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रविवार, 22 फ़रवरी 2015

औरत



ये औरत ही है !


पाल कर कोख में जो जन्म देकर बनती  है जननी 
औलाद की खातिर मौत से भी खेल जाती है .
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बना न ले कहीं अपना वजूद औरत 
कायदों की कस दी  नकेल जाती है .

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मजबूत दरख्त बनने नहीं देते  
इसीलिए कोमल सी एक बेल बन रह जाती है .
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हक़ की  आवाज जब भी  बुलंद करती है 
नरक की आग में धकेल दी जाती है 
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फिर भी सितम  सहकर  वो   मुस्कुराती  है 
ये औरत ही है जो हर  ज़लालत  झेल  जाती  है .



                                          शिखा कौशिक 
                           [vikhyaat  ]







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