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बुधवार, 30 जनवरी 2013

इसका कोई जवाब है किसी के पास ??

(यह घटना पूर्णतः सत्य हैं, बस नाम और स्थान बदले हुए हैं | इसे ध्यान से पढ़ें और कृपया अपनी राय दें )

3 सहेलिया थी, आशा, अरुणा और कल्पना | तीनों एक साथ एक ही कॉलेज में पढ़ रही थी | तीनों की उम्र करीबन 20-22 वर्ष थी | तीनों को ट्रेनिंग के लिए 2 महीने के लिए किसी अन्य शहर में जाना पड़ा | वहाँ उन्होने 1 BHK फ्लेट किराए पे लिया और उसमे रहकर ट्रेनिंग करने लगी | तीनों एक ही कमरे मे रहती थी, साथ ही खाना बनती थी, खाती थी एवं साथ ही हर जगह आना जाना करती थी |

कुछ दिनों बाद अचानक कल्पना की तबीयत खराब हो गई | उसी बीच आशा के पिताजी(महेश जी, उम्र करीब 45-50 वर्ष) तकरीबन 10 बजे वहाँ पाहुचे अपनी बेटी से मिलने | तीनों सहेलियों ने उनका पैर छूकर अभिवादन किया | महेश जी ने भी तीनों को एक-एक करके गले लगा लिया | 12 बजे के करीब आशा और अरुणा रसोई में खाना पीना बनाने चली गई | महेश जी कमरे मे ही बैठ कर अखबार पढ़ रहे थे और कल्पना तबीयत खराब होने की वजह से लेटी थी और फिर उसकी आँख भी लग गई |

इसी बीच महेश जी अखबार पढ़ना छोड़ कल्पना के पास बेड मे आके बैठ गए | कल्पना को गहरे नींद में सोई देख महेश जी ने उसके सर पर हाथ फिराया | फिर कुछ ही देर बाद उनका हाथ धीरे धीरे नीचे उतारने लगा | फिर वो कल्पना के शरीर में यहाँ-वहाँ हाथ लगाने लगे | तबीयत ठीक न होने की वजह से कल्पना गहरे नींद में थी पर अपने शरीर मे दबाव महसूस कर उसकी नींद झटके से उड़ गई | सब कुछ समझने के बाद उसके हिम्मत नहीं हुई आँख खोलने की | उसने सोये सोये ही महेश जी का हाथ अपने शरीर से हटा दिया और वो करवट बदलकर सोई ही रह गई, जैसे कि वो नींद से जगी ही न हो | महेश जी उसके बाद वापस जाकर अखबार पढ़ने लगे |

इस घटना के बाद भी महेश जी लगभग 5 बजे तक वहाँ रहे | पर इस बीच कल्पना एक मिनट के लिए भी बेड से उठी नहीं, सोने का दिखावा करती रही | ये अलग बात है कि 1 सेकंड के लिए भी उसकी आँख लग नहीं पाई | वो कुछ नहीं बोली इसके पीछे कई कारण थे | एक तो उसे उस समय समझ ही नहीं आया कि वो क्या करे क्या न करे, दूसरा डर, बदनामी का डर, आशा से रिश्ता खराब होने का डर, कैरियर खत्म हो जाने का डर |

उस घटना के बाद कल्पना खुद को सामान्य दिखाने की कोशिश करती रही पर अंदर से वो बिलकुल ही डरी हुई, घबराई हुई थी और 2-3 दिन तक तो खा भी नहीं पाई ठीक से न ही उसे नींद आई | उसे सामान्य होने में लगभग पूरा सप्ताह लग गया पर मन में एक डर हमेशा हमेशा के लिए घर कर गया |

ये घटना इस तरह की कोई पहली घटना नहीं है, बंद कमरे या कई जगह न जाने इस तरह की की कितनी ही घटनाएँ घटती हैं आए दिन | पर सवाल ये उठता है कि आखिर महेश जी जैसे लोग हैं कौन ? कितनों कि संख्या में हैं हम-आपके बीच ? ये समस्या आखिर है क्या और इसका निवारण क्या है ? मुझे अपने आप में इन प्रश्नों का कोई ठोस जवाब नहीं मिला इसलिए आप सबके समक्ष इसे रखा और आप सबकी राय कि अपेक्षा है |

विवाहित स्त्री होना :दासी होने का परिचायक नहीं

 
आज जैसे जैसे महिला सशक्तिकरण की मांग जोर  पकड़ रही है वैसे ही एक धारणा और भी बलवती होती जा रही है वह यह कि विवाह करने से नारी गुलाम हो जाती है ,पति की दासी हो जाती है और इसका परिचायक है बहुत सी स्वावलंबी महिलाओं का विवाह से दूर रहना .मोहन भागवत जी द्वारा विवाह संस्कार को सौदा बताये जाने पर मेरे द्वारा आक्षेप किया गया तो मुझे भी यह कहा गया कि एक ओर तो मैं अधिवक्ता होते हुए महिला सशक्तिकरण की बातें  करती हूँ और दूसरी ओर विवाह को संस्कार बताये जाने की वकालत कर विरोधाभासी बातें करती हूँ जबकि मेरे अनुसार इसमें कोई विरोधाभास है ही नहीं .
    यदि हम सशक्तिकरण की परिभाषा में जाते हैं तो यही पाते हैं कि ''सशक्त वही है जो स्वयं के लिए क्या सही है ,क्या गलत है का निर्णय स्वयं कर सके और अपने निर्णय को अपने जीवन में कार्य रूप में परिणित कर सके ,फिर इसका विवाहित होने या न होने से कोई मतलब ही नहीं है .हमारे देश का इतिहास इस बात का साक्षी है कि हमारे यहाँ कि महिलाएं सशक्त भी रही हैं और विवाहित भी .उन्होंने जीवन में कर्मक्षेत्र न केवल अपने परिवार को माना बल्कि संसार के रणक्षेत्र में भी पदार्पण किया और अपनी योग्यता का लोहा मनवाया .
     मानव सृष्टि का आरंभ केवल पुरुष के ही कारण नहीं हुआ बल्कि शतरूपा के सहयोग से ही मनु ये कार्य संभव कर पाए .
   वीरांगना झलकारी बाई पहले किसी फ़ौज में नहीं थी .जंगल में रहने के कारण उन्होंने अपने पिता से घुड़सवारी व् अस्त्र -शस्त्र सञ्चालन की शिक्षा ली थी .उनकी शादी महारानी लक्ष्मीबाई  तोपखाने के वीर तोपची पूरण सिंह के साथ हो गयी और यदि स्त्री का विवाहित होना ही उसकी गुलामी का परिचायक मानें तो यहाँ से झलकारी की जिंदगी मात्र  किलकारी से बंधकर रह जानी थी किन्तु नहीं ,अपने पति के माध्यम से वे महारानी की महिला फौज में भर्ती  हो गयी और शीघ्र ही वे फौज के सभी कामों में विशेष योग्यता वाली हो गयी .झाँसी के किले को अंग्रेजों ने जब घेरा तब जनरल ह्यूरोज़ ने उसे तोपची के पास खड़े गोलियां चलाते देख लिया उस पर गोलियों की वर्षा की गयी .तोप का गोला पति के लगने पर झलकारी ने मोर्चा संभाला पर उसे भी गोला लगा और वह ''जय भवानी''कहती हुई शहीद हो गयी उसका बलिदान न केवल महारानी को बचने में सफल हुआ अपितु एक महिला के विवाहित होते हुए उसकी सशक्तता का अनूठा दृष्टान्त सम्पूर्ण विश्व के समक्ष रख गया .
          भारत कोकिला  ''सरोजनी नायडू''ने गोविन्द राजलू नायडू ''से विवाह किया और महात्मा गाँधी द्वारा चलाये गए १९३२ के नमक सत्याग्रह में भी भाग लिया .
        कस्तूरबा गाँधी महात्मा गाँधी जी की धर्मपत्नी भी थी और विवाह को एक संस्कार के रूप में निभाने वाली  होते हुए भी महिला सशक्तिकरण की पहचान भी .उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में महिलाओं में सत्याग्रह का शंख फूंका .
      प्रकाशवती पाल ,जिन्होंने २७ फरवरी १९३१ को चंद्रशेखर आजाद की शहादत के बाद क्रांति संगठन की सूत्र अपने हाथ में लेकर काम किया १९३४ में दिल्ली में गिरफ्तार हुई .पहले विवाह से अरुचि रखने वाली व् देश सेवा की इच्छुक प्रकाशवती ने बरेली जेल में यशपाल से विवाह किया किन्तु इससे उनके जीवन के लक्ष्य में कोई बदलाव नहीं आया .यशपाल ने उन्हें क्रन्तिकारी बनाया और प्रकाशवती ने उन्हें एक महान लेखक .
      सुचेता कृपलानी आचार्य कृपलानी  की पत्नी थी और पहले स्वतंत्रता संग्राम से जुडी कर्तव्यनिष्ठ क्रांतिकारी और बाद में उत्तर प्रदेश की प्रथम महिला मुख्यमंत्री .क्या यहाँ ये कहा जा सकता है कि विवाह ने कहीं भी उनके पैरों में बंधन डाले या नारी रूप में उन्हें कमजोर किया .
      प्रसिद्ध समाज सुधारक गोविन्द रानाडे की पत्नी रमाबाई रानाडे पति से पूर्ण सहयोग पाने वाली ,पूना में महिला सेवा सदन की स्थापक ,जिनकी राह में कई बार रोड़े पड़े लेकिन न तो उनके विवाह ने डाले और न पति ने डाले  बल्कि उस समय फ़ैली पर्दा  ,छुआछूत ,बाल विवाह जैसी कुरीतियों ने डाले और इन सबको जबरदस्त टक्कर देते हुए रमाबाई रानाडे ने स्त्री सशक्तिकरण की मिसाल कायम की .
        देश की प्रथम महिला प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने फ़िरोज़ गाँधी से अंतरजातीय विवाह भी किया और दो पुत्रों राजीव व् संजय की माँ भी बनी और दिखा दिया भारत ही नहीं सारे विश्व को कि एक नव पल्लवित लोकतंत्र की कमान किस प्रकार कुशलता से संभालकर पाकिस्तान जैसे दुश्मनों के दांत खट्टे किये जाते हैं .क्या यहाँ विवाह को उनका कारागार कहा जा सकता है .पत्नी व् माँ होते हुए भी  बीबीसी की इंटरनेट न्यूज़ सर्विस द्वारा कराये गए एक ऑनलाइन  सर्वेक्षण में उन्हें ''सहस्त्राब्दी की महानतम महिला [woman of the millennium ]घोषित   किया गया .
      भारतीय सिनेमा की  प्रथम अभिनेत्री देविका रानी पहले प्रसिद्ध  निर्माता निर्देशक हिमांशु राय की पत्नी रही और बाद में विश्विख्यात रुसी चित्रकार स्वेतोस्लाव रोरिक की पत्नी बनी और उनके साथ कला ,संस्कृति तथा पेंटिंग के क्षेत्र में व्यस्त हो गयी कहीं कोई बंदिश नहीं कहीं कोई गुलामी की दशा नहीं दिखाई देती उनके जीवन में कर्णाटक चित्रकला को उभारने में दोनों का महत्वपूर्ण योगदान रहा .१९६९ में सर्वप्रथम ''दादा साहेब फाल्के '' व् १९५८ में ''पद्मश्री ''महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में उल्लेखनीय स्थान रखते हैं .
     ''बुंदेलों हरबोलों के मुहं हमने सुनी कहानी थी खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी ''कह राष्ट्रीय आन्दोलन में नवतेज भरने वाली सुभद्रा कुमारी चौहान ''कर्मवीर'' के संपादक लक्ष्मण सिंह की विवाहिता थी किन्तु साथ ही सफल राष्ट्र सेविका ,कवियत्री ,सुगृहणी व् माँ थी .स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद वे मध्य प्रदेश विधान सभा की सदस्य भी रही .गुलाम  भारत  की इस राष्ट्र सेविका के जीवन में हमें तो  कहीं भी गुलामी की झलक नहीं मिलती जबकि जीवन में जो जो काम समाज ने, समाज के नियंताओं ने ,भगवान् ने वेद ,पुराण में लिखें हैं वे सब से जुडी थी . 
         बुकर पुरुस्कार प्राप्त करने वाली ,रैली फॉर द वैली  का नेतृत्त्व  कर नर्मदा बचाओ आन्दोलन को सशक्त करने वाली अरुंधती राय फ़िल्मकार प्रदीप कृष्ण से विवाहित हैं .
       पुलित्ज़र पुरुस्कार प्राप्त झुम्पा लाहिड़ी विदेशी पत्रिका के उपसंपादक अल्बर्टो वर्वालियास से विवाहित हैं और अपने जीवन को अपनी मर्जी व् अपनी शर्तों पर जीती हैं .
       वैजयन्ती माला ,सोनिया गाँधी ,सुषमा स्वराज ,शीला  दीक्षित  ,मेनका  गाँधी ,विजय राजे सिंधिया ,वनस्थली विद्या पीठ की संस्थापिका श्रीमती रतन शास्त्री ,क्रेन बेदी के नाम से मशहूर प्रथम महिला पुलिस अधिकारी किरण बेदी ,प्रसिद्ध समाज सेविका शालिनी ताई मोघे, प्रथम भारतीय महिला अन्तरिक्ष यात्री कल्पना चावला ,टैफे की निदेशक मल्लिका आदि आदि आदि बहुत से ऐसे नाम हैं  जो सशक्त हैं ,विवाहित हैं ,प्रेरणा हैं ,सद गृहस्थ हैं तब भी कहीं कोई बंधन नहीं ,कहीं कोई उलझन नहीं .
          अब यदि हम विवाह संस्कार की बात करते हैं तो उसकी सबसे महत्वपूर्ण रस्म है ''सप्तपदी ''जिसके  पूरे होते ही किसी दम्पति का विवाह सम्पूर्ण और पूरी तरह वैधानिक मान लिया जाता है .हिन्दू विवाह कानून के मुताबिक सप्तपदी या सात फेरे इसलिए भी ज़रूरी हैं ताकि दम्पति शादी की हर शर्त को अक्षरशः स्वीकार करें .ये इस प्रकार हैं -
 १- ॐ ईशा एकपदी भवः -हम यह पहला फेरा एक साथ लेते हुए वचन देते हैं कि हम हर काम में एक दूसरे  का ध्यान पूरे प्रेम ,समर्पण ,आदर ,सहयोग के साथ आजीवन करते रहेंगे .
  २- ॐ ऊर्जे द्विपदी भवः -इस दूसरे फेरे में हम यह निश्चय करते हैं कि हम दोनों साथ साथ आगे बढ़ेंगे .हम न केवल एक दूजे को स्वस्थ ,सुदृढ़ व् संतुलित रखने में सहयोग देंगे बल्कि मानसिक व् आत्मिक बल भी प्रदान करते हुए अपने परिवार और इस विश्व के कल्याण में अपनी उर्जा व्यय करेंगे .
 ३-ॐ रायस्पोशय  त्रिपदी भवः -तीसरा फेरा लेकर हम यह वचन देते हैं कि अपनी संपत्ति की रक्षा करते हुए सबके कल्याण के लिए समृद्धि का वातावरण बनायेंगें .हम अपने किसी काम में स्वार्थ नहीं आने देंगे ,बल्कि राष्ट्रहित को सर्वोपरि मानेंगें .
 4- ॐ मनोभ्याय चतुष्पदी  भवः -चौथे फेरे में हम संकल्प लेते हैं कि आजन्म एक दूजे के सहयोगी रहेंगे और खासतौर पर हम पति-पत्नी के बीच ख़ुशी और सामंजस्य बनाये रखेंगे .
 ५- ॐ प्रजाभ्यःपंचपदी भवः -पांचवे फेरे में हम संकल्प लेते हैं कि हम स्वस्थ ,दीर्घजीवी संतानों को जन्म  देंगे और इस तरह पालन-पोषण करेंगे ताकि ये परिवार ,समाज और राष्ट्र की अमूल्य धरोहर साबित हो .
 ६- ॐ रितुभ्य षष्ठपदी  भवः -इस छठे फेरे में हम संकल्प लेते हैं कि प्रत्येक उत्तरदायित्व साथ साथ पूरा करेंगे और एक दूसरे का साथ निभाते हुए सबके प्रति कर्तव्यों का निर्वाह करेंगे .
     ७-ॐ सखे सप्तपदी भवः -इस सातवें और अंतिम फेरे में हम वचन देते हैं कि हम आजीवन साथी और सहयोगी बनकर रहेंगे .
   इस प्रकार उपरोक्त ''सप्तपदी ''का ज्ञान विवाह संस्कार की वास्तविकता को हमारे ज्ञान चक्षु खोलने हेतु पर्याप्त है .
          इस प्रकार पति-पत्नी इस जीवन रुपी रथ के दो पहिये हैं जो साथ मिलकर चलें तो मंजिल तक अवश्य पहुँचते हैं और यदि इनमे से एक भी भारी पड़ जाये तो रथ चलता नहीं अपितु घिसटता है और ऐसे में जमीन पर गहरे निशान टूट फूट के रूप में दर्ज कर जाता है फिर  जब विवाहित होने पर पुरुष सशक्त हो सकता है तो नारी गुलाम कैसे ?बंधन यदि नारी के लिए पुरुष है तो पुरुष के लिए नारी मुक्ति पथ कैसे ?वह भी तो उसके लिए बंधन ही कही जाएगी .रामायण तो वैसे भी नारी को माया रूप में चित्रित  किया गया है और माया तो इस  सम्पूर्ण जगत वासियों के लिए बंधन है .
        वास्तव में दोनों एक दूसरे के लिए प्रेरणा हैं ,एक राह के हमसफ़र हैं और दुःख सुख के साथी हैं .रत्नावली ने तुलसीदास को
     ''अस्थि चर्ममय देह मम तामे ऐसी प्रीति,
           ऐसी जो श्री राम में होत न तो भव भीति . ''
       कह प्रभु श्री राम से ऐसा जोड़ा कि उन्हें विश्विख्यात कर दिया वैसे ही भारत की प्रथम महिला चिकित्सक कादम्बिनी गांगुली जो कि विवाह के समय निरक्षर थी को उनके पति ने पढ़ा लिखा कर देश समाज से वैर विरोध झेल कर विदेश भेज और भारत की प्रथम महिला चिकित्सक के रूप में प्रतिष्ठित किया .

    इसलिए हम सभी यह कह सकते हैं कि सशक्तिकरण को मुद्दा बना कर नारी को कोई भटका नहीं सकता .अपनी मर्जी से अपनी शर्तों पर जीना सशक्त होना है और विवाह इसमें कोई बाधा नहीं है बाधा है केवल वह सोच जो कभी नारी के तो कभी पुरुष के पांव में बेडी बन जाती है .
              इस धरती पर हर व्यक्ति भले ही वह पुरुष हो या नारी बहुत से रिश्तों से जुड़ा है वह उस रूप में कहीं भी नहीं होता जिसे आवारगी की स्थिति कहा जाता है और कोई उस स्थिति को चाहता भी नहीं है और ऐसे में सहयोग व् अनुशासन की स्थिति तो होती है सही और बाकी सभी स्थितियां काल्पनिक बंधन कहे जाते हैं और वे पतन की ओर ही धकेलते हैं .अन्य सब रिश्तों पर यूँ ही उँगलियाँ नहीं उठती क्योंकि वे जन्म से ही जुड़े होते हैं और क्योंकि ये विवाह का नाता ही ऐसा है जिस हम  स्वयं जोड़ते हैं इसमें हमारी समझ बूझ ही विवादों  को जन्म देती है और इसमें गलतफहमियां इकट्ठी कर देती है .इस रिश्ते के साथ यदि हम सही निर्णय व् समझ बूझ से काम लें तो ये जीवन में कांटे नहीं बोता अपितु जीवन जीना आसान बना देता है .यह पति पत्नी के आपसी सहयोग व् समझ बूझ को बढ़ा एक और एक ग्यारह की हिम्मत लाता  है और उन्हें एक राह का राही बना मंजिल तक पहुंचाता है .
  और फिर अगर एक स्थिति ये है
 Man beating woman,silhouette photo
तो एक स्थिति ये भी  तो है 
 
             
                    शालिनी कौशिक
                             [कौशल]





रविवार, 27 जनवरी 2013

नारी

है कुछ मेरे भी सपने,
कुछ आकांक्षाएं,
कुछ महत्वाकांक्षाएं,
कुछ भाव,
कुछ संवेदनाएं,
कुछ अव्यक्त सा,
घुटता रहता है,
हर वक़्त, हर क्षण,
लेकिन सबको दबाकर,
सारी आकांक्षाएं/महत्वाकांक्षाएं/सं
वेदनाएं,
गुम जाती हूँ मैं तुममे,
इस तरह,
कि मेरी पहचान ही शुरू होती है तुमसे,
कभी कभी सोचती हूँ,
अपने नाम के पीछे के शब्द हटा दूँ,
और उड़ जाउं कहीं दूर,
दूर गगन में,
जी आउं अपने हिस्से का,
सारा जीवन,
कर लूँ पूरी,
सारी आकांक्षाएं/महत्वाकांक्षाएं/संवेदनाएं,
कर दूँ व्यक्त,
जो अब भी अव्यक्त सा,
घुमड़ता है मेरे अन्दर,
लेकिन फिर रुक जाती हूँ,
रोक लेती हूँ अपने सारे भाव,
और लौट आती हूँ,
तुम्हारे बनाये,
सोने के पिंजरे में फिर से,
जिसमे तुमने समाज के ताले लगाये हैं,
लेकिन एक बार सिर्फ एक बार,
काश तुम नारी बनकर,
समझ सकते मेरी भावनाएं।

-नीरज

''नेता जी अभी और ठुकेंगे ''-एक लघु कथा

 
''नेता जी अभी और ठुकेंगे ''-एक लघु कथा 


भरे बाज़ार नेता जी की ठुकाई की जा रही थी .महिलाएं चप्पलों,सैंडिलों से उनका बदचलनी का भूत उतार रही थी .अभी अभी उन्होंने ''स्त्री सशक्तिकरण'' के कार्यक्रम में वहां उपस्थित अपनी ही पार्टी की महिला मोर्चा की कार्यकत्री के साथ छेड़छाड़ कर डाली थी .नेता जी के माथे पर बलात्कार जैसे कलंक का टीका भी लग चुका है .दोष सिद्ध  न  हो  पाने  के कारण संक्रामक बीमारी के कीटाणु की भांति आराम से छुट्टा घूम हैं और पार्टी के महिला सम्मेलनों में काफी उत्साह से भाग ले रहे हैं .महिलाओं के द्वारा जोरदार ठुकाई के बाद नेता जी के चेले उन्हें  किसी तरह बचाकर उनके बंगले पर ले गए .नेता जी बंगले पर पहुँचते ही बेहोश हो गए .डॉक्टर साहब को बुलाया गया .डॉक्टर साहब ने आते ही उन्हें एक इंजेक्शन लगाया और बोले -''अस्सी साल के हो गए नेता जी .इतनी ठुकाई के बाद भी जिंदा हैं ..कमाल है !खैर थोड़ी देर में होश आ जायेगा .'' डॉक्टर साहब के जाने के दस मिनट बाद नेता जी को होश आया तो उनका वफादार दारू सिंह उनका इशारा देखकर अपना कान उनके मुंह के पास ले गया .नेता जी ने धीरे से पूछा -''दारू वो जो गुलाबी साड़ी में लाल सैंडिल से मुझे पीट रही थी वो कौन थी ....पता लगाओ ....मुझे जँच गयी है वो कसम से !!!
                       शिखा कौशिक ''नूतन ''

शनिवार, 26 जनवरी 2013

दोष मेरा है...कविता ...... डा श्याम गुप्त ...


  आज जब मैं हर जगह ,
छल द्वंद्व द्वेष पाखण्ड झूठ ,
 अत्याचार व अन्याय -अनाचार
को देखता हूँ ;
उनके कारण और निवारण पर ,
विचार करता हूँ ,
तो मुझे लगता है कि -
दोषी मैं ही हूँ ,
सिर्फ़ मैं ही हूँ ।

क्यों मैं आज़ादी के पचास वर्ष बाद भी
अंग्रेज़ी में बोलता हूँ ,
राशन की दुकान पर बैठ कर ,
झूठ बोलता हूँ , कम तोलता हूँ |

क्यों मैं बैंक के लाइन में लगना
अपनी हेठी समझता हूँ ,
येन केन  प्रकारेण  ,
पीछे से काम कराने को तरसताहूँ |

क्यों मैं 'ग्रेपवाइन''ब्लोइंग मिस्ट'
 के ही पेंटिंग्स बनाता हूँ ,
'प्रसाद' और 'कालिदास' को भूलकर
शेक्सपीयर के ही नाटक दिखाता हूँ

क्यों मैं सरकारी गाडी में ,
भतीजे की शादी में जाता हूँ,
प्राइवेट यात्रा का भी ,
टीऐ पास कराता हूँ |

क्यों मैं किसी को जन सम्पत्ति -
नष्ट करते देखकर नहीं टोकता हूँ ,
स्वयं भला रहने हेतु
जन-धन की हानि नहीं रोकता हूँ |

क्यों मैं रास्ते रोक कर
शामियाने लगवाता हूँ ,
झूठी शान के लिए
अच्छी -खासी सड़क  बर्वाद कराता हूँ |

क्यों मैं किसी सत्यनिष्ठ व्यक्ति को देखकर,
नाक-मुंह सिकोड़ लेता हूँ ,
सामने ही अपराध, भ्रष्टाचार ,लूट-खसोट , बलात्कार
होते देख कर भी मुंह मोड़ लेता हूँ

क्यों मैं कलेवा की जगह ब्रेकफास्ट
खाने की जगह लंच उडाता हूँ ,
राम नवमी की वजाय, धूम धाम से
वेलेंटाइन डे मनाता हूँ |

क्यों मैं रिश्वत के पहिये को
और आगे बढाता हूँ,
एक जगह लेता हूँ-
छत्तीस जगह देता हूँ |

क्यों मैं भ्रष्ट लोगों को वोट देकर
भ्रष्ट सरकार बनाता हूँ ,
अपने कष्टों की गठरी
अपने हाथों उठाता हूँ |

क्यों मैंने अपना संविधान
अन्ग्रेजी में बनाया ,
जो अधिकांश जन समूह की
समझ में ही न  आया |

आप लड़िये या झगडिये ,
दोष चाहे एक दूसरे पर मढिये ,
दोष इसका है न उसका है न तेरा है ,
मुझे शूली पर चढादो ,
दोष मेरा है।

गुमशुदा

चित्र गूगल से साभार
गुमशुदा हूँ मैं,
आज भी,
इस दौर में,
दिखती हूँ,
हर जगह,
कंधे से कन्धा मिलाती,
पर मान्यताओं/रुढियों/परम्पराओं में,
मैं ही बिधी हूँ,
कुछ इस तरह,
कि गुमशुदा है मेरी पहचान,
सदियों से।

-नीरज

शुक्रवार, 25 जनवरी 2013

प्रेम

चित्र गूगल से साभार 

किससे पूछूं,
तुम्ही से ही पूछता हूँ,
क्यूँ प्रेम करती हो तुम मुझसे?
कितना आसान है पूछना,
है न?
प्रेम, एक शब्द,
और,
उसके हजारों व्याख्यान, अनेकों अर्थ,
है क्या भला यह,
पूछने से पहले मेरे मन में कुछ ना था,
पर पूछने के बाद सोचता हूँ,
तो समझ नहीं आता,
कि इस शब्द के मायने क्या हैं,
तुम्हे तो मैं जानता भी ना था,
ना ही तुम मुझे,
फिर भला यह प्रेम,
हमारे और तुम्हारे बीच,
कहाँ से आ गया,
सच कहूँ तो भावनाएं भी नहीं कहती,
कि यह कुछ है,
है तो बस एक आकर्षण,
जो तुम्हे देखते ही,
मुझे परेशान करती है,
तुम जो पहनती हो,चलती हो,
और जो भी कहती हो,
सबमे होना चाहता हूँ मैं,
और होना चाहता हूँ,
तुम्हारे साथ उन क्षणों में भी,
जब तुम सिर्फ तुम होती हो,
सिर्फ तुम,
हुआ भी, 
कितन ही अंतरंग क्षणों में हम साथ थे,
जब हमारे बीच कुछ भी नहीं था,
शायद हवा भी,
थे तो सिर्फ मैं और तुम/हम,
फिर भी मैं तुमसे आज पूछता हूँ,
तो सोचता हूँ,
कि क्या वाकई प्रेम होता है,
या फिर प्रेम सिर्फ प्रणय है,
या है दोस्तों के बीच बैठ कर,
सीना चौड़ा करने का विषय,
परेशान होता हूँ,
पर समझ नही पा रहा,
कि क्या प्रेम है या नहीं,
अक्सर कुछ लोग अपने प्रेम करने की चर्चा करते मिल जाते हैं,
कैसे किया, कहाँ किया,
पार्क में या फिर मंदिर के अहाते में,
अकेले घर में, या फिर सिनेमा हॉल में,
और मैं चौंक जाता हूँ,
विस्मित भी होता हूँ,
की भला प्रेम करने का विषय है,
या फिर संवेदनाओं के मिलने का,
और दुनिया घुमने लगती है,
दिसम्बर डराने लगता है,
सब रसातल में जा रहे हैं, रसातल में,
लेकिन मैं तुम्हारे पास आता हूँ,
और पूछता हूँ,
की क्या बिना प्रणय के,
प्रेम नहीं हो सकता,
या फिर अस्तित्व ही प्रणय में है,
अगर ऐसा है,
तो जाओ,
नहीं करता मैं प्रणय निवेदन,
जब प्रेम प्रणय से होगा परे,
तब आना,
तब भी पूछूँगा,
क्यूँ प्रेम करती हो तुम मुझसे?

-नीरज 

वह आदि-शक्ति...डा श्याम गुप्त ...


भारत माता



ब्रह्मा-सावित्री, विष्णु-लक्ष्मी, शिव-शक्ति
वह नव विकसित कलिका बनकर,
सौरभ कण वन -वन विखराती।
दे मौन निमन्त्रण, भ्रमरों को,
वह इठलाती, वह मदमाती

वह शमा बनी झिलमिल झुलमिल ,
झकृत  करती तन -मन को ।
ज्योतिर्मय, दिव्य, विलासमयी ,
कम्पित करती निज़ तन को ॥

अथवा तितली बन पन्खों को,
त्रिदेवी
झिलमिल झपकाती चपला सी
इठलाती, सबके मन को थी,
बारी बारी से बहलाती ॥

या बन बहार निर्ज़न वन को,
हरियाली से नहलाती है।
चन्दा की उज़ियाली बनकर,
सबके मन को हरषाती है ॥

वह घटा बनी जब सावन की,
रिमझिम रिमझिम बरसात हुई।
मन के कौने को भिगो गई,
दिल में उठकर ज़ज़्वात हुई ॥

वह क्रान्ति बनी गरमाती है,
वह भ्रान्ति बनी भरमाती है।
सूरज की किरणें बनकर वह,
पृथ्वी पर रस बरसाती है॥

कवि की कविता बन अन्तस में
कल्पना रूप में लहराई
बन गई कूक जब कोयल की,
जीवन की बगिया महकाई

वह प्यार बनी तो दुनिया को,
कैसे जीयें, यह सिखलाया ।
नारी बनकर कोमलता का,
सौरभ-घट उसने छलकाया ॥

वह भक्ति बनी, मनवता को,
देवीय भाव है सिखलाया ।
वह शक्ति बनी जब मां बनकर,
मानव तब प्रथ्वी पर आया ॥

वह ऊर्ज़ा बनी मशीनों की,
विग्यान, ग्यान- धन कहलाई।
वह आत्म-शक्ति मानव मन में,
संकल्प शक्ति बन कर छाई ॥

वह लक्ष्मी है, वह सरस्वती,
वह मां काली, वह पार्वती
वह महा शक्ति है अणु-कण की,
वह स्वयं-शक्ति है कण-कण की ॥

है गीत वही, संगीत वही,
योगी का अनहद नाद वही ।
बन कर वीणा की तान वही,
मन वीणा को हरषाती है॥

वह आदि-शक्ति, वह प्रकृति-नटी,
नित नये रूप रख आती है ।


उस परम-तत्व की इच्छा बन,
यह सारा साज़ सज़ाती है ॥




गुरुवार, 24 जनवरी 2013

कुछ लोग




           वह बैठी थी और वह हंस रहा था,
    दोनों के बीच दूरियां ज्यादा नहीं थी,
    शायद जानते भी न हों एक दूसरे को,
    लेकिन वह लगातार हंस रहा था,
    बस अड्डे के एक कोने से,
    वह देख रही थी उसे/या नहीं/पता नहीं,
    शायद न देखने का ही प्रयत्न कर रही थी,
    कुछ लोग और खड़े थे,
    शायद बस के इंतज़ार में,
    वह अभी भी हंस रहा था,
    कुछ लोग शायद बहरे थे,
    या बन गए थे/या बहरे होने का नाटक कर रहे थे,
    उसने कुछ बोला,
    कुछ लोगों ने देखा(सुना या नहीं पता नहीं लेकिन उसकी ओर देखा),
    उसने फिर कुछ बोला,
    वह अब भी उसे नहीं देख रही थी,
    बैठी हुई थी,
    बस आई,
    कुछ लोग उठे,
    वह भी उठी,
    वह आगे बढ़ा,
    उसका दुपट्टा उसके हाथ में आया,
    लेकिन वह बस में अन्दर आ चुकी थी,
    उसका दुपट्टा बहार ही रह गया,
    कुछ लोगों ने फिर देखा,
    लेकिन वे चुप थे अब भी,
    शायद मौन व्रत था उनका आज।
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    वह उड़ने आई थी,
    एक लम्बी उड़ान,
    दौड़ना चाहती थी,
    एक लम्बी दौड़,
    कई जिंदगियां जीना चाहती थी,
    इस एक ज़िन्दगी में,
    उसका दुपट्टा भी उसकी ज़िन्दगी का,
    एक हिस्सा था।
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    कुछ लोग बस में पहले से थे,
    उसे कहीं जाना था,
    टिकट ले लिया उसने,
    कंडक्टर ने टिकट देते समय,
    उसे गौर से देखा,
    हंसा भी( शायद कुटिल मुस्कान),
    उसने कुछ नहीं बोला,
    वह एक सीट पर चुपचाप बैठ गयी,
    कुछ लोग उसे अब भी देख रहे थे,
    वो बहरे नहीं थे,
    बातें कर रहे थे,
    उसे देखते हुए,
    फिर वह उतर गयी,
    लोग अब भी देख रहे थे,
    कुछ लोग बाहर भी थे,
    वे भी उसे देख रहे थे,
    लेकिन उसने कुछ नहीं बोला,
    चुपचाप अपने घर चली आई,
    दरवाज़ा बंद कर एक लम्बी साँस ली,
    कुछेक आंसू धुलक गए थे,
    उसके गालों पर,
    यह आंसू भी,
    उसकी ज़िन्दगी का एक हिस्सा थे,
    वह बी एक हिस्सा था उसकी ज़िदगी का,
    और वो बहरे कुछ लोग भी।
    
    नीरज