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रविवार, 8 सितंबर 2013

तुमने कुछ कहा था?

तुमने कुछ कहा था?
शायद मैंने ही नहीं सुना होगा,
वक़्त के साथ - साथ थोडा बदल सा गया हूँ मैं,
तुम्हे नहीं लगता क्या ऐसा?
चलो अच्छा है फिर,
कम से कम ठंढी हो चुकी कॉफ़ी के साथ,
सिगरेट फूंकता हुआ मैं तुम्हे अभी भी अच्छा लगता हूँ,
देखो न, इन पके बालों और चहरे पर उभरती झुर्रियों में,
कितना वक़्त गुजर गया,
बस भागे जा रहे हैं हम,
मैं ठहरना चाहता हूँ,
लेकिन तुम ठहरने ही नहीं देती,
हम जैसे कल थे वैसे ही आज भी हैं,
समय से भागते हुए,
लेकिन तनहाई फिर भी नहीं मिली,
तुम्हे मिली क्या?
जिस दिन भी मिले बताना जरूर,
अपनी तन्हाई से मैं चुपके से पूछ लूँगा,
क्यूँ होता है इतना कुछ,
जब कुछ भी नहीं होना होता ?

-नीरज

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