दिल्ली ''भारत का दिल ''आज वहशी दरिंदों का ''बिल'' बनती नज़र आ रही है .महिलाओं के लिए यहाँ रहना शायद आरा मशीन में लकड़ी या चारे की तरह रहना हो गया है कि हर हाल में कटना ही कटना है .दिल ही क्या दहला मुट्ठियाँ व् दांत भी भिंच गए हैं रविवार रात का दरिंदगी की घटना पर ,हर ओर से यही आवाजें उठ रही हैं कि दरिंदों को फाँसी की सजा होनी चाहिए क्योंकि अभी तक ''भारतीय दंड सहिंता की धारा ३७६ [२] बलात्संग के लिए कठोर कारावास जिसकी अवधि दस वर्ष से कम न होगी किन्तु जो आजीवन कारावास तक हो सकेगी ,दंड व् जुर्माने का प्रावधान करती है और वर्तमान बिगडती हुई परिस्थितियों में ये सभी को कम नज़र आने लगी है और ऐसे में जहाँ सारा विश्व फाँसी को खत्म करने की ओर बढ़ रहा है वहां भारत में बढ़ता ये मामले भारतीयों को फाँसी के पक्ष में कर रहे हैं .
दिल्ली में चलती बस में फिजियोथेरेपिस्ट के साथ घटी इस दरिंदगी की घटना ने दोनों सदनों को भी हिला दिया .भाजपा की सुषमा स्वराज ,नजमा हेपतुल्लाह ,शिव सेना के संजय राउत ,आसाम गण परिषद् के वीरेंद्र कुमार वैश्य ,सपा के चौधरी मुन्नवर सलीम ने बलात्कार के दोषियों के लिए मौत की सजा की पैरवी कर डाली किन्तु क्या इन चंद दोषियों को फाँसी की सजा देने से हम बलात्कार जैसे पाप का अंत कर सकेंगें ?शायद नहीं .आज तक बहुत से हत्या के दोषियों को फाँसी दी गयी किन्तु क्या इससे हत्या का अपराध बंद हुआ ?नहीं हुआ न और ऐसे होगा भी नहीं .गीतकार व् मनोनीत सदस्य जावेद अख्तर ने दोषियों को फाँसी की सजा पर असहमति जताते हुए कहा ''कि सिर्फ गुस्सा दिखाने से काम नहीं चलेगा .प्रशासनिक कदम उठाने के साथ ही सामाजिक स्तर पर भी पहल करनी होगी .''और मनोनीत सदस्य अशोक गांगुली ने कहा ''कि ऐसे मामलों के दोषियों को ऐसी सजा मिले जो कि बाकी के लिए नजीर बन सके .''
ये दोनों वक्तव्य ही विचारणीय हैं क्योंकि फाँसी से हम एक अपराधी का अंत कर सकते हैं सम्पूर्ण अपराध का नहीं .हमें स्वयं में हिम्मत लानी होगी कि ऐसी घटनाओं को नज़रअंदाज न करते हुए न केवल अपने बचाव के लिए बल्कि दूसरे किसी के भी बचाव के लिए कंधे से कन्धा मिलकर खड़े हों .ये सोचना हमारा काम नहीं है कि जिसके साथ घटना हो रही है शायद उसका भी कोई दोष हो .हमें केवल यह देखना है कि जो घट रहा है यदि वह अपराध है तो हमें उसे रोकना है और यदि इस सबके बावजूद भी कोई घटना दुर्भाग्य से घट जाती है तो पीड़ित को समाज से बहिष्कृत न करते हुए उसके समाज में पुनर्वास में योगदान देना है और अपराधी को एकजुट हो कानून के समक्ष प्रस्तुत करना है ताकि वह अपने किये हुए अपराध का दंड भुगत सके .सिर्फ कोरी बयान बाजी और आन्दोलन इस समस्या का समाधान नहीं हैं बल्कि हमारी अपराध के सच्चे विरोध में ही इस समस्या का हल छुपा है .चश्मदीद गवाह जो कि सब जगह होते हैं किन्तु लगभग हर जगह अपने कर्तव्य से पीछे हट जाते हैं किसी भी मामले को सही निर्णय तक पहुंचा सकते हैं और ऐसी घटनाओं में हमें अपनी ऐसी भूमिका के निर्वहन को आगे बढ़ना होगा क्योंकि ये एक सत्य ही है कि ज़रूरी नहीं कि हमेशा कोई दूसरा ही ऐसी घटना का शिकार हो कल इसके शिकार हम या हमारा भी कोई हो सकता है इसलिए सच्चे मन से न्याय की राह पर आगे बढ़ना होगा .
याद रखिये फाँसी निबटा देती है अपराधी को अपराध को नहीं .वह अपराधी को पश्चाताप का अवसर नहीं देती हालाँकि हर अपराधी पश्चाताप की ओर अग्रसर भी नहीं होता किन्तु एक सम्भावना तो रहती ही है और दूसरी बात जो विभत्स तरीका वे अपराध के लिए अपना ते हैं फाँसी उसका एक अंश भी दंड उन्हें नहीं देती .आजीवन कारावास उन्हें पश्चाताप की ओर भी अग्रसर कर सकता है और यही वह दंड है जो तिल तिल कर अपने अपराध का दंड भी उन्हें भुगतने को विवश करता है .
शालिनी कौशिक
[कौशल ]
बहुत सही और सार्थक पोस्ट!
जवाब देंहटाएंबेहतर लेखनी !!!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
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आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शुक्रवार (21-12-2012) के चर्चा मंच-११०० (कल हो न हो..) पर भी होगी!
सूचनार्थ...!
सहे कथन --- अंग-भंग उचित दंड रहेगा ...
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंआप सभी का अपने विचार प्रस्तुत करने के लिए आभार फाँसी : पूर्ण समाधान नहीं
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