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बुधवार, 28 दिसंबर 2011

पुरुषत्व,स्त्रीत्व ... प्राकृतिक-संतुलन तथा आज की स्थिति ...डा श्याम गुप्त...



           
        सृष्टि का ज्ञात कारण है ईषत-इच्छा…..’एकोहं बहुस्याम”….. यही जीवन का उद्देश्य भी है । जीवन के लिये युगल-रूप की आवश्यकता होती है । अकेला तो ब्रह्म भी रमण नहीं कर सका….”स: एकाकी, नैव रेमे । स द्वितीयमैच्छत ।“  तत्व दर्शन में ..ब्रह्म-माया, पुरुष-प्रकृति …वैदिक साहित्य में ..योषा-वृषा …संसार में……नर-नारी…।  ब्रह्म स्वयं माया को उत्पन्न करता है…अर्थात माया स्वयं ब्रह्म में अवस्थित है……जो रूप-सृष्टि का सृजन करती है, अत: जीव-शरीर में-- माया-ब्रह्म अर्थात पुरुष व स्त्री दोनों भाव होते हैं।  शरीर - माया, प्रकृति अर्थात स्त्री-भाव होता है । अत: प्रत्येक शरीर में स्त्री-भाव व पुरुष-भाव अभिन्न हैं। आधुनिक विग्यान भी मानता है कि जीव में ( अर्थात स्त्री-पुरुष दोनों में ही) दोनों तत्व-भाव होते हैं। गुणाधिकता (सेक्स हार्मोन्स या माया-ब्रह्म भाव की)  के कारण….स्त्री, स्त्री बनती है…पुरुष, पुरुष ।
        तत्वज्ञान एवं परमाणु-विज्ञान के अनुसार इलेक्ट्रोन- ऋणात्मक-भाव है …स्त्री रूप है । उसमें गति है, ग्रहण-भाव है।  प्रोटोन..पुरुष है….अपने केन्द्र में स्थित, स्थिर, सबसे अनजान, अज्ञानी-भाव रूप, अपने अहं में युक्त, आक्रामक, अशान्त …धनात्मक भावस्त्री- पुरुष के चारों ओर घूमती हुई उसे खींचती है,यद्यपि खिंचती हुई लगती है, खिंचती भी है,आकर्षित करती है,आकर्षित होती हुई प्रतीत भी होती है| इसप्रकार वह पुरुष की आक्रामकता, अशान्ति को शमित करती है, धनात्मकता को….नयूट्रल, सहज़, शान्ति भाव करती है….यह परमाणु का, प्रकृति का सहज़ सन्तुलन है।
          वेदों व गीता के अनुसार शुद्ध-ब्रह्म  या पुरुष अकर्मा है, मायालिप्त जीव रूप में पुरुष कर्म करता है | माया व प्रकृति की भांति ही स्त्री- स्वयं कार्य नहीं करती अपितु पुरुष को अपनी ओर खींचकर, सहज़ व शान्त करके कार्य कराती है परन्तु स्वय़ं कार्य करती हुई भाषती है, प्रतीत होती है। नारी –पुरुष के चारों ओर घूमते हुए भी कभी स्वयं आगे बढकर पहल नहीं करती, पुरुष की ओर खिंचने का अभिनय करते हुए उसे अपनी ओर खींचती है। वह सहनशीला है। पुरुष आक्रामक है, उसी का शमन स्त्री करती है, जीवन के लिये, उसे पुरुषार्थ प्राप्ति हेतु, मोक्ष हेतु । 
        भारतीय दर्शन के अनुसार जीवन के चार पुरुषार्थ हैं - धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष….  स्त्री –धर्म (गुणात्मकता) व काम (ऋणात्मकता) रूप है, पुरुष….अर्थ (धनात्मकता) व काम (ऋणात्मकता ) रूप है….स्त्री-- पुरुष की धनात्मकता को सहज़-भाव करके मुक्ति की प्राप्ति कराती है। यह स्त्री का स्त्रीत्व है। कबीर गाते हैं….“हरि मोरे पीउ मैं हरि की बहुरिया…”…अर्थात मूल-ब्रह्म पुरुष-रूप है अकर्मा, परन्तु जीव रूप में ब्रह्म ( मैं ) मूलत:…स्त्री-भाव है ताकि संतुलन रहे। अत:  यदि पुरुष अर्थात नर…भी यदि स्वयं नारी की ओर खिंचकर स्त्रीत्व-भाव धारण करे, ग्रहण करे तो उसके अहम, धनात्मकता, आक्रामकता का शमन सरल हो तथा जीवन, पुरुषार्थ व मोक्ष-प्राप्ति सहज़ होजाय ।
    
        प्रश्न यह उठता है कि यदि नारी स्वयं ही पुरुष-भाव ग्रहण करने लगे, अपनाने लगे तो ? यही आज होरहा हैपुरुष तो जो युगों पहले था वही अब भी है । ब्रह्म नहीं बदलता, वह अकर्मा है, अकेला कुछ नहीं है। ब्रह्म का मायायुक्त रूप, पुरुष जीवरूप तो  नारीरूपी पूर्ण स्त्रीत्व-भाव  से ही बदलता है, धनात्मकता, पुरुषत्व शमित होता है, उसका अह्म-क्षीण होता है, शान्त-शीतल होता है, क्योंकि उसमें भी स्त्रीत्व-भाव सम्मिलित है। परन्तु स्त्री आज अपने स्त्रीत्व को छोडकर पुरुषत्व की ओर बढ रही है।  आचार्य रज़नीश (ओशो)- का कथन है कि- ’यदि स्त्री, पुरुष जैसा होने की चेष्टा करेगी तो जगत में जो भी मूल्यवान तत्व है वह खोजायगा ।
        हम बडे प्रसन्न हो रहे हैं कि लडकियां, लडकों की भांति आगे बढ रही है। माता-पिता बडे गर्व से कह रहे हैं कि हम लडके–लडकियों में कोई भेद नही करते खाने, पहनने, घूमने, शिक्षा सभी मैं बराबरी कर रही हैं, जो क्षेत्र अब तक लडकों के, पुरुषों के माने जाते थे उनमें लडकियां नाम कमा रही है। परन्तु क्या लडकियां स्त्री-सुलभ कार्य, आचरण-व्यवहार कर रही हैं?  मूल भेद तो है ही...सृष्टि महाकाव्य में कहा गया है ....
                     ' भेद बना है, बना रहेगा,
                      भेद-भाव व्यवहार नहीं हो | '
           क्या आज की शिक्षा उन्हें नारीत्व की शिक्षा दे रही है? आज सारी शिक्षा-व्यवस्था तथा समाज भी भौतिकता के अज्ञान में फ़ंसकर लडकियों को लड़का बनने दे रहा है। यदि स्त्री स्वयं ही पुरुषत्व व पुरुष-भाव की  आक्रमकता, अहं-भाव, धनात्मक्ता ग्रहण करलेगी तो उसका सहज़ ऋणात्मक-भाव, उसका कृतित्व, उसका आकर्षण समाप्त हो जायगा। वह पुरुष की अह्मन्यता, धनात्मकता को कैसे शमन करेगी? पुरुष-पुरुष अहं का टकराव विसन्गतियों को जन्म देगा। नारी के स्त्रीत्व की हानि से उसके आकर्षणहीन होने से वह सिर्फ़ भोग-उपभोग की बस्तु बनकर रह् जायगी ।  पुरुषों के साथ-साथ चलना, उनके कन्धे से कन्धा मिला कर चलना एक पृथक बात है आवश्यक भी है परन्तु लडकों जैसा बनना, व्यवहार, जीवनचर्या एक पृथक बात।  आज नारी को आवश्यकता शिक्षा की है, साक्षरता की है, उचित ज्ञान की है। आवश्यकता स्त्री-पुरुष समता की है, समानता की नहीं, स्त्रियोचित ज्ञान, व्यवहार जीवनचर्या त्यागकर पुरुषोचित कर्म व व्यवहार की नहीं…..।

                                     .... चित्र -गूगल ..साभार 

8 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छा विचार पूर्ण आलेख लेकिन परिवर्तन की सर्व व्यापी आंधी को कैसे रोकियेगा .बदलाव भी तो प्रकृति का ही नियम है .क्या पुरुष नारी भाव ग्रहण नहीं कर रहा है बन संवर रहा है चोटी भी रखे है बाली भी पहने है .क्या कीजिएगा .यह यौन परिवर्तन का दौर है .

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  2. बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति ।
    मेरा शौक
    मेरे पोस्ट में आपका इंतजार है,नई रोशनी में सारा जग जगमगा गया |
    नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ.
    * नया साल मुबारक हो आप सभी को *

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  3. धन्यवाद् राजपूत जी,शर्मा जी व वीरू भाई....
    ---सच कहा--आन्धी को कौन रोक पाया है,राम-क्रष्ण ने इतना काम किया पर अब भी दुष्टता मौजूद है प्रिथ्वी पर... बस सब प्रयत्न करते हैं कि हमने तो कर्म किया आगे जो उसकी इच्छा...
    --- नारी भव तो सदा से पुरुष में भी है...यदि वह वास्तविक स्त्रैण-भाव ग्रहण करे तो सहज़ता हो..सिर्फ़ पहनावा- व बातों से नहीं.....इसी प्रकार स्त्री पहनावा व बातों से पुरुष भाव त्यागे तो..सहज़ स्त्रैण भाव रहे..

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  4. क्या आज की शिक्षा उन्हें नारीत्व की शिक्षा दे रही है?
    आज सारी शिक्षा-व्यवस्था तथा समाज भी भौतिकता के अज्ञान में फ़ंसकर लडकियों को लड़का बनने दे रहा है।

    ईश्वर की इच्छा क्या है ?

    नव वर्ष की शुभकामनाएं।
    http://www.islamdharma.blogspot.com/2011/12/how-to-perfect-your-prayers-video.html

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  5. ज़माल जी.....
    ईश्वर.....इच्छाओं से परे है....तभी तो वह ईश्वर है....

    --आप नहीं समझेंगे ..ये भारतीय तत्व-दर्शन है...

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  6. @ डा. श्याम गुप्ता जी ! आप ख़ुद नहीं समझ पाए हैं।
    आप ख़ुद अपने लेख में कह रहे हैं कि अकेला तो ब्रह्म भी रमण न कर सका।
    देखिए और ख़ुद समझने की कोशिश कीजिए।
    सृष्टि का ज्ञात कारण है ईषत-इच्छा…..’एकोहं बहुस्याम”….. यही जीवन का उद्देश्य भी है । जीवन के लिये युगल-रूप की आवश्यकता होती है । अकेला तो ब्रह्म भी रमण नहीं कर सका….”स: एकाकी, नैव रेमे । स द्वितीयमैच्छत ।“

    वैदिक साहित्य में दोनों तरह की बातें कही गई हैं।
    यह भी कहा गया है कि ईश्वर इच्छाओं से परे है और फिर उसके बारे में ऐसी बातें भी कही गई हैं जिनसे उसमें इच्छा का होना पता चलता है।

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  7. ----जमाल जी तभी उसे इच्छा नहीं ईषत-इच्छा (जो स्वय ही इच्छा है---गुणं गुणेषु न वर्तते..इच्छा को इच्छा नही व्यापती) कहा गया ...वह ब्रह्म जब व्यक्त हुआ तब तब श्रिष्टि-हेतु..अहैतुकी( अर्थात स्वयं के हेतु से परे)...द्वितीयमेच्छतं...एकोहं बहुस्याम..ब्रह्म संकल्प है...इच्छा नहीं...
    ---रेशम कीट स्वयं धागे बुन स्वयं ही लिपटा जाये...परन्तु जीव रूप में...
    ---यह गहन तत्व ग्यान है...इसीलिये वैदिक साहित्य में सदा दोनों बातें कही गयी हैं...स्प्ष्ट करने के लिये...
    ---अब आप इस जाल में न फ़सें...

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