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शनिवार, 27 अगस्त 2011
इन्टरनेट से मुट्ठी में है ज्ञान पर फिसल रही है संस्कारो की रेतःडा0 उषा यादव
27 अगस्त को उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के सभागार में वैज्ञानिक उद्देश्यों को प्रोत्साहित करने के लिये बनायी गयी लखनऊ की संस्था ‘तस्लीम’ के साथ मिलकर हिंदी बाल साहित्य में नव लेखन पर ऐक संगोष्ठी में प्रतिभाग करना ऐसा ही था जैसे किसी टाइम मशीन पर सवार होकर बीते दिनों की सैर करना।
इस गोष्ठी के मुख्य अतिथि के रूप में पधारे डा0 श्याम सिंह शशि, संस्थान के नव नियुक्त अध्यक्ष डा0 प्रेम शंकर और संस्थान के पूर्व निदेशक (अब सेवानिवृत) डा0 विनोद चन्द्र पाण्डेय ‘विनोद’ और वर्तमान निदेशक श्री एस0एस0 सिंह के अतिरिक्त डा0 उषा यादव जी को भी सुनने का अवसर यहाँ उपलब्ध हो सका। जहाँ डा0 श्याम सिंह शशि की चिंता समाज के उन बालकों के संबंध में थी जो निम्न वर्ग, पिछडे वर्ग अथवा गैर सुविधाजनक स्कूलों में पढने जाते है वहीं विनोद चन्द पाण्डेय वर्तमान बाल लेखन से संतुष्ट दिखे।
लगभग सभी वक्ताओं के द्वारा इस बात पर बल दिया कि बच्चों के लिये साहित्य लिखते समय बाल मनोविज्ञान की समझ रखना जरूरी है जिससे उनकी लिखी रचनायें बच्चों के मन को भी छू सकें। अनेक आमंत्रित विद्धजन स्वयं तो उपस्थित न थे परन्तु उनके वक्तब्य गोष्ठी में पढे गये । इन्ही में से एक थीं डा0 सरोजनी कुलश्रेष्ठ, जिनका वक्तब्य हिंदी संस्थान की उपसंपादिका डा0 अमिता दुबे द्वारा पढा गया।
सबसे रोचक वक्तब्य रहा बाल साहित्य लेखन के क्षेत्र में विशिष्ट पहचान रखने वाली डा0 उषा यादव जी का जिन्होंने बाल सहित्य में परंपरागत रूप से चिडिया, छाता, स्कूल जैसे विषयों पर लिखे जाने वाली कविता कहानियों को सिरे से खारिज करते हुये इस विषय की पुनरावृति को पूर्णतः नकल की श्रेणी में परिभाषित किया। उनका कहना था कि साहित्य वह है जो मौलिक हो और मौलिकता का तात्पर्य है वह विषय जो पूर्णतः अछूते हों।
दशको पूर्व रची गयी बाल रचनाओं में विषय पाटी और स्याही की दवात हुआ करती थी जबकि आज के परिपेक्ष्य में कम्प्यूटर और उसके माउस से बालक का परिचय होने के कारण इन नवीन विषयों पर लिखना प्रासंगिक है। संस्कार जैसे कुछ विषयों के संबंध में उनका मानना था कि वे शाश्वत है तथा उनके संबंध में लिखना आवश्यक है जिससे क्षरित होते सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा की जा सके । उनके द्वारा इसके संबंध में ऐक अनूठा उदाहरण दिया कि आज इन्टरनेट और अन्य संचार माध्यमों के कारण सारे संसार का ज्ञान हमारे बच्चों की मुट्ठी में समा तो गया है परन्तु इससे बच्चों में संस्काहीनता भी पनप रही है। उन्होंने आगाह किया कि ज्ञान से भरी इस भिंची मुट्ठी से संस्कारों की रेत लगातार फिसलती जा रही है हमें इसे सहेजना का प्रयास करना ही होगा।
इन वक्ताओ को सुनते हुये मुझे हिंदी संस्थान के इसी सभागार में वर्ष 2000 में राहुल फाउन्डेशन की ओर से आयोजित उस गोष्ठी की याद हो आयी जब सुप्रसिद्व चिंतक और विज्ञान लेखक श्री गुणाकर मुले द्वारा ‘समय से जुडे कालस्य कुटिला गतिः’ नामक विषय पर ऐक व्याख्यान को सुनने का अवसर प्राप्त हुआ था उस संगोष्ठी में उन्होंने समयरेखा पर दार्शनिक तथा वैज्ञानिक यात्रा कराने का सुख श्रोताओं को उपलब्ध कराया था। कदाचित इस गोष्ठी में जाकर भी मैं उस टाइम मशीन पर सवार होकर लौटा हूँ जिसमें समय की धारा में पीछे लौटकर 1979 तक जा पहुँचा हूँ जहाँ मैने अपनी पहली कविता लिखी थी। यह कविता मेरे स्कूल की पत्रिका के साथ साथ साप्ताहिक समाचार पत्र‘गढवाल मंडल’ मे छपी थी। विद्यालय पत्रिका की प्रति न जाने कहाँ गुम हो गयी परन्तु समाचार पत्र की कतरन आज भी सहेजी रखी है। है।
आन्दोलनरत श्री अन्ना हजारे के उद्देश्यपूर्ण वातावरण में कदाचित आपको यह आज भी सार्थक जान पडे।
संकल्प(कविता)
हमको आगे बढना है , हिमगिरि पर भी चढना है।
हिम्मत करके हमको वीरों हमको कदम बढाना है।
हम भारत के श्रेष्ठ नागरिक हमको देश जगाना है।
इसी देश के हित में मरकर अमर हमें हो जाना है।
इस धरती पर जन्म लिया तो यही हमारा धाम है।
इसकी रक्षा में मर मिटना मात्र हमारा काम है।
माँ भारत का मान बढाना इसको नित चमकाना है ।
बढे देश का मान सदा ही यही ध्येय हो हम सबका।
सभी धर्म वाले भाई हैं भाव रह अपने पनका।
और छात्र को निष्ठा पूर्वक, नित्य नियम से पढन है।
गाँधी गौतम के सिद्धांतो को फिर से अपनाना है।
माँ के गौरव मस्तक पर नया मुकुट नित मढना है।
हमको आगे बढना है , आगे कदम बढाना हैं।
हमको आगे बढना है , हिमगिरि पर भी चढना है।
अशोक कुमार शुक्ला कक्षा 9 पौडी गढवाल
(मेरी प्रथम प्रकाशित कविता, रचनाकाल सन 1978, प्रकाशक-साप्ताहिक‘गढवाल मंडल)
abhar
जवाब देंहटाएंASHOK JI -IT'S NICE TO READ YOUR POEM .VERY NICE AND RELEVANT POST .THANKS A LOT .
जवाब देंहटाएंachhi kavita sukriya.....
जवाब देंहटाएंbahut sundar prastuti
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