---------आधुनिकता और नारी उत्प्रीणन के नए आयाम ------
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पुरातन समय में नारी की, भारतीय समाज की तथा कथित रूढिगत स्थिति में नारी के उत्प्रीणन पर न जाने कितने ठीकरे फोड़े गए एवं टोकरे भर-भर कर ग्रन्थ, आलेख, कहानियां, कथन, वक्तव्य लिखे-कहे जाचुके हैं एवं कहे-लिखे जा रहे हैं, परन्तु आधुनीकरण के युग में व नारी-उन्नयन के दौर में, प्रगतिशीलता की भाग-दौड़ में स्त्री पर कितना अत्याचार व उत्प्रीणन हो रहा है उसकी ओर ध्यान ही नहीं दिया जा रहा |
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मूलतः घर से बाहर जाकर सेवा करना, चाकरी करना, आज के दौर में नारी-प्रगति का पर्याय माना जा रहा है | पति-पत्नी दोनों का ही सर्विस करना प्रगतिशील दौर का फैशन है एवं एक आवश्यकता बन गयी है | परन्तु यहीं से नारी पर अत्यधिक अनावश्यक भार एवं सामाजिक-उत्प्रीणन की राह प्रशस्त होती है और साथ ही साथ शारीरिक शोषण की भी |
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पारंपरिक गृहणी, नारी पर सिर्फ गृह का दायित्व होता था, परिवार पति व बच्चों का दायित्व दोनों मिलकर उठाते थे| पति-पुरुष सदैव ही आंशिक रूप में सहायक होते थे | धनोपार्जन एवं बाहर के समस्त कार्य पुरुष का दायित्व होता था |
---------परन्तु आज के दौर में नारी पर तीनों भार डाल दिए जा रहे हैं | सेवा द्वारा धनोपार्जन के उपरान्त भी अपने गृह-कार्य पारिवारिक दायित्व, बच्चों के लालन पालन से नारी किसी भी भांति विरत नहीं हो पारही, न हो सकती है|
---------पति-पुरुष सहायक होते हैं किन्तु कहाँ तक? निश्चय ही नारी को उससे पूर्ण मुक्ति नहीं मिल सकती | सभी जानते हैं कई-कई सेवक-सेविकाएं होने पर भी संतान पालन व गृह कार्यों के दायित्व से नारी पूर्णतः विरत नहीं होसकती | यह नारी के मूल स्वभाव के विपरीत है|
--------पति-पुरुष, सेवक-सेविकाएँ –मां नहीं बन सकते, पत्नी नहीं बन सकते, गृह-स्वामिनी नहीं बन सकते | स्त्री की देख-रेख के बिना गृह-कर्म व संतान लालन-पालन सुचारू रूप से नहीं चल सकता, पति –पुरुष चाहे जितना भी सहायता करें या सहायता का दिखावा करें परन्तु गृह-कार्य को ठीक प्रकार से नहीं कर पाते | यह उनके मूल पुरुष-स्वभाव के विपरीत है, और रहेगा |
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आधुनिक दौर में स्त्री के घर से बाहर जानेके कारण एवं पति के समकक्ष शिक्षित होने के कारण बाहर व परिवार के कार्य भी जो पुरुषों के होते थे प्रायः पत्नी-स्त्री पर थोपे जारहे हैं |
-------पति-पत्नी दोनों के ही अपने अपने व्यवसायिक कार्य में व्यस्त रहने पर अतिरिक्त कार्य प्रायः स्त्री को ही करने होते हैं –घर लौटने पर या घर लौटते समय | बच्चे –पति सहायता करते हैं एवं आधुनिक दिखावे वश शिकायत भी नहीं करते परन्तु चिडचिड़ाहट, झुन्झुलाहट तो रहती ही है|
--------७० हज़ार पाने वाली पत्नी १०-१२ हज़ार सेवक-सेविकाओं- आयाओं पर खर्च करके भौतिक सुविधाओं हेतु धन कमाती-बचाती है...परन्तु किस कीमत पर | वे भूल जाते हैं कि जो बच्चे / घर/ परिवार, ७० हज़ार की सक्षमता व ज्ञान-भाव वाली स्त्री / मां/ पत्नी से पलने चाहिए वे १०-१२ हज़ार की क्षमता–ज्ञान वाली स्त्री द्वारा पाले जा रहे हैं| अंततः हानि संतति व आने वाली पीढ़ियों की / समाज /देश / संस्कृति की ही होती है |
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इस प्रकरण में युवा-युगल बच्चे पैदा करने से भी काफी समय तक गुरेज़ करते हैं एवं अधिक उम्र पर गर्भधारण की अपनी अन्य समस्याओं से दो-चार होना पड़ता है |
------विवाह के समय पति-पत्नी जो बचन लेते हैं उसमें – पति कहता है कि तुम्हारा पालन-पोषण करना मेरा दायित्व है | पत्नी बचन भरती है कि घर-परिवार के लालन-पालन व देख-रेख की व्यवस्था वह करेगी | आज के दौर में ये बचन भी भंग हो रहे हैं |
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जहां तथाकथित आज के युग की आदर्श स्थिति है अर्थात सारे कार्य, गृहकार्य, परिवार के कार्य, रसोई, बच्चे, मार्केटिंग आदि पति-पत्नी बांटकर करते हैं, तो उस स्थिति की कीमत किसी से छुपी हुई नहीं है |
-------दोनों दिन भर दफ्तर के कार्य के पश्चात थके-हारे गृहकार्य आदि निपटाते हैं और सो जाते हैं| प्रातः से पुनः वही चक्र.. भागम-भाग | इसमें न तो दोनों को आपस में बैठकर खाना, पीना, क्रीडा, बच्चों के साथ एवं आपसी व पारिवारिक विचार-विमर्श का अवसर मिलता है न कला, साहित्य, मनोरंजन राष्ट्र-भक्ति आदि उदात्त भावों पर सोचने व बच्चों को शिक्षित करने का, जो नारी का मूल कृतित्व है| जिसके अभाव में वे तनाव के शिकार होकर चिडचिडे असंवेदनशील हो रहे हैं ( इसीलिये दिखावटी संवेदनशीलता का प्रभाव काफी बढ़ा है आजकल ), जो नारी का मानसिक उत्प्रीणन ही है |
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पुरातन समय में नारी की, भारतीय समाज की तथा कथित रूढिगत स्थिति में नारी के उत्प्रीणन पर न जाने कितने ठीकरे फोड़े गए एवं टोकरे भर-भर कर ग्रन्थ, आलेख, कहानियां, कथन, वक्तव्य लिखे-कहे जाचुके हैं एवं कहे-लिखे जा रहे हैं, परन्तु आधुनीकरण के युग में व नारी-उन्नयन के दौर में, प्रगतिशीलता की भाग-दौड़ में स्त्री पर कितना अत्याचार व उत्प्रीणन हो रहा है उसकी ओर ध्यान ही नहीं दिया जा रहा |
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मूलतः घर से बाहर जाकर सेवा करना, चाकरी करना, आज के दौर में नारी-प्रगति का पर्याय माना जा रहा है | पति-पत्नी दोनों का ही सर्विस करना प्रगतिशील दौर का फैशन है एवं एक आवश्यकता बन गयी है | परन्तु यहीं से नारी पर अत्यधिक अनावश्यक भार एवं सामाजिक-उत्प्रीणन की राह प्रशस्त होती है और साथ ही साथ शारीरिक शोषण की भी |
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पारंपरिक गृहणी, नारी पर सिर्फ गृह का दायित्व होता था, परिवार पति व बच्चों का दायित्व दोनों मिलकर उठाते थे| पति-पुरुष सदैव ही आंशिक रूप में सहायक होते थे | धनोपार्जन एवं बाहर के समस्त कार्य पुरुष का दायित्व होता था |
---------परन्तु आज के दौर में नारी पर तीनों भार डाल दिए जा रहे हैं | सेवा द्वारा धनोपार्जन के उपरान्त भी अपने गृह-कार्य पारिवारिक दायित्व, बच्चों के लालन पालन से नारी किसी भी भांति विरत नहीं हो पारही, न हो सकती है|
---------पति-पुरुष सहायक होते हैं किन्तु कहाँ तक? निश्चय ही नारी को उससे पूर्ण मुक्ति नहीं मिल सकती | सभी जानते हैं कई-कई सेवक-सेविकाएं होने पर भी संतान पालन व गृह कार्यों के दायित्व से नारी पूर्णतः विरत नहीं होसकती | यह नारी के मूल स्वभाव के विपरीत है|
--------पति-पुरुष, सेवक-सेविकाएँ –मां नहीं बन सकते, पत्नी नहीं बन सकते, गृह-स्वामिनी नहीं बन सकते | स्त्री की देख-रेख के बिना गृह-कर्म व संतान लालन-पालन सुचारू रूप से नहीं चल सकता, पति –पुरुष चाहे जितना भी सहायता करें या सहायता का दिखावा करें परन्तु गृह-कार्य को ठीक प्रकार से नहीं कर पाते | यह उनके मूल पुरुष-स्वभाव के विपरीत है, और रहेगा |
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आधुनिक दौर में स्त्री के घर से बाहर जानेके कारण एवं पति के समकक्ष शिक्षित होने के कारण बाहर व परिवार के कार्य भी जो पुरुषों के होते थे प्रायः पत्नी-स्त्री पर थोपे जारहे हैं |
-------पति-पत्नी दोनों के ही अपने अपने व्यवसायिक कार्य में व्यस्त रहने पर अतिरिक्त कार्य प्रायः स्त्री को ही करने होते हैं –घर लौटने पर या घर लौटते समय | बच्चे –पति सहायता करते हैं एवं आधुनिक दिखावे वश शिकायत भी नहीं करते परन्तु चिडचिड़ाहट, झुन्झुलाहट तो रहती ही है|
--------७० हज़ार पाने वाली पत्नी १०-१२ हज़ार सेवक-सेविकाओं- आयाओं पर खर्च करके भौतिक सुविधाओं हेतु धन कमाती-बचाती है...परन्तु किस कीमत पर | वे भूल जाते हैं कि जो बच्चे / घर/ परिवार, ७० हज़ार की सक्षमता व ज्ञान-भाव वाली स्त्री / मां/ पत्नी से पलने चाहिए वे १०-१२ हज़ार की क्षमता–ज्ञान वाली स्त्री द्वारा पाले जा रहे हैं| अंततः हानि संतति व आने वाली पीढ़ियों की / समाज /देश / संस्कृति की ही होती है |
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इस प्रकरण में युवा-युगल बच्चे पैदा करने से भी काफी समय तक गुरेज़ करते हैं एवं अधिक उम्र पर गर्भधारण की अपनी अन्य समस्याओं से दो-चार होना पड़ता है |
------विवाह के समय पति-पत्नी जो बचन लेते हैं उसमें – पति कहता है कि तुम्हारा पालन-पोषण करना मेरा दायित्व है | पत्नी बचन भरती है कि घर-परिवार के लालन-पालन व देख-रेख की व्यवस्था वह करेगी | आज के दौर में ये बचन भी भंग हो रहे हैं |
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जहां तथाकथित आज के युग की आदर्श स्थिति है अर्थात सारे कार्य, गृहकार्य, परिवार के कार्य, रसोई, बच्चे, मार्केटिंग आदि पति-पत्नी बांटकर करते हैं, तो उस स्थिति की कीमत किसी से छुपी हुई नहीं है |
-------दोनों दिन भर दफ्तर के कार्य के पश्चात थके-हारे गृहकार्य आदि निपटाते हैं और सो जाते हैं| प्रातः से पुनः वही चक्र.. भागम-भाग | इसमें न तो दोनों को आपस में बैठकर खाना, पीना, क्रीडा, बच्चों के साथ एवं आपसी व पारिवारिक विचार-विमर्श का अवसर मिलता है न कला, साहित्य, मनोरंजन राष्ट्र-भक्ति आदि उदात्त भावों पर सोचने व बच्चों को शिक्षित करने का, जो नारी का मूल कृतित्व है| जिसके अभाव में वे तनाव के शिकार होकर चिडचिडे असंवेदनशील हो रहे हैं ( इसीलिये दिखावटी संवेदनशीलता का प्रभाव काफी बढ़ा है आजकल ), जो नारी का मानसिक उत्प्रीणन ही है |
आज नारी भी अपने व्यक्तित्व को नया आयाम प्रदान कर रही है. दिक्कत वहीं आती है जहां कामकाजी पत्नी को पति से अपेक्षित सहयोग नहीं मिल पाता.
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