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मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

ये औरत ही है !


ये औरत ही है !



पाल कर कोख में जो जन्म देकर बनती  है जननी 
औलाद की खातिर मौत से भी खेल जाती है .


बना न ले कहीं अपना वजूद औरत 
कायदों की कस दी  नकेल जाती है .


मजबूत दरख्त बनने नहीं देते  
इसीलिए कोमल सी एक बेल बन रह जाती है .


हक़ की  आवाज जब भी  बुलंद करती है 
नरक की आग में धकेल दी जाती है 





फिर भी सितम  सहकर  वो   मुस्कुराती  है 
ये औरत ही है जो हर  ज़लालत  झेल  जाती  है .


                                          शिखा कौशिक 
                           [vikhyaat  ]













2 टिप्‍पणियां:

  1. -- क्यों...........

    आखिर क्यों नहीं वो स्वयं मजबूत बनती है।
    दुनिया की सारी ज़लालत क्यों झेल जाती है ।

    क्यों किसी के सहारे का है आसरा उसे,
    क्यों न खुद सहारा मर्द का बनके दिखाती है ।

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