अंत हो इस मुल्क में मज़हबी तकरार का !
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हो मिठाई से भी मीठा , मुंह से निकले बोल जो ,
ये ही मौका है मोहब्बत के खुले इक़रार का !
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इस अमावस को बदल दें चांदनी की रात में ,
तब मज़ा आएगा असली दीपों के त्यौहार का !
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नफ़रतें मिट जाएँ सारी , फिरकापरस्ती दफ़न हो ,
इस दीवाली काट देंगें सिर हर एक गद्दार का !
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अब दिलों में झिलमिलाएँ प्रेम से रोशन दिए ,
कारोबार ठप्प हो 'नूतन' नफरत-ए-बाजार का !
शिखा कौशिक 'नूतन'
बहुत ख़ूब।
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूब।
जवाब देंहटाएंसुंदर जी
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना ......
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग पर आपके आगमन की प्रतीक्षा है |
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बहुत ही सुंदर रचना की प्रस्तुति।
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