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मंगलवार, 1 नवंबर 2011

तुम्म्हारी आँच

जीवन की


सर्द और स्याह रातों में


भटकते भटकते आ पहुँचा था


तुम तक


उष्णता की चाह में


और तुम्हारी ऑच


जैसे धीरे धीरे समा रही है मुझमें


ठीक उसी तरह


जैसे धीमी ऑच पर


रखा हुआ दूध


जो समय के साथ


हौले हौले अपने अंदर


समेट लेता है सारे ताप को


लेकिन उबलता नहीं


बस भाप बनकर


उडता रहता है तब तक


जब तक अपना


मृदुल अस्थित्व मिटा नहीं देता


और बन जाता है


ठेास और कठोर


कुछ ऐसे ही सिमट रहा हूँ मैं


लगातार हर पल


शायद ठोस और कठोर


होने तक या


उसके भी बाद


ऑच से जलकर


राख होने तक ?

27 टिप्‍पणियां:

  1. उष्णता की चाह में.सुंदर प्रस्‍तुति.

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  2. uske bhi baad aanch se jal kar rakh hone tak?........
    ye panktiyan kavita ka poora shrey le gai hai..
    behat sundarta se guthen sbabd...

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  3. बेहद गहन भावो का प्रस्तुतिकरण्।

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  4. कुछ ऐसे ही सिमट रहा हूँ मैं
    लगातार हर पल
    ऑच से जलकर
    राख होने तक ?

    अद्भुत लेखन ... लाजवाब रचना...

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  5. Atul srivastava ji
    nisha maharaja ji
    vandana ji
    asha bist ji
    lokendra songh rajput ji
    sandhya shrma ji
    vasundhara pandey ji
    DUSK-DRIZZLE ji
    aap sab ka bahut bahut aabhar.
    Aashish dene ke liye.

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  6. बहुत भाव पूर्ण लेखन |बधाई
    आशा

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  7. प्रिय अशोक शुक्ल जी बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति सच में नारी के ये गुण उसे और महान बनाते हैं ..काश उसकी भावनाओ को उसके बलिदान और त्याग को लोग ठीक से समझें और उन्हें आदर दें
    शुक्ल भ्रमर ५
    हौले हौले अपने अंदर


    समेट लेता है सारे ताप को


    लेकिन उबलता नहीं

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  8. सुरेन्द्र शुक्ल जी तथा आशा जी
    आपको प्रणाम कि आपने मेरी अभिब्यक्ति को अपना आषीश प्रदान किया
    शुभकामनाऐं!!

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  9. भावपूर्ण उत्तेजक प्रस्तुति समर्पण संसिक्त .

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  10. अशोक जी रचना ने प्रभावित किया और साथ ही कई प्रश्नों ने भी जन्म लिया.....आप आज्ञा दे तो मै प्रश्न करूँ?

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  11. Virubhai ji
    sadhanaji
    ashirvad dene ke liye aabhar.
    Yashwant mehta ji
    aapke prashan ka swagat hai!

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  12. यश जी ---कहते हुए शरमा रहे हैं....

    ----एक दम त्रुटि-पूर्ण भाव हैं ...

    नारी का सान्निध्य नर को तरल,म्रदु ,सौम्य, सौन्द्र्यप्रिय, भावुक व समन्वयकारी वस्तुत:..वास्तविक पूर्ण नर बनाता हैं ..बनाना चाहिये ....क्ठोर व ठोस नहीं...यह नारी के ताप व अग्नि के ताप में अन्तर है ...कवि को यही तो समझ्ना होता है ...अन्यथा कविता सिर्फ़ शाब्दिक-वाक्यान्श है जो भावुक् भी हो सकती है ...वास्तविक नहीं ...

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  13. क्या कहूँ निशब्द करदिया आपने तो बहुत ही गहरे भवन को बहुत ही खूबसूरती के साथ शब्दों को पिरोते हुए उकेरा है आपने बहुत ही बहतरीन एवं शानदार अभिव्यक्ति....

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  14. बहुत सुन्दर रचना ...भावपूर्ण बधाई हो
    मेरे ब्लॉग पे आपका स्वागत है ...

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  15. पल्लवी जी व मनीश अी आभार
    आदरणीय डा0 श्याम जी,
    मेरी यह कविता वजर््य नारी स्वर पर प्रकाशित कविता ‘मोल’ की प्रतिक्रिया स्वरूप थी। और जहाँ तक नारी के सानिध्य से पुरूष की पूर्णता का प्रश्न है वह तो शाश्वत है परन्तु जिस प्रकार प्रत्येक पुरूष आदर्श नहीं होता उसी तरह प्रत्येक स्त्री भी आदर्श नहीं होती।
    आज के बढते आधुनिकीकरण में अपनी भौतिक उपलब्धियों के लिये किसी समर्थवान पुरूष का उपयोग करने में माहिर महिलाओं की भागीदारी नकारी नहीं जा सकती ।
    मेरी उक्त पंक्तियाँ भी समाज की किसी ऐसी ही शातिर महिला के द्वारा बिछाये भावनात्मक जाल में फंसे किसी सीधे और सज्जन पुरूष की मनोदशा के चित्रण हेतु लिखी गयी थीं।
    अब इसे इस नये नजरिये से पढकर भी देखें। आदरणीया वजर््य नारी स्वर द्वारा लिखित मूल कविता ‘मोल’ का लिंक इस प्रकार हैः-

    मोल!!

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  16. अशोक जी....सन्दर्भित कविता पढी ...परन्तु उस कविता का सन्दर्भ एक दम भिन्न है ..इस प्रस्तुत्त कविता के विषय से कोई सम्बद्धता नहीं है....

    --- विशिष्ट उदाहरण को आप साहित्य में सामान्य -नियम की भान्ति बिलकुल नहीं प्रस्तुत कर सकते..क्योंकि साहित्य समाज का मूल इतिहास होता है ...मानदन्ड स्थापक.... कोरी कल्पना या सिर्फ़ हास्य-व्यन्ग्य नहीं...
    ---मेरा अब भी वही स्पष्ट मत है...

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  17. पुनश्च---

    मैं यह भी और जोडना चाहूंगा कि....कविता नारी के स्वाभिमान को , नारी गौरव व नारीत्व को अनादरित करती है...कि वह एक धीमी आंच है ... नर के रक्त को उबाल नहीं पाती.... और अन्त मेन नर को जलाकर राख कर देती है (नर जल कर राख कभी नहीं होता--इस उष्णता से नर..तर जाता है ...जी जाता है..हज़ार जन्म .. )

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  18. सुनते यही आये थे सोना आग में तप कर कुंदन हो जाता है और तपकर कठोर होने पर ही मनमाफिक सांचे में ढाला जाता है ...
    रिश्तों की बेहतरी के लिए हो तो स्वागत योग्य है वरना अच्छे बुरे इंसान होते ही हैं !

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  19. dr. श्याम जी आपका धन्यवाद िक आपने इतनी गम्भीरता से रचना को पढ्कर अपने सकारात्मक सुझाव िदये येह अवश्य ही भिवश्य मे रच्न िलखते समय मेरे िलये मर्ग्दर्शक होन्गे पुनह धन्यवादाशीश सेने के िलये पुनह धन्यवाद

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  20. Vaanigeet ji
    thanks a lot
    vichar to achache aur bure dono tarah ke logo ke man me aate hai.
    Onces again thanks

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  21. ---वाणी जी......सोना आग में तपकर कठोर नहीं होता अपितु पिघलकर तरल होजाता है ..तभी( तरल अवस्था में ही ) वह सान्चे में ढाला जाता है एवं उसकी अशुद्धियां दूर की जाती हैं, कुन्दन बनाने के लिये .....

    ---शतप्रतिशत सोना मुलायम होता है...सोने को और अधिक कठोर बनाने के लिये उसमें अन्य धातु ( तांबा..आदि )को मिलाया जाता है....

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