’ इन्द्रधनुष’ ------ स्त्री-पुरुष विमर्श पर एक नवीन दृष्टि प्रदायक उपन्यास (शीघ्र प्रकाश्य ....)....पिछले अंक तीन से क्रमश:......
अंक चार
" प्रेम होना या करना एक अलग बात है वह व्यक्ति के वश में नहीं है । अपने प्यार को प्राप्त कर लेना, प्रेमी से प्रेम-विवाह एक सौभाग्य की बात है । परन्तु एक अन्य पक्ष यह भी है कि प्रेम को भौतिक रूप में पा लेना या प्रेम विवाह कोई इतना महत्वपूर्ण व आवश्यक भी नहीं है कि उसके लिए संसार में सब कुछ त्यागा जाय । माता-पिता, रिश्ते-नाते, समाज, मान्यताएं, मर्यादाएं, बंधन व नैतिकता की सीमाएं तोडी जायं । अपना सारा केरियर दांव पर लगाया जाय । यह इतनी बड़ी उपलब्धि भी नहीं है कि प्राण त्यागने को भी प्रस्तुत रहा जाय, जो ईश्वरीय देन है । क्योंकि ' आत्म एव यह जगत है ' वस्तुतः हम प्रत्येक कार्य सिर्फ स्वयं के लिए ही करते हैं । परमार्थ में भी आत्म-सुख का भाव छुपा रहता है । सभी बंधन, सहयोग भी आत्मार्थ से ही जुड़े रहते हैं। हम देंगे तभी मिलेगा भी आत्मार्थ भाव ही है । अतः सिर्फ प्रेम-विवाह की जिद में सारा केरियर, सांसारिक सम्बन्ध यहाँ तक कि जीवन भी खोना पड़ता है तो शायद यह बहुत अधिक मूल्य है । संसार में ऐसी कौन सी प्रेम-कथा है जो इस तरह के सम्बन्ध में परिणत होकर उन्नत शिखर पर पहुँची हो, या जो सुखान्त हो एवं जिससे देश व समाज या व्यक्ति स्वयं उन्नत हुआ हो ।"
" प्रायः कहा जाता है कि महिलायें भावुक होती हैं । परन्तु यह सर्वदा सत्य नहीं है । वैदिक विज्ञान के अनुसार . पराशक्ति -पुरुष सिर्फ भाव रूप में शरीर या किसी पदार्थ में प्रविष्ट होता है जबकि अपरा-शक्ति नारी, प्रकृति, माया, शक्ति या ऊर्जा रूप है जो पदार्थों व शरीर के भौतिक रूप का निर्माण करती है । अतः पुरुष भाव-रूप होने से अधिक भावुक होते हैं, स्त्रियाँ इसका लाभ उठा पाती हैं ।"
' एक्सीलेंट , न्यू आइडियाज़ , नेवर हार्ड ऑफ़ '...एक दम नवीन विचार हैं, पहले कभी नहीं सुने गए ।
' स्टूडेंट कल्चुरल असोसिएशन ' के तत्वावधान में आयोजित वाद- विवाद प्रतियोगिता में " नारी-जागरण के सन्दर्भ में प्रेम, प्रेम-विवाह के बढ़ते चरण व नारी-पुरुष समानता " विषय पर मेरे द्वारा व्यक्त किये गए विचारों के उपरांत साथ में बैठे विनोद ने उपरोक्त वाक्य हाथ मिलाते हुए कहे ।
थैंक्स, मैं मुस्कुराया ।
क्या ये आपके ओरिजिनल विचार हैं ? अचानक पीछे की सीट पर बैठी हुई कुमुद नागर ने पूछा ।
ऑफकोर्स, मैंने हैरानी से कहा ।
' ओह माई गाड!' ..वह स्वयं ही बोली ।
क्या हुआ!
नथिंग ।
ठीक तो हो, मैंने पूछा ।
हाँ, मैं चलती हूँ ।
कुमुद की बगल में बैठी हुई सुमित्रा ने मेरी और देखा । फिर मुस्कुराकर बोली, 'फेंटास्टिक' , क्या बात है। ये उम्र और ये ऊंची ऊंची बातें कहाँ से सीखते हो ?
'पढो..पढो..और पढो । चिंतन-मनन करो, प्रत्येक बात पर ।' मैंने हंसते हुए कहा ।
मैं नहीं समझती किसी के पल्ले कुछ ख़ास पडा होगा । अधिकाँश के तो सिर के ऊपर से निकल गया होगा । ऊंची चीज़ है न ?
' क्या खींचने को कोई और नहीं मिला ?'
' मिले तो बहुत पर तुम जैसा नहीं ।'
जाओ, अपना भाषण पढो । बुलाया जारहा है, देखें क्या तीर चलाती हो ।
" स्त्री -पुरुष समानता का क्या अर्थ है ? ", सुमित्रा ने अपना वक्तव्य प्रारम्भ किया , " अपने कर्तव्यों और मर्यादाओं की सीमा में रहते हुए, स्त्री-पुरुष एक दूसरे का आदर करें । यदि पुरुषों का एक अलग संसार है तो नारी का भी एक 'स्व' का संसार है । कला, साहित्य, संगीत, गृहकार्य, सामाजिक-सांस्कृतिक सुरक्षा दायित्व में तो वे पुरुषों से आगे रहती ही हैं ।"
" स्त्री स्वतन्त्रता होनी ही चाहिए , पर क्या पुरुष से स्वतंत्रता ? या अपने सहज कार्यों से ?...नहीं न । तो स्त्री-जागरण व स्वतंत्रता का क्या अर्थ हो ? पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर समाज, देश व धर्म-संस्कृति के कार्यों में सामान रूप से भाग लेना । स्त्री स्वतन्त्रता सिर्फ पुरुषों के साथ कार्य करना, पुरुषों की नक़ल करना, पुरुषों की भाँति पेंट-शर्ट पहन लेना भर नहीं है । क्या कभी पुरुष..पायल, बिछुआ, कंकण, ब्रा आदि पहनते हैं ? सिन्दूर लगाते हैं । क्या कोई महिला पुरुषों के साथ नहाने-धोने, कपडे बदलने में सहज रह सकती है ? तो क्यों हम पुरुषों की नक़ल करें ? समानता होनी चाहिए , अधिकारों व कर्तव्यों के पालन में । एक व्यक्तित्व को दूसरे व्यक्तित्व को सहज रूप से आदर व समानता देनी चाहिए ।"
'एक्सीलेंट,बहुत खूब', सभी के सराहना के स्वर समवेत स्वर में हाल में गूँज उठे । हाल से बाहर निकलते हुए मैंने प्रशंसा के स्वर में कहा , ' रीयली एक्सीलेंट सुमि! जीनियस'..और स्त्री-पुरुष संबंधों पर तुम्हारे क्या विचार हैं ?
सुमि जोश में थी बोली, 'मैं समझती हूँ प्रत्येक व्यक्तित्व को एक मित्र, राजदार, भागीदार की आवश्यकता होती है। व्यक्ति अकेला कुछ नहीं होता । हम इसलिए हम हैं कि अन्य हमें वह मानते हैं, समझते हैं । ईश्वर तभी ईश्वर है जब भक्त उसे मानता व पूजता है। हाँ उसे स्वयं को उस स्तर तक उठाना चाहिए। सखियाँ तो सदा बचपन से होती ही हैं, परन्तु महिला मित्रों से केवल आधी दुनिया को जानने की संतुष्टि होती है। शेष आधी दुनिया जो पुरुषों की है उसे जाने बिना आत्म-तत्व की पूर्ण संतुष्टि नहीं होती । इसीलिये एक वय के उपरांत पुरुष मित्र भाने लगते हैं । यही बात पुरुषों के साथ भी है । यद्यपि इसमें हमारे शरीर-विज्ञान की मान्यताएं भी पार्ट-प्ले करती हैं । इसलिए महिलायें पति में सच्चा मित्र देखना चाहती हैं । पति तो कोई भी हो सकता है, परन्तु यदि सच्चा मित्र पति हो तो क्या कहना । और पति यदि सच्चा मित्र बन जाय तो दुनिया सुखद-सुहानी रहे । अतः पुरुषों को सच्चा मित्र पहले होना चाहिए । वैसे पुरुष की जो 'सृष्टिगत अहं या ईगो' है उसके कारण वह सदैव नारी का सुरक्षा कवच बनना चाहता है । नारी को भी यह अच्छा लगता है, क्योंकि इससे 'शक्ति' का अहं तुष्ट होता है । भाई, पिता, पुत्र , पति , मित्र..सभी में यह सुरक्षा कवच बनने का भाव होता है । यह जेनेटिक, संस्कारगत होता है। बस, जब पुरुष में किसी कारणवश हीन- भावना आ जाती है तभी वह केवल पति या मालिक होने का व्यवहार करके अपने अहं की तुष्टि करता है जो अति के रूप में अत्याचार-उत्प्रीणन में परिवर्तित हो जाता है। हाँ, कुछ उदाहरणों में यह नारी के सन्दर्भ में भी घटित होता है।"
' यूं आल्सो हैव एक्सीलेंट न्यू आइडियाज़ नैवर हार्ड ऑफ़ '...अचानक पीछे से विनोद की आवाज़ आई और साथ में तालियाँ ।
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-------क्रमश:..... अंक चार का शेष ..... अगली पोस्ट में.....
agli kadi ka intajaar rahega.
जवाब देंहटाएंसामाजिक नव्ज़ को टटोलती अच्छी गुफत गु प्रस्तुत करता अंश ,रोचकता बनी हुई है .होली मुबारक .
जवाब देंहटाएं----धन्यवाद , सन्गीता जी ....शीघ्र प्रस्तुत होगा...होली की शुभ कामनायें..
जवाब देंहटाएं---धन्यवाद वीरूभाई जी ...होली की शुभ कामनायें...बस क्रपा द्रष्टि बनी रहे ...