पीर मन की
जान लेते
पीर मन
की तुम अगर,
तो न
भर निश्वांस
झर-झर अश्रु
झरते।
देख लेते
जो द्रगों के
अश्रु कण
तुम ,
तो नहीं
विश्वास के
साये बहकते ।
जान जाते तुम
कि तुमसे
प्यार कितना,
है हमें,ओर तुम
पे है
एतवार कितना ।
देख लेते
तुम अगर
इक बार
मुडकर ,
खिल खिला
उठतीं कली
गुन्चे महकते।
महक उठती
पवन,खिलते कमल
सर में,
फ़ूल उठते
सुमन करते
भ्रमर गुन
गुन ।
गीत अनहद
का गगन्
गुन्जार देता
,
गूंज उठती
प्रकृति में वीणा
की गुन्जन
।
प्यार की
कोई भी
परिभाषा नहीं है
,
मन के
भावों की
कोई भाषा नहीं
है ।
प्रीति की
भाषा नयन
पहिचान लेते
,
नयन नयनों
से मिले
सब जान
लेते ।
झांक लेते
तुम जो
इन भीगे दृगों में,
जान जाते पीर
मन की,
प्यार मन
का।
तो अमिट
विश्वास के
साये महकते,
प्यार की
निश्वांस के
पन्छी चहकते
॥
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज सोमवार (16-12-13) को "आप का कनफ्यूजन" (चर्चा मंच : अंक-1463) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
अच्छी अभिव्यन्जना है!
जवाब देंहटाएंमन की बात कोई पढ़ ले तो इस से बढ़ कर 'वेद' कहाँ ?
एक दूसरे का 'मन'पढ़ लें तो,रहता कोई 'भेद कहाँ ??
धन्यवाद शास्त्रीजीए, राजेश कुमारी जी, चतुर्वेद व देवदत्त जी....
जवाब देंहटाएंbahut sundar
जवाब देंहटाएंधन्यवाद वर्ज्य जी ...
जवाब देंहटाएंआभार..बधाई
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