शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2016

ये आज पूछता है बसंत ....डा श्याम गुप्त ..

                                     


ये आज पूछता है बसंत 

ये आज पूछता है बसंत

क्यों धरा नहीं इठलाई है |
इस वर्ष नही क्या मेरी वो,
वासंती पाती आई है |
क्यों रूठे रूठे वन उपवन
क्यों सहमी सहमी हैं कलियाँ |
भंवरे क्यों गाते करूण गीत
क्यों फाग नहीं रचती धनिया |
ये रंग बसन्ती फीके क्यों
है होली का भी हुलास नहीं |
क्यों गलियाँ सूनी सूनी हैं
क्यों जन मन में उल्लास नहीं |
मैं बोला सुन लो ऐ बसंत !
हम खेल चुके बम से होली |
हम झेल चुके हैं सीने पर,
आतंकी संगीनें गोली |
कुछ मांगें खून से भरी हुईं
कुछ ढूध के मुखड़े खून रंगे  |
कुछ दीप-थाल, कुछ पुष्प गुच्छ
भी खून से लथपथ धूल सने | 
कुछ लोग हैं खूनी प्यास लिए
घर में आतंक फैलाते हैं|
गैरों के बहकावे में आ
अपनों का रक्त बहाते हैं|
कुछ तन मन घायल रक्त सने
आंसू निर्दोष बहाते हैं|
अब कैसे चढ़े बसन्ती  रंग
अब कौन भला खेले होली |
यह सुन बसंत भी शर्माया,
बासंती चेहरा लाल हुआ |
नयनों से अश्रु-बिंदु छलके
आँखों में खून उतर आया |
हुंकार भरी और गरज उठा
यह रक्त बहाया है किसने |
मानवता के शुचि चहरे को,
कालिख से पुतवाया किसने |
यद्यपि अपनों से ही लड़ना
ये सबसे कठिन परीक्षा है |
सड जाए अंग अगर कोई,
उसका कटना हे अच्छा है |
ऐ देश के वीर जवान उठो
तुम कलम वीर विद्वान् उठो |
ऐ नौनिहाल तुम जाग उठो
नेता मज़दूर किसान उठो |
एसा बासंती उड़े रंग ,
मन में हो इक एसी उमंग |
मिलजुल कर देश की रक्षा हित,
देदें सब  तन मन अंग अंग ||

मंगलवार, 26 जनवरी 2016

कैसा तेरा प्यार था

(तेजाब हमले के पीड़िता की व्यथा)

कैसा तेरा प्यार था ?
कुंठित मन का वार था,
या बस तेरी जिद थी एक,
कैसा ये व्यवहार था ?

माना तेरा प्रेम निवेदन,
भाया नहीं जरा भी मुझको,
पर तू तो मुझे प्यार था करता,
समझा नहीं जरा भी मुझको ।

प्यार के बदले प्यार की जिद थी,
क्या ये कोई व्यापार था,
भड़क उठे यूँ आग की तरह,
कैसा तेरा प्यार था ?

मेरे निर्णय को जो समझते,
थोड़ा सा सम्मान तो करते,
मान मनोव्वल दम तक करते,
ऐसे न अपमान तो करते ।

ठान ली मुझको सजा ही दोगे,
जब तू मेरा गुनहगार था,
सजा भी ऐसी खौफनाक क्या,
कैसा तेरा प्यार था ?

बदन की मेरी चाह थी तुम्हे,
उसे ही तूने जला दिया,
आग जो उस तेजाब में ही था,
तूने मुझपर लगा दिया ।

क्या गलती थी मेरी कह दो,
प्रेम नहीं स्वीकार था,
जीते जी मुझे मौत दी तूने,
कैसा तेरा प्यार था ?

मौत से बदतर जीवन मेरा,
बस एक क्षण में हो गया,
मेरी दुनिया, मेरे सपने,
सब कुछ जैसे खो गया ।

देख के शीशा डर जाती,
क्या यही मेरा संसार था,
ग्लानि नहीं तुझे थोड़ा भी,
कैसा तेरा प्यार था ?

अब हाँ कह दूँ तुझको तो,
क्या तुम अब अपनाओगे,
या जो रूप दिया है तूने,
खुद देख उसे घबराओगे?

मुझे दुनिया से अलग कर दिया
जो खुशियों का भंडार था,
ये कौन सी भेंट दी तूने,
कैसा तेरा प्यार था ?

दोष मेरा नहीं कहीं जरा था,
फिर भी उपेक्षित मैं ही हूँ,
तुम तो खुल्ले घुम रहे हो,
समाज तिरस्कृत मैं ही हूँ ।

ताने भी मिलते रहते हैं,
न्याय नहीं, जो अधिकार था,
अब भी करते दोषारोपण तुम,
कैसा तेरा प्यार था ?

क्या करुँ अब इस जीवन का,
कोई मुझको जवाब तो दे,
या फिर सब पहले सा होगा,
कोई इतना सा ख्वाब तो दे ।

जी रही हूँ एक एक पल,
जो नहीं नियति का आधार था,
करती हूँ धिक्कार तेरा मैं,
कैसा तेरा प्यार था ?

-प्रदीप कुमार साहनी

गुरुवार, 14 जनवरी 2016

मेरे गीत अमर तुम करदो.... मेरे ..श्रृंगार व प्रेम गीतों की शीघ्र प्रकाश्य कृति ......"तुम तुम और तुम". के गीत--डा श्याम गुप्त ...

मेरे गीत अमर तुम करदो.... मेरे ..श्रृंगार व प्रेम गीतों की शीघ्र प्रकाश्य कृति ......"तुम तुम और तुम". के गीत--डा श्याम गुप्त ...

                                
     

Drshyam Gupta's photo.



                नूतन वर्ष में .मेरे ..श्रृंगार व प्रेम गीतों की शीघ्र प्रकाश्य कृति ......"तुम तुम और तुम". के गीतों को यहाँ पोस्ट किया जा रहा है -----
                                           --प्रस्तुत है गीत - ५...

..Drshyam Gupta's photo.


मेरे गीत अमर तुम करदो....

मेरे गीतों की तुम यदि बनो भूमिका,
काव्य मेरा अमर जग में होजायगा |
मेरे छंदों के भावों में बस कर रहो,
गीत मेरा अमर-प्रीति बन जायगा |



गीत गाकर जो माथे पे बिंदिया धरो ,
अक्षर-अक्षर कनक वर्ण होजायगा |
तुम रचो ओठ, गीतों को गाते हुए,
गीत जन-जन के तन-मन में बस जायगा |



रूप दर्पण में जब तुम संवारा करो,
गीत मेरे ही तुम गुनगुनाया करो |
गुनगुनाते हुए मांग अपनी भरो,
गीत का रंग सिंदूरी हो जायगा |



शब्दों -शब्दों में तुम ही समाया करो,
मैं रचूँ गीत, तुम गीत गाया करो |
गीत तुम अपने स्वर में सजाने लगो ,
गीत जीवन का संगीत बन जायगा ||



                           

शनिवार, 2 जनवरी 2016

नयी भोर ...२०१६ प्रथम भोर पर एक उद्बोधन गीत...डा श्याम गुप्त

२०१६ प्रथम भोर पर एक उद्बोधन गीत प्रस्तुत है -----

नयी भोर ...


नयी भोर की इक नयी हो कहानी
जगे फिर मेरे देश की नव जवानी |
ये उत्तर ये दक्षिण पूरव औ पश्चिम,
मिलकर लिखें इक नई ही कहानी | 


नयी भोर लाये नयी ज़िन्दगानी ||


युवा-शक्ति का बल, अनुभव का संबल,
मिलकर चलें इक नवल राह पर हम |
नए जोश के स्वर, नए सुर-तराने,
रचें गीत-सरगम, नई इक कहानी |

नयी भोर की नव-कथा इक सुहानी ||


पहले ये जानें, सोचें और मानें,
कि इस राष्ट्र की है जो संस्कृति सनातन |
वही विश्ववारा संस्कृति मनुज की,
सकल विश्व में फ़ैली जिसकी निशानी |...

सनातन कथा की लिखें नव कहानी ||


पुरा ज्ञान, विज्ञान का हो समन्वय,
हो इतिहास एवं पुराणों का अन्वय |
नए ज्ञान कौशल पर सोचें विचारें ,
न यूंही नकारें ऋषियों की वाणी |

नवल-स्वर नए सुर नयी प्रीति-वाणी||


सहजता सरलता सहिष्णुता संग,
प्रीति की रीति जग देखले इक सुहानी|
न मज़हब की दीवार का अर्थ कोइ,
पलें धर्म और नीति-राहें सुजानी |...

राहें सुजानी नई इक कहानी ||


विचारों के जग पर न अंकुश कहीं है,
सदा राष्ट्र का यह गौरव रही है |
जग देखकर नीति-नय का समां यह,
लगे लिखने खुद की नयी इक कहानी|

नया भोर जग की नई ही कहानी ||


बनें नर स्वयं नारी गरिमा के रक्षक,
न शोषण कुपोषण अनाचार कोई |
औ नारी बने राष्ट्र-संस्कृति की गरिमा,
दोनों लिखें मिलके जीवन कहानी |...

बने नीति की एक सुन्दर कहानी |
बने राष्ट्र गरिमा की दृड़ता निशानी ||

शनिवार, 5 दिसंबर 2015

लिबास-कहानी


लिबास-कहानी 
मंजू ने लम्बी साँस लेते हुए मन में सोचा -''आज सासू माँ की तेरहवीं भी निपट गयी .माँ ने तो केवल इक्कीस साल संभाल कर रखा मुझे पर सासू माँ ने अपने मरते दम तक मेरे सम्मान ,मेरी गरिमा और सबसे बढ़कर मेरी इस देह की पवित्रता की रक्षा की . ससुराल आते ही जब ससुर जी के पांव छूने को झुकी तब आशीर्वाद देते हुए सिर पर से ससुर जी का हाथ पीछे पीठ पर पहुँचते ही सासू माँ ने टोका था उन्हें -'' बिटिया ही समझो ...बहू नहीं हम बिटिया ही लाये हैं जी !''सासू माँ की कड़कती चेतावनी सुनते ही घूंघट में से ही ससुर जी का खिसियाया हुआ चेहरा दिख गया था मुझे . .उस दिन के बाद से जब भी ससुर जी के पांव छुए दूर से ही आशीर्वाद मिलता रहा मुझे .
पतिदेव के खानदानी बड़े भाई जब किसी काम से आकर कुछ दिन हमारे घर में रहे थे तब एक बेटे की माँ बन चुकी थी थी मैं ...पर उस पापी पुरुष की निगाहें मेरी पूरी देह पर ही सरकती रहती .एक दिन सासू माँ ने आखिर चाय का कप पकड़ाते समय मेरी मेरी उँगलियों को छूने का कुप्रयास करते उस पापी को देख ही लिया और आगे बढ़ चाय का कप उससे लेते हुए कहा था -''लल्ला अब चाय खुद के घर जाकर ही पीना ...मेरी बहू सीता है द्रौपदी नहीं जिसे भाई आपस में बाँट लें .'' सासू माँ की फटकार सुन वो पापी पुरुष बोरिया-बिस्तर बांधकर ऐसा भागा कि ससुर जी की तेरहवी तक में नहीं आया और न अब सासू माँ की . चचेरी ननद का ऑपरेशन हुआ तो तीमारदारी को उसके ससुराल जाकर रहना पड़ा कुछ दिन ...अच्छी तरह याद है वहाँ सासू माँ के निर्देश कान में गूंजते रहे -'' ...बचकर रहना बहू ..यूँ तेरा ननदोई संयम वाला है पर है तो मर्द ना ऊपर से उनके अब तक कोई बाल-बच्चा नहीं ...''
आखिरी दिनों में जब सासू माँ ने बिस्तर पकड़ लिया था तब एक दिन बोली थी हौले से -'' बहू जैसे मैंने सहेजा है तुझे तू भी अपनी बहू की छाया बनकर रक्षा करना ..जो मेरी सास मेरी फिकर रखती तो मेरा जेठ मुझे कलंक न लगा पाता .जब मैंने अपनी सास से इस ज्यादती के बारे में कहा था तब वे हाथ जोड़कर बोली थी मेरे आगे कि इज्जत रख ले घर की ..बहू ..चुप रह जा बहू ...तेरी गृहस्थी के साथ साथ जेठ की भी उजड़ जावेगी ..पी जा बहू जहर ..भाई को भाई का दुश्मन न बना ....और मैं पी गयी थी वो जहर ..आज उगला है तेरे सामने बहू !!'' ये कहकर चुप हो गयी थी वे और मैंने उनकी हथेली कसकर पकड़ ली थी मानों वचन दे रही थी उन्हें ''चिंता न करो सासू माँ आपके पोते की बहू मेरे संरक्षण में रहेगी .'' सासू माँ तो आज इस दुनिया में न रही पर सोचती हूँ कि शादी से पहले जो सहेलियां रिश्ता पक्का होने पर मुझे चिढ़ाया करती थी कि -'' जा सासू माँ की सेवा कर ..तेरे पिता जी पर ऐसा घर न ढूँढा गया जहाँ सास न हो '' उन्हें जाकर बताऊँ कि ''सासू माँ तो मेरी देह के लिबास जैसी थी जिसने मेरी देह को ढ़ककर मुझे शर्मिंदा होने से बचाये रखा न केवल दुनिया के सामने बल्कि मेरी खुद की नज़रों में भी .'

शिखा कौशिक 'नूतन'

मंगलवार, 24 नवंबर 2015

''दर्द दिल में है तेरे हम जानते हैं !''



दर्द दिल में है तेरे हम जानते हैं !
ज़ख्म गहरे हैं तेरे हम जानते हैं !
..........................................
ग़मों की आग में तपकर मासूम सा ये दिल ,
धधकता सीने में तेरे हम जानते हैं !
.............................................
छलक आते हैं आसूँ  आँखों में बेशरम ,
नहीं बस में हैं तेरे हम जानते हैं !
...........................................
तज़ुर्बा कह रहा हमसे वफ़ा का है सिला धोखा ,
नहीं कुछ हाथ में तेरे हम जानते हैं !
......................................
क्यों सदमा सा लगा तुझको हकीकत जानकर 'नूतन'
नहीं कोई साथ है तेरे हम जानते हैं !


शिखा कौशिक 'नूतन'

सभी ब्लॉगर मित्रों को नमस्कार
बहुत दिन बाद आप मित्रों के सम्मुख आने का मौका मिला , मित्रों नव प्रकाशित हिंदी मासिक पत्रिका "ह्यूमन टुडे " को सम्पादन करने की जिम्मेदारी मिली है. ऐसे में आपलोगों की याद आनी स्वाभाविक है. भले ही इतने दिनों तक गायब रहा लेकिन आपसे दूर नहीं , मैं चाहता हूँ की जो ब्लॉगर मित्र अपनी रचनाओ के माध्यम से मुझसे जुड़ना चाहते है , मै  उनका सहर्ष स्वागत करता हूँ।  सामाजिक सरोकारों से जुडी इस पत्रिका में आपकी रचनाओ का स्वागत है , जो मित्र मुझसे जुड़ना चाहते हैं वे अपनी रचनाएँ मुझे मेल करें। ।
humantodaypatrika@gmail.com
रचनाएँ राजनितिक , सामाजिक व् ज्ञानवर्धक हो। कविता , कहानी व विभिन्न विषयो पर लेख आमंत्रित।
harish singh ---- editor- Humantoday