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गुरुवार, 15 मई 2014

पर्दे में घुटती औरत !

पर्दे में घुटती औरत !
पर्दे में रहते हुए
वो घुट रही है ,
मर रहे हैं उसके
चिंतनशील अंतर्मन
 के विचार,
 और सिमट रहे हैं
अभिलाषाओं के फूल ,
जो कभी खिले थे
ह्रदय के उपवन में ,
कि दे पाऊँगी
इस विश्व को नूतन कुछ
और हो जाउंगी
मरकर भी अमर !!

शिखा कौशिक 'नूतन'

4 टिप्‍पणियां:

  1. कि दे पाउंगी इस विश्व को नूतन कुछ
    और हो जाउंगी मर के भी अमर।

    पर्दे में ऱहने वाली और त कोई अलग कहां होती है वह भी भरन चाहती है उडान।

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  2. दुनिया के ऐसे अनछुए हिस्से हैं जहाँ पर्दे के पीछे जाने कितनी सिसकियाँ दम तोड़ देती हैं...बेचैन कर देने वाली रचना...

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  3. यदि उड़ान की इच्छा है तो परदे के पीछे जाना ही नहीं चाहिए ....उड़ान वाले कहाँ पर्दों को मानते हैं ....

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  4. परदे सिर्फ शरीर तक सीमित रहें तो अच्छा हैं।

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