सींचे अपने रक्त से, हड्डी देय गलाय |
धन्य आत्मा हो गई, प्रथम-दर्श माँ पाय ||
राखै भीतर कोख के, अंकुर पौधा होय |
अमिय-दुग्ध से पोसती, पुतली सा संजोय ||
पाली-पोसी प्राण सा, माता सदा सहाय |
दो किलो का बचपना, सत्तर का हो जiय |
सत्तर का होकर करे, पत्थर-दिल सा काम |
दुर्बल वृद्धा का करे, जीना वही हराम ||
*प्रसवदता का दर्द वो, हफ़्तों में हो सोझ | *प्रसव के समय होने वाली पीड़ा
प्राणान्तक लेकिन हुआ, मन-पीड़ा का बोझ ||
अम्मा थी तब मलकिनी, आज हुई अनजान |
गेस्ट रूम में रही वो, सालों परदा तान ||
बहकावे में आ गया, हुआ कलेजा चूर |
किया किसी को पास में, माता होती दूर |
बहकावे म आ गया, हुआ कलेजा चूर |
जवाब देंहटाएंbeautiful lines.
Badhai
pashchatap se nikle shabd achcha laga padh kar.bahut achchi kavita likhi hai.
जवाब देंहटाएंNice .
जवाब देंहटाएंआपकी पोस्ट पर मेरा एक शेर सटीक बैठता है -
जवाब देंहटाएं''उम्रदराज माँ की अहमियत कम नहीं होती
ये उनसे पूछकर देखो की जिनकी माँ नहीं होती ''
आपकी पोस्ट ने उन सभी संतानों को आईना दिखा दिया है जो अपनी माँ को बुढ़ापे में नारकीय जीवन जीने के लिये विवश कर देते हैं .
बेहतरीन दोहे। सार्थक, विचारोत्तेजक।
जवाब देंहटाएंवर्तमान शहरों में माँ ki sthiti darshati सार्थक प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंbhut acchi bat khai apne mujhe bhut pasnd aayi harish g aise hi ap likhte jaye aur tarki karte jaye yahi dua hai meri rab se
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत आभार ||
जवाब देंहटाएंवाह! बहुत सुन्दर सच्चे दोहे...
जवाब देंहटाएंसादर...