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रविवार, 15 दिसंबर 2013

गीत...पीर मन की....डा श्याम गुप्त....

                                        
                      पीर मन की
जान लेते   पीर मन की     तुम अगर,
तो न भर निश्वांस झर-झर अश्रु झरते।
देख लेते जो  द्रगों के  अश्रु कण  तुम  ,
तो  नहीं   विश्वास के  साये   बहकते ।

जान  जाते तुम कि तुमसे प्यार कितना,
है हमें,ओर तुम पे है एतवार  कितना  ।
देख लेते तुम अगर इक बार मुडकर  ,
खिल खिला उठतीं कली गुन्चे महकते।

महक उठती पवन,खिलते कमल सर में,
फ़ूल उठते सुमन करते भ्रमर गुन गुन ।
गीत अनहद का गगन् गुन्जार देता ,
गूंज उठती प्रकृति  में वीणा की गुन्जन ।

प्यार की   कोई भी   परिभाषा  नहीं है ,
मन के  भावों की कोई  भाषा नहीं है ।
प्रीति की भाषा नयन पहिचान लेते ,
नयन नयनों से मिले सब जान लेते ।

झांक लेते तुम जो इन भीगे दृगों में,
जान  जाते पीर मन की, प्यार मन का।
तो अमिट विश्वास के साये  महकते,
प्यार की निश्वांस के पन्छी चहकते ॥  

 

6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज सोमवार (16-12-13) को "आप का कनफ्यूजन" (चर्चा मंच : अंक-1463) पर भी होगी!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. अच्छी अभिव्यन्जना है!
    मन की बात कोई पढ़ ले तो इस से बढ़ कर 'वेद' कहाँ ?
    एक दूसरे का 'मन'पढ़ लें तो,रहता कोई 'भेद कहाँ ??

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  3. धन्यवाद शास्त्रीजीए, राजेश कुमारी जी, चतुर्वेद व देवदत्त जी....

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