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मंगलवार, 2 अक्टूबर 2012

हे जनक तेरी लाडो ने ...




हे जनक तेरी लाडो ने हाय कितनी पीड़ा झेली है !
चली अवध को छोड़ सिया वन को आज अकेली है .

जनकनंदिनी  ने पिता के प्रण की आन बचाई ,
जिसने शिवधनु भंग किया उसे वरमाला पहनाई ,
चली आज कंटक पथ  पर जो फूलों में ही खेली है .
चली अवध को छोड़ ..............


माँ सुनयना ने सिखलाया पत्नी धर्म निभाना ,
सिया ने तन-मन कर्म सभी से पति को सबकुछ माना ,
सिया का जीवन आज बना कितनी कठिन पहेली है !
चली अवध को छोड़ ........................

वन वन भटकी जनकनंदिनी राम की बनकर छाया ,
ऐसी  सीता माता पर भी प्रजा ने दोष लगाया  ,
महारानी पद त्याग चली संग कोई न सखी सहेली है .
चली अवध को छोड़ .....
                                         शिखा कौशिक 

6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर भावात्मक प्रस्तुति बधाई

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  2. सीता के वेदना को प्रस्तुत करती शानदार रचना |
    अति सुंदर |
    शलिनी जी, शिखा जी, एक निवेदन-कृपया ब्लॉग के पोस्ट लिस्ट में जितने भी बिना मतलब के पोस्ट ड्राफ्ट में हैं उन्हे मिटा (DELETE) कर दें ताकि एक बार पोस्ट लिस्ट खोलने पे ज्यादा से ज्यादा प्रकाशित पोस्ट देखी जा सके |
    आभार |

    जवाब देंहटाएं
  3. भावात्मक प्रस्तुति ...

    "जनकनंदिनी ने पिता के प्रण की आन बचाई ,
    जिसने शिवधनु भंग किया उसे वरमाला पहनाई ,"

    --उपरोक्त का क्या अर्थ है....पिता ने सीता की शक्ति को देख कर ही यह शर्त रखी थी...तथा सीता स्वयं ही राम से प्रेम करने लगी थी अपनी वाटिका में देखकर और पार्वती से इस राम के लिए प्रार्थना भी की थी
    --- क्या आपके अनुसार सीता किसी और को प्रेम करती थी ..जो उन्होंने पिता के प्रण के लिए समझौता करते हुए राम से विवाह कर लिया ?
    ----- निश्चय ही महत्वपूर्ण विषयों पर लिखने से पूर्व उसकी अर्थ-प्रतीति पर सम्पूर्ण विचार कर लेना चाहिए ....

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