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शनिवार, 29 अप्रैल 2017

समीक्षा - '' ये तो मोहब्बत नहीं ''-समीक्षक शालिनी कौशिक

समीक्षा -  '' ये तो मोहब्बत नहीं ''-समीक्षक शालिनी कौशिक

Ye To Muhabbat Nahiउत्कर्ष प्रकाशन ,मेरठ द्वारा प्रकाशित डॉ.शिखा कौशिक 'नूतन' का काव्य-संग्रह 'ये तो मोहब्बत नहीं ' स्त्री-जीवन के यथार्थ चित्र को प्रस्तुत करने वाला संग्रह है .आज भी हमारा समाज पितृ-सत्ता की ज़ंजीरों में ऐसा जकड़ा हुआ है कि वो स्त्री को पुरुष के समान सम्मान देने में हिचकिचाता है .त्रेता-युग की 'सीता' हो अथवा कलियुग की 'दामिनी' सभी को पुरुष -अहम् के हाथी के पैरों द्वारा कुचला जाता है .
             कवयित्री डॉ. शिखा कौशिक काव्य-संग्रह में संग्रहीत अपनी कविता 'विद्रोही सीता की जय'' के माध्यम  इस तथ्य को उद्घाटित करने का प्रयास करती हैं कि सीता का धरती में समां जाना उनका पितृ-सत्ता के विरूद्ध विद्रोह ही था ; जो अग्नि-परीक्षा के पश्चात् भी पुनः शुचिता-प्रमाणम के लिए सीता को विवश कर रही थी -

'जो अग्नि-परीक्षा पहले दी उसका भी मुझको खेद है ,
ये कुटिल आयोजन बढ़वाते नर-नारी में भेद हैं ,
नारी-विरूद्ध अन्याय पर विद्रोह की भाषा बोलूंगी ,
नारी-जाति  सम्मान हित अपवाद स्वयं मैं सह लूंगी !''

          कवयित्री इस तथ्य पर भी विशेष प्रकाश डालती हैं हैं कि लोकनायक-कवियों ने अपने पुरुष-नायकों  के चरित्रों को उज्जवल बनाये रखने के लिए उनके द्वारा स्त्री-पत्रों के साथ किये गए अन्याय को छिपाने का कुत्सित प्रयास किया है .''मानस के रचनाकार में भी पुरुष अहम् भारी '' कविता में वे लिखती हैं -
'सात काण्ड में लिखी तुलसी ने मानस ,
आठवां लिखने का क्यों कर न सके साहस ?
युगदृष्टा- लोकनायक  ग़र  ऐसे    मौन ,
शोषित का साथ देने को हो अग्रसर कौन ?''

        भले ही आधुनिक नारी-विमर्श के चिंतक एंगेल्स ने 1884 ईस्वी में आई अपनी पुस्तक ' परिवार,निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति ' में ये स्पष्ट घोषणा कर दी हो कि 'ये बिलकुल बेतुकी धारणा है जो हमें 18 वीं सदी के जागरण काल से विरासत में मिली है कि समाज के आदिकाल में नारी पुरुष की दासी थी .'' किन्तु 21वीं शताब्दी तक के पुरुष इस कुंठित सोच से आज़ाद नहीं हो पा रहे हैं. कवयित्री पुरुष की इसी सोच को अपनी कविता ''इसी हद में तुम्हें रहना होगा '' में प्रकट करते हुए लिखती हैं -
''सख्त लहज़े में कहा शौहर ने बीवी से
देखो लियाकत से तुम्हें रहना होगा,
***मिला ऊँचा रुतबा मर्द को औरत से ,
बात दीनी ही नहीं दुनियावी भी ,
मुझको मालिक खुद को समझना बांदी
झुककर मेरे आगे तुम्हें रहना होगा !''

     न केवल औरत को दासी माना  जाता है बल्कि उच्च-शिक्षित पुरुष तक स्त्री को एक 'आइटम' की संज्ञा देते हुए लज्जित होने के स्थान पर प्रफुल्लित नज़र आते हैं .कवयित्री पुरुष की इसी सोच को लक्ष्य कर अपनी कविता '' अपने हिस्से की हमें भी अब इमरती चाहिए '' में लिखती हैं -
'है पुरुष को ये अहम् नीच स्त्री उच्च हम ,
साथ-साथ फिर भला कैसे बढ़ा सकती कदम ?
'आइटम कहते हुए लज्जा तो आनी चाहिए ,
अपने हिस्से की हमे भी अब इमरती चाहिए !''

       फ्रांसीसी बुद्धिजीवियों के पुरुष-प्रधान जगत में पुरुषों की ही भांति जीवन व्यतीत करने वाली , स्त्री-विमर्श की बाइबिल कहे जाने वाली पुस्तक 'द सेकेण्ड सैक्स '' की रचनाकार सीमोन द  बोउवार ने इस पुस्तक में ये घोषणा की थी कि '' स्त्री पैदा नहीं होती बल्कि बनायीं जाती है .'' इसी तथ्य को कवयित्री ने संग्रह  की कविता   ''सच कहूँ ...अच्छा नहीं लगता '' में परखते हुए लिखा है -
  'जब कोई टोकता है
  इतनी उछल-कूद
 मत मचाया कर
 तू लड़की है
ज़रा तो तमीज सीख ले ,
 क्यों लड़कों की तरह
 घूमती-फिरती है ,
 सच कहूँ
  मुझे अच्छा नहीं लगता !!''

    काव्य -संग्रह के शीर्षक रूप में विद्यमान गीति-तत्व से युक्त कविता ''ये तो मोहब्बत नहीं '' भी पुरुष की उस वर्चस्ववादी सोच को उजागर करती है जो मोहब्बत जैसी पवित्र-भावना को भी मात्र स्त्री-देह के उपभोग तक सीमित कर देती है-
'हुए हो जो मुझपे फ़िदा ,
भायी  है मेरी अदा ,
रही हुस्न पर ही नज़र ,
दिल की सुनी ना सदा ,
तुम्हारी नज़र घूरती
मेरे ज़िस्म पर आ टिकी ,
ये तो मोहब्बत नहीं !
ये तो मोहब्बत नहीं !''

  पुरुष द्वारा  स्त्री के विरूद्ध किये जाने वाले सबसे जघन्य अपराध 'बलात्कार' को लक्ष्य कर कवयित्री ने अपनी कविता ' वो लड़की' के माध्यम से स्त्री के अंतहीन उस दर्द को बयान किया है ,जो बलात्कृत स्त्री को आजीवन कचोटता रहता है भीतर ही भीतर -
''छुटकारा नहीं मिलता उसे
मृत्यु-पर्यन्त इस मानसिक दुराचार से ,
वो लड़की
रौंद दी जाती है अस्मत जिसकी !''

      काव्य-संग्रह की यूँ तो सभी कवितायेँ स्त्री-जीवन के विभिन्न पक्षों को सहानुभूति के साथ प्रस्तुत करने में सफल रही हैं किन्तु ''करवाचौथ जैसे त्यौहार क्यों मनाये जाते है , तोल-तराजू इस दुनिया में औरत बेचीं जाती है ,वो लड़की ..ठंडे ज़ज़्बात तपा देती है '' आदि मस्तिष्क को झनझना देने वाली , पुरुष-वर्ग को आईना दिखाने वाली कवितायेँ हैं .
 
         आकर्षक कवर-पृष्ठ से युक्त 80  पृष्ठों वाले डॉ शिखा कौशिक नूतन की  इस काव्य-संग्रह में सशक्त भाषा -शैली वाली 52  कवितायेँ संग्रहीत है . मूल्य है मात्र -100  रू . स्त्री-विमर्श की दिशा में ये काव्य-संग्रह  'ये तो मोहब्बत नहीं' एक मील का पत्थर साबित होगा ऐसा मेरा दृढ विश्वास है .लेखिका डॉ शिखा कौशिक नूतन व् उत्कर्ष  -प्रकाशन,मेरठ  को ऐसे सार्थक प्रयास हेतु हार्दिक बधाई व् शुभकामनायें  .





   


      

शुक्रवार, 28 अप्रैल 2017

आधुनिकता और नारी उत्प्रीणन के नए आयाम --डा श्याम गुप्त

---------आधुनिकता और नारी उत्प्रीणन के नए आयाम ------
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                    पुरातन समय में नारी की, भारतीय समाज की तथा कथित रूढिगत स्थिति में नारी के उत्प्रीणन पर न जाने कितने ठीकरे फोड़े गए एवं टोकरे भर-भर कर ग्रन्थ, आलेख, कहानियां, कथन, वक्तव्य लिखे-कहे जाचुके हैं एवं कहे-लिखे जा रहे हैं, परन्तु आधुनीकरण के युग में व नारी-उन्नयन के दौर में, प्रगतिशीलता की भाग-दौड़ में स्त्री पर कितना अत्याचार व उत्प्रीणन हो रहा है उसकी ओर ध्यान ही नहीं दिया जा रहा |
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                     मूलतः घर से बाहर जाकर सेवा करना, चाकरी करना, आज के दौर में नारी-प्रगति का पर्याय माना जा रहा है | पति-पत्नी दोनों का ही सर्विस करना प्रगतिशील दौर का फैशन है एवं एक आवश्यकता बन गयी है | परन्तु यहीं से नारी पर अत्यधिक अनावश्यक भार एवं सामाजिक-उत्प्रीणन की राह प्रशस्त होती है और साथ ही साथ शारीरिक शोषण की भी |
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                     पारंपरिक गृहणी, नारी पर सिर्फ गृह का दायित्व होता था, परिवार पति व बच्चों का दायित्व दोनों मिलकर उठाते थे| पति-पुरुष सदैव ही आंशिक रूप में सहायक होते थे | धनोपार्जन एवं बाहर के समस्त कार्य पुरुष का दायित्व होता था |
---------परन्तु आज के दौर में नारी पर तीनों भार डाल दिए जा रहे हैं | सेवा द्वारा धनोपार्जन के उपरान्त भी अपने गृह-कार्य पारिवारिक दायित्व, बच्चों के लालन पालन से नारी किसी भी भांति विरत नहीं हो पारही, न हो सकती है|
---------पति-पुरुष सहायक होते हैं किन्तु कहाँ तक? निश्चय ही नारी को उससे पूर्ण मुक्ति नहीं मिल सकती | सभी जानते हैं कई-कई सेवक-सेविकाएं होने पर भी संतान पालन व गृह कार्यों के दायित्व से नारी पूर्णतः विरत नहीं होसकती | यह नारी के मूल स्वभाव के विपरीत है|
--------पति-पुरुष, सेवक-सेविकाएँ –मां नहीं बन सकते, पत्नी नहीं बन सकते, गृह-स्वामिनी नहीं बन सकते | स्त्री की देख-रेख के बिना गृह-कर्म व संतान लालन-पालन सुचारू रूप से नहीं चल सकता, पति –पुरुष चाहे जितना भी सहायता करें या सहायता का दिखावा करें परन्तु गृह-कार्य को ठीक प्रकार से नहीं कर पाते | यह उनके मूल पुरुष-स्वभाव के विपरीत है, और रहेगा |
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आधुनिक दौर में स्त्री के घर से बाहर जानेके कारण एवं पति के समकक्ष शिक्षित होने के कारण बाहर व परिवार के कार्य भी जो पुरुषों के होते थे प्रायः पत्नी-स्त्री पर थोपे जारहे हैं |
-------पति-पत्नी दोनों के ही अपने अपने व्यवसायिक कार्य में व्यस्त रहने पर अतिरिक्त कार्य प्रायः स्त्री को ही करने होते हैं –घर लौटने पर या घर लौटते समय | बच्चे –पति सहायता करते हैं एवं आधुनिक दिखावे वश शिकायत भी नहीं करते परन्तु चिडचिड़ाहट, झुन्झुलाहट तो रहती ही है|
--------७० हज़ार पाने वाली पत्नी १०-१२ हज़ार सेवक-सेविकाओं- आयाओं पर खर्च करके भौतिक सुविधाओं हेतु धन कमाती-बचाती है...परन्तु किस कीमत पर | वे भूल जाते हैं कि जो बच्चे / घर/ परिवार, ७० हज़ार की सक्षमता व ज्ञान-भाव वाली स्त्री / मां/ पत्नी से पलने चाहिए वे १०-१२ हज़ार की क्षमता–ज्ञान वाली स्त्री द्वारा पाले जा रहे हैं| अंततः हानि संतति व आने वाली पीढ़ियों की / समाज /देश / संस्कृति की ही होती है |
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इस प्रकरण में युवा-युगल बच्चे पैदा करने से भी काफी समय तक गुरेज़ करते हैं एवं अधिक उम्र पर गर्भधारण की अपनी अन्य समस्याओं से दो-चार होना पड़ता है |
------विवाह के समय पति-पत्नी जो बचन लेते हैं उसमें – पति कहता है कि तुम्हारा पालन-पोषण करना मेरा दायित्व है | पत्नी बचन भरती है कि घर-परिवार के लालन-पालन व देख-रेख की व्यवस्था वह करेगी | आज के दौर में ये बचन भी भंग हो रहे हैं |
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जहां तथाकथित आज के युग की आदर्श स्थिति है अर्थात सारे कार्य, गृहकार्य, परिवार के कार्य, रसोई, बच्चे, मार्केटिंग आदि पति-पत्नी बांटकर करते हैं, तो उस स्थिति की कीमत किसी से छुपी हुई नहीं है |
-------दोनों दिन भर दफ्तर के कार्य के पश्चात थके-हारे गृहकार्य आदि निपटाते हैं और सो जाते हैं| प्रातः से पुनः वही चक्र.. भागम-भाग | इसमें न तो दोनों को आपस में बैठकर खाना, पीना, क्रीडा, बच्चों के साथ एवं आपसी व पारिवारिक विचार-विमर्श का अवसर मिलता है न कला, साहित्य, मनोरंजन राष्ट्र-भक्ति आदि उदात्त भावों पर सोचने व बच्चों को शिक्षित करने का, जो नारी का मूल कृतित्व है| जिसके अभाव में वे तनाव के शिकार होकर चिडचिडे असंवेदनशील हो रहे हैं ( इसीलिये दिखावटी संवेदनशीलता का प्रभाव काफी बढ़ा है आजकल ), जो नारी का मानसिक उत्प्रीणन ही है |

गुरुवार, 27 अप्रैल 2017

सखीं संग राधाजी दर्शन पाए----‘श्याम सवैया छंद...श्याम गुप्त...


-----सखीं संग राधाजी दर्शन पाए------..
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चित्रकूट के घाट पर भई संतन की भीर,
तुलसी दास चन्दन घिसें तिलक देत रघुबीर |

-------इस घटना को चाहे कुछ लोग कल्पित रचना मानते हों परन्तु रचना में अन्तर्निहित जो भगवद भक्ति, जो कल्पना व भावना के अंतर्संबंध का जो सत्य स्वरुप आनंद है, रसानंद है, ब्रह्मानंद है, वह अनिर्वचनीय है |


\\--उसी प्रकार ---
-------यदि आपको बिहारी जी के विग्रह के दर्शन रूपी रसानंद के साथ तुरंत ही राधाजी के सचल स्वरुप के दर्शन –सुख का आनंद प्राप्त होजाय तो वह अनिर्वचनीय परमानंद वर्णनातीत है, मोक्ष स्वरुप है | 
 
--------- एसी ही एक सत्य घटना का काव्यमय वर्णन प्रस्तुत है | जिसके लिए मैंने सवैया छंद के नवीन प्रारूप का सृजन किया और उसे ‘श्याम सवैया छंद’ का नाम दिया |
( श्याम सवैया छंद –छः पंक्तियाँ, वर्णिक, २४ वर्ण, अंत यगण )


**** सखीं संग राधाजी दर्शन पाए..***** १.
श्रृद्धा जगी उर भक्ति पगी प्रभु रीति सुहाई जो निज मन मांहीं |
कान्हा की वंसी जु मन मैं बजी सुख आनंद रीति सजी मन मांहीं|
राधा की मथुरा बुलावे लगी मन मीत बसें उर प्रीति सुहाई |
देखें चलें कहूँ कुञ्ज कुटीर में बैठे मिलहिं कान्हा राधिका पाहीं |
उर प्रीति उमंग भरे मन मांहि चले मथुरा की सुन्दर छाहीं |
देखी जो मथुरा की दीन दशा मन भाव भरे अँखियाँ भरि आईं ||

२.
ऐसी बेहाल सी गलियाँ परीं दोउ लोचन नीर कपोल पे आये |
तिहूँ लोक ते न्यारी ये पावन भूमि जन्मे जहं देवकी लाल सुहाए |
टूटी परीं सड़कें चहुँ और हैं लता औ पता भरि धूरि नहाए |
हैं गोप कहाँ कहँ श्याम सखा किट गोपी कुञ्ज कतहूँ नहिं पाए |
कित न्यारे से खेल कन्हैया के कहूँ गोपीन की पग राह न पाए |
हाय यही है मथुरा नगर जहं लीला धरन लीला धरि आये ||
३.
रिक्शा चलाय रहे ब्रज वाल किट ग्वाल-गुपाल के खेल सुहाए |
गोरस की नदियाँ बहें कित गली राहन कीचड़ नीर बहाए |
कुंकुम केसरि की धूर कहाँ धुंआ डीज़ल कौ चहुँ ओर उडाये |
माखन मिसरी के ढेर कितें चहुँ ओर तो कूड़न ढेर सजाये |
सोची चले वृन्दावन धाम मिलें वृंदा वन बहु भाँति सुहाए |
दोलत ऊबड़-खाबड़ राह औ फाँकत धूल वृन्दावन आये ||
४.
कालिंदी कूल जो निरखें लगे मन शीतल कुञ्ज कुटीर निहारे ,
कौन सो निरमल पावन नीर औ पाए कहूँ न कदम्ब के डारे |
नाथ के कालिया नाग प्रभो जो किये तुम पावन जमुना के धारे |
कारी सी माटी के रंग को जल हैं प्रदूषित कालिंदी कूल किनारे |
दुई सौ गज की चौड़ी नदिया कटि छीन तिया सी बहे बहु धारे |
कौन प्रदूषण नाग कों नाथि कें पावन नीर को नाथ सुधारे ||
५.
गोवरधन गिरिराज वही जेहि श्याम धरे ब्रज वृन्द बचाए |
खोजी थके हरियाली छटा पग राह कहूं औ कतहूँ नहिं पाए |
सूखे से ठूंठ से ब्रक्ष कदम्ब कटे फटे गिरि पाहन बिखराये |
शीर्ण विदीर्ण किये अंग भंग गिरिराज बने हैं कबंध सुहाए |
सब ताल तलैया हैं कीच भरे गिरिराज परे रहें नीर बहाए |
कौन प्रदूषन, खननासुर संहार करहि ब्रजधाम बचाए ||
६.
मंदिर देखि बिहारी लला मन आनंद शीतल नयन जुड़ाने |
हिय हर्षित आनंद रूप लखे, मन भाव, मनों प्रभु मुसकाने |
बोले उदास से नैन किये अति ही सुख आनंद हम तौ सजाने |
देखी तुमहूँ मथुरा की दशा हम कैसें रहें यहाँ रोज लजाने |
अपने अपने सुख चैन लसे मथुरा के नागर धीर सयाने |
श्याम कछू अब तुमहिं करौ, हम तौ यहाँ पाहन रूप समाने ||
७.
भाव भरे कर जोरि कें दोऊ, भरे मन बाहर गलियन आये |
बांस फटे लिए हाथन में सखियन संग राधाजू भेष बनाए |
नागरि चतुर सी मथुरा कीं रहीं घूमि नगर में धूम मचाये |
हौले से राधा सरूप नै पायं हमारे जो दीन्हीं लकुटियां लगाए |
जोरि दोऊ कर शीश नवाय हम कीन्हों प्रनाम हिये हुलसाये |
जीवन धन्य सुफल भयो श्याम, सखीं संग राधाजी दर्शन पाए ||

शनिवार, 15 अप्रैल 2017

पुनर्मूषकोभव --आलेख --स्त्री-पुरुष विमर्श ---- डा श्याम गुप्त


                             ..


------पुनर्मूषकोभव --आलेख --स्त्री-पुरुष विमर्श ----

------मैं अपने मित्रों से जब कभी भी अपना यह विचित्र सा लगने वाला मत या तर्क प्रस्तुत करता हूँ कि--
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-- ‘आज की विभिन्न सामाजिक व नारी-पुरुष समस्याओं का कारण स्त्रियों का घर से बाहर निकल कर सेवा कार्य में लिप्त होजाना है ‘..---
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-----.तो तुरंत मुझे तीब्र प्रतिक्रियाओं का सामना करना पड़ता है ...’आपके विचार पुरानपंथी हैं’...एसा भी कहीं होता है....अपने विचार बदलिए....आधुनिक विचार रखिये....अब स्त्रियाँ स्वतंत्र होचुकी हैं....वे क्यों न नौकरी अदि कार्य करें ?..पुराने शास्त्रों का ज़माना गया, आजके युग में उनका कोइ अर्थ नहीं ...और विभिन्न रटे हुए तर्क- क्या पुराने समय में ये सब नहीं होता था राम को दशरथ/ माँ में निकाल दिया, भाई-भाई में युद्द्ध नहीं हुआ था क्या आदि आदि ..|
---------क्योंकि सभी की बहू-बेटियाँ सेवाकार्यों अर्थात कमाने में ..आफिस कार्यों में संलग्न हैं, अत: वे सामान्यतः... सभी यही कर रहे हैं...आजकल ये आधुनिक समय का चलन है...हम आगे बढ़ रहे हैं ...आदि प्रारम्भिक विचारों से आगे सोच ही नही पाते |
------इस विषय को कुछ और स्पष्ट करने हेतु कुछ तथ्यों को हम निम्न क्रम में प्रस्तुत करेंगे----
\
१. जब मानव –आदि रूप में जंगल में रहता था, नर-नारी दोनों ही स्वतंत्र थे, अपने अपने लिए शिकार करते या फल एकत्र करते थे | कुछ आदि मानव झुंडों, समूहों में भी रहते थे , परन्तु सभी नर-नारी स्वतंत्र थे उन्मुक्त सेक्स था अन्य प्राणियों की भांति| न कोइ द्वंद्व न शिकवा-शिकायत |युगों तक यह चलता रहा |
\
२.
-----जब मानव पर्वतों की गुफाओं, पेड़ों, से उतर कर झौपडियों / घरों में रहने लगा, कृषि व अन्य आर्थिक तत्वों का विकास हुआ, समाज, संस्कृति, ग्रामों-नगरों आदि का विकास होने लगा तो परिवार व्यवस्था प्रारम्भ हुई, तो संतति सुरक्षा हेतु नारी ने सायं ही गृहकार्य को प्राथमिकता दी और पुरुष ने घर चलाने, पालन पोषण का भार स्वीकार किया|
-------अब केवल पुरुष कमाता था , बाहर जाकर कार्य, सेवा, नौकरी आदि करता था | स्त्रियाँ गृहकार्य, संतति पालन-पोषण, पुरुष की आवश्यकताओं का ध्यान रखना , पढ़ने पढ़ाने , कला, साहित्य आदि कर्म में निरत थीं | कुछ स्त्रियाँ किसी मजबूरी वश सेवा कर्म करती थीं परन्तु दासी कर्म आदि जिसे अधिक सम्मान से नहीं देखा जाता था |
-------गृहकार्य आदि से निवृत्त पुरुष ने बड़े बड़े विचार, ज्ञान, सामाजिक नियम आदि पर सोचा एवं वेद-पुराण –शास्त्र आदि का प्रणयन किया| नीति नियम , व्यवहार के ,आचरण के तत्व स्थापित किये, विवाह संस्था का उदय हुआ, स्त्री-पुरुष दोनों के लियी आचार संहिता बनी | समाज में स्थायित्व, समता व आदर्श व्यवस्था थी, स्त्री-पुरुष, पति-पत्नी बनकर अपने अपने कार्यों में संतुष्ट रहकर जीवन व्यतीत करते थे |
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३. आज के युग में पुनः स्त्री स्त्री-स्वतंत्रता के नाम पर, घर से बाहर निकालकर, सेवाकार्य में रत रहकर , स्वतंत्र नौकरी व आय के साधन प्राप्त करके, पुरुषों की बराबरी के नाम पर अपने स्त्रियोचित गुण व कर्तव्यों का बलिदान , पुरुषों के कार्यों को अपने कन्धों पर ले रही है, एवं पुरुष पालन-पोषण हेतु नौकरी के साथ साथ गृह कार्य में भी बराबरी के रूप में हिस्सा बंटा रहा है |
--------अर्थात दोनों स्वतंत्र हैं—दोनों अपने अपने लिए कमाते हैं, दोनों ही घर का कार्य, संतति पालन पोषण का कार्य करते हैं| स्त्री अपने घर के कार्य की अपेक्षा पर-दास्य कर्म को अदिक महत्ता दे रही है| अर्थात प्रारम्भिक --डिविज़न ऑफ़ लेवर—जो संतान के हित में बनाया गया था समाप्त है| दोनों पति-पत्नी केवल सेक्स / बच्चे के लिए मिलते हैं| इससे आगे बढकर वह भी आवश्यक नहीं है व सब कहीं से भी प्राप्त किया जा सकता है |
------अर्थात नारी नारी न रहकर, पुरुष पुरुष न रहकर दोनों – पुरुष + नारी बनते जारहे हैं| पुरुष का पौरुष, नारी की स्वाभाविक स्त्रीत्व सौम्यता समाप्त होकर पुनः जंगल-युग के आदि मानव की भांति केवल प्राणी-मानव रह गया है | पुनर्मूषकोभव |
------ हम पुनः वहीं आगये हैं जहां से चले थे | जिसका परिणाम है कि जिस प्रकार पश्चिमी सभ्यता में स्त्री-पुरुषों में समन्वय न होने के कारण पुरुषों के भी सामान्य भौतिक कर्मों में लिप्त होने से कभी, कोइ कहीं वेद, शास्त्र, पुराण नहीं लिखे गए |
-------आज यहाँ भी पुरुषों के घरेलू कार्यों में लिप्त होने से कोइ उच्च विचार, अपने स्वयं के विचारों , सामाजिक, सांस्कृतिक, मानवीय आचरण के सद-विचारों का उदय नहीं होपारहा है | हाँ पश्चिम की सभ्यता की नक़ल से काम चलाया जा रहा है| यूं तो लोग खुश भी हैं, अज्ञानजनित प्रसन्नता से |