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सोमवार, 31 अक्टूबर 2011

राजीनामा फिर शादीनामा

                                                                                                    -प्रेम प्रकाश
बाजार की सीध में चले दौर ने परिवार संस्था को नई वैचारिक तमीज के साथ समझने की दरकार बार-बार रखी है। इस दरकार ने इस संस्था के मिथ और मिथक पर नई रौशनी डाली भी है। अलबत्ता, अब तक अब तक विवाह और परिवार के रूप में विकसित हुई संस्था की पारंपरिकता पर खीझ उतारने वाली सनक तो कई बार जाहिर हो चुकी है पर इसके विकल्प की जमीन अब भी वीरान ही है। साफ है कि मनुष्य की सामाजिकता का तर्क आज भी अकाट्य  है और इस पर लाख विवाद और वितंडा के बावजूद इसे खारिज कर पाना आसान नहीं है।
ऐसा ही एक सवाल संबंधों की रचना प्रक्रिया को लेकर बार-बार उठता है। विवाह की एक कानूनी व्याख्या भी है। इस व्याख्या और मान्यता की जरूरत भी है। पर यह भी उतना ही सही है कि कानूनी धाराओं से वैवाहिक संबंध को न तो गढ़ा जा सकता है और न ही इसके निर्वाह का गाढ़ापन इससे तय होता है। इसके लिए तो लोक और परंपरा की लीक ही पीढ़ियों की सीख रही है। दिलचस्प है कि इस सीख को ताक पर रखकर कानूनी ओट में विवाह संस्था को मन माफिक आकार देने की कोशिश हाल के सालों में काफी बढ़ी है। परिवार और समाज को दरकिनार कर जीवनसाथी के चुनाव का युवा तर्क आजकल सुनने में खूब आता है। स्वतंत्रता के रकबे को अगर स्वच्छंदता तक फैला दें तो यह तर्क आपको प्रभावशाली भी लग सकता है। पर यह आवेगी उत्साह कई खामियाजाओं का कारण बन सकता है।
अच्छी बात है कि अपने एक नए फैसले में अदालत ने भी तकरीबन ऐसी ही बात कही है। जो लोग सीधे कोर्ट और वकील के चक्कर से बचते हुए मंदिरों में विवाह रचाने का रास्ता चुनते रहे हैं, उनके लिए अदालत का नया फैसला महत्वपूर्ण है। हाईकोर्ट ने आर्य समाजी विवाह के एक मामले में साफ कहा है कि मंदिर में शादी करने का यह कतई मतलब नहीं कि दो व्यस्कों की सहमति भर को सात फेरे लेने का न्यूनतम आधार मान लिया जाए। इस फैसले में कहा गया है कि किसी भी विवाह के लिए दोनों पक्षों के माता-पिता या अभिभावक की सहमति जरूरी है। और अगर शादी मां-पिता की बगैर मर्जी के की जा रही है तो इस असहमति की वजह लिखित रूप में रिकार्ड पर होनी चाहिए। साथ ही ऐसी स्थिति में गवाह के तौर पर दोनों पक्षों की तरफ से अभिभावक के रूप में नजदीकी रिश्तेदार की मौजूदगी जरूरी है। यही नहीं मंदिर में विवाह संपन्न होने से पूर्व माता-पिता और संबंधित इलाके के थाने और सरकारी कार्यालयों को सूचित करना होगा।
साफ है कि अदालत ने विवाह को परिवारिकता और सामाजिकता से जुड़ा एक महत्वपूर्ण अनुष्ठान माना है। उसकी नजर में विवाह संस्था के महत्व का आधार और सरोकार दोनों व्यापक है। इस व्यापकता में सबसे महत्वपूर्ण रोल उन सहमतियों का है जो पारंपरिक शादियों में खासतौर पर महत्व रखती हैं। बच्चों को जन्म देने का विवेकपूर्ण फैसला करने वाले मां-बाप को एकबारगी अपने बच्चों के जीवन के सबसे महत्वपूर्ण फैसले से बाहर नहीं किया जा सकता है। आज तक यह सीख परंपरा की गोद में दूध पीती रही है अब इसे कानूनी अनुमोदन भी हासिल हो गया है। 
                                                                          (http://puravia.blogspot.com/2011/10/blog-post_31.html)

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