पहले वेद-उपनिषद् आदि में घटनाओं का सत्य वर्णन किया जाता था, पौराणिक काल में सत्य को सोदाहरण कथारूप में लिखा जाने लगा, ताकि सामान्य जन समझ सके व उचित राह पर चल सके | आगे चलकर कथाओं-गाथाओं का जन्म हुआ जो सत्य-व वास्तविक घटनाओं, पात्रों, चरित्रों के आधार पर कहानियां थीं--'एक राजा था', 'एक समय..', 'एक राजकुमार ...' , 'एक दिवस....' , 'काम्पिल्य नगरी में एक धनी सेठ...' , 'एक सुंदर राज कुमारी '.आदि-आदि, जो समाज व व्यक्ति का दिशा निर्देश करती थीं | बाद में कल्पित चरित्र ,घटनाओं आदि को आधार बनाकर कल्पित कथाएँ व गल्प, फंतासी आदि लिखी जाने लगीं जिनमें सत्य से आगे बढ़ा चढ़ा कर लिखा जाने लगा परन्तु वह किसी न किसी समाज, देश,काल की स्थिति-वर्णन होती थीं और बुराई पर अच्छाई की विजय |
परन्तु आज क्या लिखा-दिखाया जारहा है, पूर्ण असत्य कथा-कहानी, 'इस सीरियल -कहानी के पात्र, घटनाएँ, किसी भी देश-काल, समाज, जाति का प्रतिनिधित्व नहीं करते' अर्थात पूरी तरह से झूठी कहानी;जब ये सब कहीं हो ही नहीं रहा है हुआ ही नहीं, कहीं मानव-मात्र से संवंधित ही नहीं, तो कहानी किस बात की |
क्या-क्या मूर्खताओं के साए में पल रहे हैं आज-कल हम, हमारा साहित्य, साहित्यकार व समाज ..... कैसे सत्य को पहचाने हमारी भावी पीढी |
हमारे वेद पुरानों की ,सनातन साहित्य की समय समय
जवाब देंहटाएंपर मन चाही व्याख्याएं हुई है तोड़-मरोड़ कर अर्थ के अनर्थ निकाले गए है उनके वास्तविक अर्थ ही बदल दिए गएयही विडंबना है
आभार आदरणीय |
जवाब देंहटाएंएकदम सही बात कही है आपने . ये क्या कर रहे हैं दामिनी के पिता जी ? आप भी जाने अफ़रोज़ ,कसाब-कॉंग्रेस के गले की फांस
जवाब देंहटाएंधन्यवाद अदिति जी, रविकर एवं शालिनी जी ....
जवाब देंहटाएं---सही कहा यह विडम्बना ही है ..
'बहुत सह चुके अब तो समझें कि ज़िंदा कौम हैं हम '