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गुरुवार, 7 मार्च 2013

महिला दिवस


वह औरत 
जो सिर्फ औरत थी 

वह औरत 
जब धान का कलश छलका कर 
किया था गृह प्रवेश 
उसी दिन से 
बन गयी वह घर की 
समृध्धि की दारोमदार
कभी दूध में कटौती
कभी बची सब्जी से संतुष्टि कर  
जतन से छुपा कर पहनती  रही 
वह बांह से फटे ब्लाउज 
सिकोड़ती रही अपने पैर 
ताकि चादर बनी रहे 
पर्याप्त लम्बी सबके लिए  

बड़ी आस, बड़े चाव से 
लम्बे इंतजार के बाद 
खरीदी लाल किनारी 
की वह साड़ी 
हल्दी कुंकू का तिलक लगा 
कर दी भेंट छूकर चरण 
यूँ ही भाई से मिलने आयी 
ननद को 
उसके हाथ सहेज रहे थे 
द्वार पर बिखरे  वो धान कण
इस घर की समृध्धि 
कभी न हो कम 
न जाये बहन बेटी कभी 
खाली हाथ. 

वह औरत 
करती रही 
मामेरा मंडप सूरज पूजा 
अनसुने कर सब विरोध 
ओर गुनती रही 
माँ ओर सास के 
आशीर्वचन 
टटोलती रही अपने सर पर 
उनका हाथ कि 
दोनों घरों की लाज 
निभाना है उसे 
न कम होने दिया 
मान उसने कहीं भी |

वह  औरत 
छुपा कर अपने घुटनों 
कमर का दर्द 
करती रही पैरवी 
अबके एक ओर गाय लेने की 
कि छुटके कि बहू 
ओर बेटी कि जचगी है साथ साथ 
कि अब दो ओर घर है 
बनाये रखने को मान |

करके विरोध 
घर परिवार रिश्तेदार 
पति ओर खुद के बेटों का 
भेजा बेटी को पढ़ने शहर 
ओर बहू को बाहर 
बनाने अपनी पहचान 
बिना शिकायत संभालती रही घर 
अपनी उम्र की थकान को छुपाते हुए 
वह औरत मानती रही 
महिला सशक्ति  वर्ष जीवन पर्यंत

वह औरत 
जिसने न उठाया सर कभी 
अपने अधिकारों के लिए 
संभाले रही ख़िताब 
माँ सास बहू बहन 
बुआ मामी काकी का 
जिसने न पाए कहीं कोई इनाम 
लेकिन मनाती रही महिला दिवस 
अपनी जिंदगी के 
हर दिन हर वर्ष |

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