तीन तलाक की समाप्ति---- मानव संस्कृति का एक
और एतिहासिक कदम ---
यहाँ हम मानवता की बात केवल भारतीय सन्दर्भ में नहीं अपितु वैश्विक सन्दर्भ
में कर रहे हैं | यह किसी धर्म देश मज़हब एवं केवल स्त्री अस्मिता का ही प्रश्न
नहीं है अपितु भारतीय अस्मिता एवं समस्त मानव जाति, मानवता का प्रश्न है |
आखिर दाम्पत्य क्या है, विवाह क्यों व उसका अर्थ क्या है ?? विशद रूप में दाम्पत्य-भाव का अर्थ है, दो विभिन्न भाव के तत्वों द्वारा अपनी अपनी
अपूर्णता सहित आपस में मिलकर पूर्णता व एकात्मकता प्राप्त करके विकास की ओर कदम
बढाना। यह सृष्टि का विकास-भाव है । प्रथम सृष्टि का आविर्भाव ही प्रथम दाम्पत्य-भाव होने पर हुआ ।
शक्ति-उपनिषद
का श्लोक है— “स वै नैव
रेमे तस्मादेकाकी न रमते स द्वितीयमैच्छत। सहैता वाना स। यथा स्त्रीन्पुन्मासो
संपरिस्वक्तौ स। इयमेवात्मानं द्वेधा पातपत्तनः पतिश्च पत्नी चा भवताम।“ ---अर्थात अकेला ब्रह्म रमण न कर सका, उसने अपने
संयुक्त भाव-रूप को विभाज़ित किया और दोनों पति-पत्नी भाव को प्राप्त हुए।
यही प्रथम दम्पत्ति
स्वयम्भू आदि-शिव व अनादि माया या शक्ति रूप है जिनसे समस्त सृष्टि का आविर्भाव हुआ। मानवी भाव में प्रथम दम्पत्ति मनु व शतरूपा
हुए जो ब्रह्मा द्वारा स्वयम को स्त्री-पुरुष रूप में विभाज़ित करके उत्पन्न किये
गये, जिनसे समस्त सृष्टि की उत्पत्ति हुई। सृष्टि का प्रत्येक कण धनात्मक या ऋणात्मक ऊर्ज़ा वाला है, दोनों
मिलकर पूर्ण होने पर ही, तत्व एवम यौगिक व पदार्थ की उत्पत्ति तथा विकास होता है। यजुर्वेद १०/४५ में कथन है—
“एतावानेन पुरुषो यजात्मा प्रतीति।
विप्राः प्राहुस्तथा चैतद्यो भर्ता सांस्म्रतांगना ॥“
विप्राः प्राहुस्तथा चैतद्यो भर्ता सांस्म्रतांगना ॥“
अर्थात पुरुष भी स्वयं
अकेला पुरुष नहीं बनता अपितु पत्नी व संतान मिलकर ही पूर्ण
पुरुष बनता है। स्त्री के लिए भी यही सत्य है | अतः दाम्पत्य-भाव
ही पुरुष को भी संपूर्ण करता है, स्त्री को भी ।
इस प्रकार सफ़ल
दाम्पत्य का प्रभाव व उपलब्धियां ही हैं जो मानव को जीवन के लक्ष्य तक ले जाती
है।
“सूर्य देवीमुषसं रोचमाना मर्यो
नयोषार्मध्येति पश्चात।
यत्रा नरो देवयंतो युगानि वितन्वते प्रति
भद्राय भद्रय॥
प्रथम दीप्तिमान ऐवम तेजसविता युक्त
उषादेवी के पीछे सूर्य उसी प्रकार अनुगमन करते हैं जैसे युगों से मनुष्य व देव
नारी का अनुगमन करते हैं । समाज़ व परिवार में पत्नी को सम्मान दाम्पत्य सफ़लता की
कुन्जी है-
ऋग्वेद के अन्तिम मन्त्र
(१०-१९१-२/४) में क्या सुन्दर कथन है---
"" समानी व अकूतिःसमाना ह्रदयानि वः ।
समामस्तु वो मनो यथा वः
सुसहामतिः ॥"""---
------तुम्हारे हृदय समान हों, मन समान हों
प्रत्येक कार्य में आपसी सहमति हो |
पुरुष की सहयोगी शक्ति-भगिनी,
मित्र, पुत्री, सखी, पत्नी, माता के रूप में सत्य ही स्नेह, संवेदनाओं एवं पवित्र भावनाओं को सींचने में युक्त नारी, पुरुष व संतति के निर्माण व विकास की एवं समाज के
सृजन, अभिवर्धन व श्रेष्ठ व्यक्तित्व
निर्माण की धुरी है।
मानव समाज के विकास के एक स्थल पर, जब संतान की आवश्यकता के साथ उसकी
सुरक्षा की आवश्यकता हुई एवं यौन मर्यादा न होने से आचरणों के बुरे व विपरीत व्यक्तिगत
व सामाजिक परिणाम हुए तो श्वेतकेतु ने सर्वप्रथम विवाह संस्था रूपी मर्यादा स्थापित
की ताकि प्राकृतिक काम संवेग की व्यक्तिगत संतुष्टि के साथ साथ स्त्री-पुरुष के
आपसी सौहार्दिक सम्बन्ध एवं सामाजिक समन्वयता भी बने रहे |
विवाह संस्था का सतत् विकास हुआ । श्वेतकेतु ऋग्वैदिककाल की विवाह संस्था को मजबूत करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता थे। श्वेतकेतु के पिता उद्दालक प्रख्यात दर्शनशास्त्री ऋषि थे। श्वेतकेतु ने नियम बनाया कि जो स्त्री पति को छोड़ दूसरे से मिलेगी उसे भ्रूणहत्या का पाप
लगेगा
और
जो
पुरुष
अपनी
स्त्री
को
छोड़
दूसरी
से
सम्पर्क करेगा उस पर भी वैसा ही कठोर पाप होगा। भारत में यही परम्परा है।
सभी जानते हैं कि विवाह दो पृथक-पृथक
पृष्ठभूमि से आये हुए व्यक्तित्वों का मिलन होता है, एक गठबंधन है, अपनी अपनी
जैविक एवं सामाजिक आवश्यकता पूर्ति हित एक समझौता
...प्रेम विवाह हो या परिवार द्वारा नियत विवाह | समझौते में अपने अपने
सेल्फ को अपने दोनों के सेल्फ में समन्वित, विलय करना होता है, अपना एकल सेल्फ कुछ
नहीं होता, उसे भुलाकर समन्वित सेल्फ को
उभारना होता है | अर्थात कोई किसी की सत्ता से छुटकारा नहीं पा सकता समन्वय
करना ही एक मात्र रास्ता है |
यद्यपि इस समन्वय के भी दुष्परिणाम होते रहे
हैं जो नारी के बंधन, नारी अत्याचार व उत्प्रीणन में बदलते रहे हैं | परन्तु समय
समय पर नारी पर कठोर बंधनों के विरोध से स्वर एवं सुधार के कृतित्व होते रहे हैं |
द्वापर में श्री कृष्ण-राधा के कार्यों के कारण गोपिकाए ( ब्रज-बनिताएं) पुरुषों
के अन्याय, निरर्थक अंकुश तोड़ कर बंधनों से बाहर आने
लगीं, कठोर कर्म कांडी
ब्राह्मणों की स्त्रियाँ भी पतियों के अनावश्यक रोक-टोक को तोड़कर
श्री कृष्ण के दर्शन को बाहर जाती हैं। यह स्त्री स्वतन्त्रता, सम्मान, अधिकारों की पुनर्व्याख्या थी। वैदिक काल
के पश्चात जो सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक शून्यता समाज में आई, उसी की पुनर्स्थापना करना कृष्ण -राधा का उद्देश्य था |
विवाह विच्छेद या तलाक ---- नर-नारी
आचार-द्वंद्व तो सदा से आदिम युग से ही चला आया है परन्तु इसी चाबी से ही तो मानव
आचरण व व्यवहार का ताला खुलता है| यदि
कुछ युगलों में समन्वय नहीं होपाता तो हज़ारों युगल सदैव साथ-साथ जीते भी तो
हैं..हंसी-खुशी ...जीवन भर साथ निभाकर | निश्चय ही यह समस्या न पुरुष
सत्ता की बात है न स्त्री-सत्ता की न धर्म की न देश समाजं की
अपितु मानव आचरण की बात है | यदि यह समन्वय नहीं हो सकता तो फिर दोनों
का अलग हो जाना ही उचित है |
विवाह मुख्य रूप से संतानप्राप्ति एवं दांपत्य संबंध के लिए किया जाता है, किंतु यदि किसी विवाह में
ये प्राप्त न हों तो दांपत्य जीवन को नारकीय या विफल बनाने की अपेक्षा विवाह
विच्छेद की अनुमति दी जानी चाहिए।
विवाह विच्छेद के सम्बन्ध में मानव समाज के विभिन्न भागों में बड़ा वैविध्य
है। जिन समाजों में विवाह को धार्मिक संस्कार माना जाता है, उनमें प्राय: विवाह अविच्छेद्य संबंध
माना जाता है यथा हिंदू एवं रोमन कैथोलिक ईसाई समाज | यद्यपि विवाह विच्छेद
या तलाक के नियमों के संबंध में अत्यधिक भिन्नता होने पर भी कुछ मौलिक सिद्धांतों
में समानता है। हिंदू विवाह अधिनियम 1955 में
भी इसको इसी रूप में बनाए रखने की चेष्टा की गई है। परन्तु विशेष परिस्थितियों के उत्पन्न
होने पर, इस अधिनियम के अंतर्गत वैवाहिक संबंध विघटित किया
जा सकता है। इस व्यवस्था का दुरुपयोग न हो, इस दृष्टि से तलाक का अधिकार अनेक प्रतिबंधों के साथ विशेष अवस्था में ही
दिया जाता है।
कुछ समाजों में (प्रायः मुस्लिम इस्लामिक ) पुरुष को विवाह विच्छेद संबंधी
असीमित अधिकार देदिए गए हैं, तीन तलाक उसी का अवांछित रूप है,जिसे अधिकाँश
इस्लामिक देश भी प्रतिबंधित कर चुके हैं |
भारत जैसे बड़े लोकतंत्र व महान राष्ट्र ने नारियों के हितार्थ जो आज किया
है | इसके दूरगामी प्रभाव होंगे | निश्चय ही यह कदम केवल विश्व के सबसे बड़े
लोकतंत्र भारत में ही मानव मानव, जाति-धर्म-पंथ की समानता समन्वय के लिए नहीं
अपितु समस्त विश्व में मानवता के हित समन्वय का एक महत्वपूर्ण कदम सिद्ध होगा |
जिस प्रकार कभी सृष्टि के आदि में महादेव शिव की पहल पर – शिव-ब्रह्मा-इंद्र –विष्णु
ने वृहद् भारत की संपन्न उत्तर दक्षिण भूमि की संपन्न संस्कृतियों के समन्वय से
सार्वकालीन महान वैदिक संस्कृति की नीव रखी थी और वे देवाधिदेव कहलाये | जिस
प्रकार द्वापर में श्रीकृष्ण-राधा ने स्त्रियों को अपने अधिकार दिलाये एवं
वर्त्तमान युग में बहुपत्नी प्रथा की समाप्ति, विधवा विवाह की पुनः स्थापना, विवाह
विच्छेद संबंधी नियम लाये गए |
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, १०० में से ९९ बेईमान ... फ़िर भी मेरा भारत महान “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (08-01-2018) को "बाहर हवा है खिड़कियों को पता रहता है" (चर्चा अंक-2842) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी