंहटाएंऔरत - औरत पर हुकुमत करना नहीं छोडेगी जब तक वह बदलाब नहीं ला सकती..
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