....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
अंक... दस ( समापन अन्क)
लगभग दो वर्ष बाद वर्षा की हल्की हल्की बौछारों के साथ मंद मंद सुखद
पुरवाई शीतल मंद समीर के रूप में बह रही थी । इसे सुहाने मौसम में मैं
वर्षा के एक नए बिरह गीत की प्रथम पंक्ति "तुम दूर से ही मुस्काते हो " को
लिखकर गुनुगुना रहा था तभी अचानक 'काल-बेल' बज उठी ।
दरवाजे पर सुदर्शन व्यक्तित्व बाले प्रौढ़ पुरुष को सामने खड़े पाया ।
' डा कृष्ण गोपाल गर्ग , केजी ?'
'यस, मैंने आश्चर्य से देखा ।'
' डा रमेश ।'
ओह ! रमेश, दिल्ली से ?
'क्या हम पहले कभी मिले हैं' , रमेश ने आश्चर्य से पूछा ।
हाँ..हाँ... सशरीर मिलना ही मिलना थोड़े ही होता है,कालिज में सुमित्रा के सजीव वर्णनों चित्रणों से तो मैं तुमसे मिलता ही रहा हूँ । फिर इतनी सुदर्शन छवि वाला रमेश तो वही हो सकता है ।', मैंने मुस्कुराते हुए कहा ।
धन्यवाद, तुम्हारी बातों से सुमित्रा की ही ध्वनि आती है, के जी जी । तभी उसने कहा, 'हमारी अच्छी पटती थी ।'
मैंने इधर-उधर व रमेश के पीछे देखने का प्रयत्न किया तो रमेश ने कहा, 'कोई नहीं है वहां ।'
'सुमि ?'
सुमित्रा नहीं है ।
क्यों ?
'मज़बूर थी, नहीं आ सकी ।'
रमेश ने बताया,' लगभग दो वर्ष पहले 'बोम्बे-दिल्ली ' फ्लाईट -५२५...दिल्ली उतरते ही क्रेश होगई थी। सुमित्रा भी उसी में थी। किसी भी कार्य में, किसी भी बिंदु या विषय पर , चर्चा व बहस में कभी हार न मानने बाली सुमित्रा, उस दिन प्रारब्ध से हार गयी थी और मेरी सुमित्रा स्मृति-शेष हो गयी । यद्यपि उस समय भी उसके मुख मंडल पर सदा रहने वाली संतोष की आभा, एक विजय-दीप्ति व तृप्ति की सदा रहने वाली मुस्कान ही थी ।'
' तुम्हारे लेख व रचनाएँ वह अवश्य पढ़ती थी जो केजी के नाम से होते थे। वह तुम्हारी फैन थी। शायद कालेज के समय भी एक दो बार तुम्हारा ज़िक्र आया था। एक या दो बार बच्चों के सामने भी उसने बताया था की केजी मेरा मेडीकल कालिज का सहपाठी -मित्र डा. कृष्ण गोपाल गर्ग है। हमारी अच्छी पटती थी। हम सब भी कभी-कभी तुम्हारी केजी नाम से लेख व रचनाएँ पढ़कर हंसते थे कि इस व्यक्ति को डाक्टर न होकर धर्म-प्रवक्ता गुरु, पूर्णकालिक कवि या समाज सुधारक होना चाहिए। सुमित्रा के कागजों में पेपरों की कटिंग व पुस्तकों से तुम्हारा पता मिला । आज जब इस शहर में आना हुआ तो सोचा तुमसे मिला जाय। उसके साथ होते हुए तो उसके आस-पास चारों ओर देखने की फुर्सत व आवश्यकता ही प्रतीत नहीं हुई। एसा ही था न सुमि का व्यक्तित्व व प्रभामंडल ।' रमेश ने मेरी ओर देखा ।
हूँ, मैंने सर हिलाया ।
'क्या हम पहले कभी मिले हैं' , रमेश ने आश्चर्य से पूछा ।
हाँ..हाँ... सशरीर मिलना ही मिलना थोड़े ही होता है,कालिज में सुमित्रा के सजीव वर्णनों चित्रणों से तो मैं तुमसे मिलता ही रहा हूँ । फिर इतनी सुदर्शन छवि वाला रमेश तो वही हो सकता है ।', मैंने मुस्कुराते हुए कहा ।
धन्यवाद, तुम्हारी बातों से सुमित्रा की ही ध्वनि आती है, के जी जी । तभी उसने कहा, 'हमारी अच्छी पटती थी ।'
मैंने इधर-उधर व रमेश के पीछे देखने का प्रयत्न किया तो रमेश ने कहा, 'कोई नहीं है वहां ।'
'सुमि ?'
सुमित्रा नहीं है ।
क्यों ?
'मज़बूर थी, नहीं आ सकी ।'
रमेश ने बताया,' लगभग दो वर्ष पहले 'बोम्बे-दिल्ली ' फ्लाईट -५२५...दिल्ली उतरते ही क्रेश होगई थी। सुमित्रा भी उसी में थी। किसी भी कार्य में, किसी भी बिंदु या विषय पर , चर्चा व बहस में कभी हार न मानने बाली सुमित्रा, उस दिन प्रारब्ध से हार गयी थी और मेरी सुमित्रा स्मृति-शेष हो गयी । यद्यपि उस समय भी उसके मुख मंडल पर सदा रहने वाली संतोष की आभा, एक विजय-दीप्ति व तृप्ति की सदा रहने वाली मुस्कान ही थी ।'
' तुम्हारे लेख व रचनाएँ वह अवश्य पढ़ती थी जो केजी के नाम से होते थे। वह तुम्हारी फैन थी। शायद कालेज के समय भी एक दो बार तुम्हारा ज़िक्र आया था। एक या दो बार बच्चों के सामने भी उसने बताया था की केजी मेरा मेडीकल कालिज का सहपाठी -मित्र डा. कृष्ण गोपाल गर्ग है। हमारी अच्छी पटती थी। हम सब भी कभी-कभी तुम्हारी केजी नाम से लेख व रचनाएँ पढ़कर हंसते थे कि इस व्यक्ति को डाक्टर न होकर धर्म-प्रवक्ता गुरु, पूर्णकालिक कवि या समाज सुधारक होना चाहिए। सुमित्रा के कागजों में पेपरों की कटिंग व पुस्तकों से तुम्हारा पता मिला । आज जब इस शहर में आना हुआ तो सोचा तुमसे मिला जाय। उसके साथ होते हुए तो उसके आस-पास चारों ओर देखने की फुर्सत व आवश्यकता ही प्रतीत नहीं हुई। एसा ही था न सुमि का व्यक्तित्व व प्रभामंडल ।' रमेश ने मेरी ओर देखा ।
हूँ, मैंने सर हिलाया ।
' मैंने सोचा, उसकी अनुपस्थिति में, उसके आसपास से,
नज़दीकी व्यक्तित्वों, मित्रों से कुछ तो उसकी यादों की महक मिलेगी। उसकी
उपस्थिति का अहसास होगा।', रमेश ने कहा ।
आसमान में जोर की गड़गड़ाहट हुई । दूर क्षितिज पर उमड़ी घटाओं के साथ
दोनों छोरों को जोड़ता हुआ इन्द्रधनुष सारे आसमान पर फैला हुआ था ।
मैंने उस और संकेत करके कहा,' रमेश ! देखो वह रही सुमि ।' एक इन्द्रधनुष
मेरी आँखों के कोरों में छलक आयी पावस बूंदों में भी उतर आया था ।
तभी वर्षा की एक तेज बौछार हम दोनों को सांगोपांग भिगो गयी ।
----- इति....इन्द्रधनुष उपन्यास ....
------ आगे क्रमश.. इन्द्रधनुष उपन्यास का-- समर्पण, भूमिका- इन्द्रधनु्षी विचारों के दरबार में, दो शब्द- इन्द्रधनुष का यथार्थ व कथ्य ....
------ आगे क्रमश.. इन्द्रधनुष उपन्यास का-- समर्पण, भूमिका- इन्द्रधनु्षी विचारों के दरबार में, दो शब्द- इन्द्रधनुष का यथार्थ व कथ्य ....
nice story
जवाब देंहटाएंaapke upanyas kee mool prati kee prateeksha rahegi. nice presentation.
जवाब देंहटाएंआप के ब्लाग में पहली बार आया प्रस्तुति अच्छी लगी
जवाब देंहटाएंvijay9: अरे तू भी बोल्ड हो गई,और मै भी......
आम भाषा में लिखा गया यह उपन्यास पठ्य था .अमूमन इतना धेर्य लोगों में होता कहाँ है .?
जवाब देंहटाएं---धन्यवाद एस एम जी..आभार..
जवाब देंहटाएं---धन्यवाद मधु-कलश जी..
---धन्यवाद वीरू भाई जी...साहित्य मूलतः आम भाषा में होना चाहिये तभी उचित भाव-सम्प्रेषण की सम्भावना रहती है...
जवाब देंहटाएं---धन्यवाद.शालिनी जी..ब्लोगार्पण तो हो ही गया...लोकार्पण के पश्चात भेज दिया जायगा...आभार..
जवाब देंहटाएंwah wah wah...gajab gajab gajab...:)
जवाब देंहटाएंधन्यवाद विनीत...
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