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गुरुवार, 19 सितंबर 2013

दु:स्वप्न

शहरों में रहते रहते आप अपने आप में कुछ यूँ लीन हो जाते हैं, कि बाकी कुछ कभी याद ही नहीं रहता, आप के अगल बगल कौन रहता है, क्या करता है, क्या नाम है, कुछ भी नहीं पता होता, मैं भी इनमे से कुछ अलग नहीं हूँ, पिछले दो साल से जिस मकान में रह रहा हूँ, उसके मकान मालिक के सिवा मकान में रह रहे लोगों के चेहरे के अलावा और कुछ नहीं जानता, सुबह ऑफिस और शाम को घर आने के बाद दरवाजा बंद, फिर मैं और मेरी तनहाई, कुछ किताबें, बुद्धू बक्सा और लैपटॉप के साथ काफी के मग, यह बड़ा आम सा दृश्य है मेरे कमरे का, और हाँ मेरा कैमरा जो यदा कदा मेरे विचारों को रूप देने में बड़ा सहायक सिद्ध होता है।

ऐसी ही एक शाम घर लौट कर ताला खोलने के लिए हाथ बढ़ाये ही थे कि किसी की आवाज़ कानों से टकराई, मेरे सामने, मकान के नीचे के कमरे में रहने वाली भाभी जी खड़ी थी, भाभी ही कहता था मैं उसे, जबकि उम्र में वह मुझसे बहुत छोटी है, यही कोई २० से २२ साल की उम्र होगी, लेकिन अब जब किसी को न जानो तो हर शादी शुदा औरत भाभी ही हो जाती है, उसकी आँखें शून्य में निहार रही थी और बात वो मुझसे कर रही थी, उसने फिर कहा कि मुझे आपसे कुछ बात करनी है, चूँकि पूरे मकान में उस समय कोई नहीं था, सिर्फ मैं और वो, सोचकर थोडा मैं ठिठका क्यूंकि दिल्ली में रहते रहते या फिर यूँ कहें कि शहरों की ख़ाक छानते छानते अब जल्दी किसी पर विश्वास नहीं आता और जब बात एक औरत की हो तो डर अपने आप घर कर जाता है, क्यूंकि सोचने और कहने वालों की सोच और जुबान पर ताला नहीं होता, उन्हें जो कहना होता है वो कह देते हैं और भुगतता कोई दूसरा है। लेकिन शायद वो मेरे विचारों को ही पढ़ रही थी ......" भैया चिंता मत कीजिये, कोई नहीं है और आपको कोई कुछ नहीं कहेगा।" उसके उस वाक्य ने मेरी चिंता को कम करने के बजाय और बढ़ा दिया कि भला यह औरत चाहती क्या है, झिझकते हुए ही सही मैंने उसे अन्दर आने के लिए कहा( मन में चल रही अनेकों लड़ाइयों से जूझता हुआ), उसे बिठाया और फिर पूछा कि हाँ बताइये भाभी, क्या बात है? मेरा यह कहना जैसे किसी पटाखे की सूतली में आग लगाने जैसा था, उसकी आँखें जो अभी तक सामान्य(सामान्य तो नहीं कहूँगा, लेकिन सोचों के दायरे से अगर कोई न देखे तो समान्य ही थी) थी, अचानक आंसुओं से डबडब हो गयी और फिर उसने जो बताया और दिखाया वो मेरे लिए एक दु:स्वप्न् था, भयावह दु:स्वप्न….......।

"भैया मैं क्या करूँ, कुछ समझ में नहीं आ रहा, मेरा पति राक्षस है, बहुत मारता है मुझे और शक भी करता है, छिनाल डायन और न जाने क्या क्या कहता रहता है।" इतना कहते समय उसकी साँसे धौंकनी की तरह चल रही थी और उसने अपनी साड़ी का पल्लू जब हटाया तो मेरी आँखें फटी रह गयी, उसके गले पर काले काले निशान जमे थे, मैंने अपनी आँखें दूसरी तरफ फेर ली, क्यूंकि मैं नहीं देख सकता था उसके निशान, कोई अपने जानवर को भी ऐसे न मारे, मैंने कहा अपने मायके में किसी को बताया है, उसने कहा दो साल हो गए शादी को, घर पर न जाने कितनी बार बोला लेकिन हर कोई यही कहता है कि अब तुम्हारा घर वही है, जैसे भी रहना है तुम्हे ही संभालना है, अपने पति को समझाओ वगैरह लेकिन "भैया मेरा क्या दोष है, शादी से पहले तो मैं इसे जानती भी न थी और शादी के बाद इसने मुझे जानने का मौका ही कहाँ दिया, सिर्फ रात को सोते समय ही प्यार आता है वो भी कुछ घंटों का, उसके बाद फिर वही गत होती है मेरी, बिस्तर से लात मारकर धकेल देता है, क्या करूँ, कुछ समझ में नहीं आ रहा, अपनी माँ से भी कहा कि क्या करूँ तो उन्होंने कहा "शान्ति से अपना घर संभालो, जहाँ डोली उतरती है, वहीँ से औरत की अर्थी निकलती है।" मुझे याद आया कि वो गर्भवती थी, अभी कुछ दिनों पहले ही तो मैंने देखा था उसे घर आते समय लेकिन पूछने की हिम्मत न हुई, पूछता भी कैसे, अगर ऐसी मार पड़ रही है तो मुमकिन है कि उसका बच्चा जीवित नहीं रहा होगा, उसने खुद ही बता दिया मेरे पूछने से पहले " मैं माँ बनने वाली थी, सब कुछ सही चल रहा था, दुबली पतली होने की वजह से डॉक्टर ने कई सारे परहेज़ और खाने पीने एवं आराम करने को कहा था कि एक दिन उसने मुझे इतना मारा कि पेट के बल गिरने से बच्चे की मौत हो गयी और अब मैं माँ भी नहीं बन सकती, चोट इतनी तेज थी कि ऑपरेशन करके गर्भाशय निकलना पड़ा" उफ़ इतनी पीड़ा और वह भी यह गाँव की बात नहीं शहर की है, पढ़े लिखे लोगों की, मैं एकटक उसे देखे जा रहा था फिर वह चुपचाप उठी और जाने लगी, दरवाज़े के पास पहुँच कर ठिठकी और कहा " किसी से कहियेगा मत, नहीं तो पता नहीं मेरा क्या होगा, मुझे मरना नहीं है भैया, वो तो एक भार जैसा लग रहा था, किसी से बता नहीं पा रही थी तो सोचा आपसे ही बता दूँ, अब हल्का महसूस हो रहा है।"

वह चली गयी, और मैं एकटक दरवाज़े को देख रहा था, कुछ कर भी तो नहीं सकता था मैं, क्या करता। चुचाप उठा, दरवाजा बंद किया और मेरी दुनिया फिर सिमट गयी, ऑफिस, लैपटॉप, काफी, बुद्धू बक्सा और ऐश ट्रे में पड़ी जलती हुई सिगरेट। फिर मैंने उसे कभी नहीं देखा, शायद उन लोगों ने मकान बदल लिया होगा लेकिन उसके निशाँ अभी भी चस्पा हैं मेरी आँखों की पुतलियों पर और मैं सोच रहा हूँ, क्या वह छिनाल थी, डायन थी........................क्या थी, क्यूँ उसे ये उपनाम मिलते थे, या फिर यह उसकी नियति थी? क्या थी वह?

मैं बस सोच रहा हूँ, ढूंढ़ रहा हूँ जवाब, पता नहीं कब मिलेगा, कैसे मिलेगा, लेकिन इस बीच निर्भया के दोषियों को सजा हो गयी है, एक सुधार गृह में बंद है, क्या वही इसका पति है? पता नहीं लेकिन यह अबला सबला कैसे बनेगी, पता नहीं, क्या वह जंगली नहीं बन सकती पुरुष की तरह? सोच रहा हूँ और प्रज्ञा पाण्डेय की यह कविता जेहन में चल रही है लगातार, किसी दिन मिलूँगा उनसे और पूछूँगा की क्या ऐसा सचमुच…………….?

हाँ मैं हूँ जंगली मुझे नहीं आती
तुम्हारी बोली
नहीं समझती
तुम्हारी भाषा
उतनी आभिजात्य नहीं कि
ओढ़ कर लबादा तुम्हारी हँसी का
बाँटती रहूँ अपने सस्कार तुममें

मुझमें नहीं इतनी ताक़त
कि पी जाऊँ अपनी अस्मिता
और
परोसूँ अपना वजूद

हाँ मैं हूँ जंगली ..
नहीं जानती कि मुझमें है
ऐसा सौंदर्य
कि
सभ्यताएँ पहन तुम होते हों वहशी!

मगर मुझे क्रोध आता है तुम्हारी हंसी पर
मुझे क्रोध आता है
जब ग्लैमर कि चाशनी में लपेट तुम
शुरू करते हों मुझको परोसना!

हाँ मै हूँ जंगली नहीं जानती सभ्यता
पर इतना जानती हूँ कि
तुम शोषक हों और मै हूँ शोषिता!



पूछूँगा कि कब तक…वह हथियार भी तो उठा सकती है, तो फिर शोषिता क्यूँ? क्यूँ, क्यूँ क्यूँ ......मेरा सर फट रहा है, कॉफ़ी मेकर में काफी बन गयी है, शीशे के उस पार काली कॉफ़ी उबल रही है पानी के साथ, पी लूँ, दरवाजा खुला छूट गया है, उसे भी बंद कर लूँ, कहीं फिर कोई दु:स्वप्न दस्तक न दे दे।

-नीरज 

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