शूर्पणखा काव्य उपन्यास सर्ग-एक-चित्रकूट -डा श्याम गुप्त ...
स्त्री के नैतिक पतन में समाज, देश, राष्ट्र,संस्कृति व समस्त
मानवता के पतन की गाथा निहित रहती है | स्त्री के नैतिक पतन में
पुरुषों, परिवार,समाज एवं स्वयं स्त्री-पुरुष के नैतिक बल की कमी की
क्या क्या भूमिकाएं होती हैं? कोई क्यों बुरा बन जाता है ? स्वयं
स्त्री, पुरुष, समाज, राज्य व धर्म के क्या कर्तव्य हैं ताकि नैतिकता
एवं सामाजिक समन्वयता बनी रहे , बुराई कम हो | स्त्री शिक्षा का
क्या महत्त्व है? इन्ही सब यक्ष प्रश्नों के विश्लेषणात्मक व व्याख्यात्मक तथ्य प्रस्तुत करती है यह कृति "शूर्पणखा" ;
जिसकी नायिका राम कथा के दो महत्वपूर्ण व निर्णायक पात्रों व
खल नायिकाओं में से एक है , महानायक रावण की भगिनी --शूर्पणखा |
अगीत विधा के षटपदी छंदों में निबद्ध यह कृति-वन्दना,विनय व पूर्वा
पर शीर्षकों के साथ ९ सर्गों में रचित है |
प्रस्तुत सर्ग -१-चित्रकूट से
इस काव्य-उपन्यास की मूल कथा प्रारम्भ होती है...महाकाव्यों व खंडकाव्यों
की रीति के अनुसार मूल नायक के चरित्र को उभारने के क्रम में उसके चारों
ओर की परिस्थियों ,अन्य पात्रों , स्थानों, घटनाओं के वर्णन की आवश्यकता
होती है ..अतः यह कृति भरत आदि के राम को अयोध्या लेजाने में असफल होकर उनकी आज्ञा द्वारा अयोध्या लौट जाने के पश्चात.... राम के चित्रकूट निवास व वहां की घटनाओं से
प्रारम्भ होती है.....जिसमें .राम द्वारा भरत-प्रेम की स्मृति एवं इंद्रपुत्र जयंत की घटना प्रमुख है.... कुल छंद २५ ........
१-
प्रियजन परिजन मातु सहित सब,
सचिव, सैन्यगण और शत्रुहन;
श्वसुर जनक के सहित सभी को,
कर अभिवादन यथायोग्य फिर;
गुरुजन गुरुतिय पद वंदन कर,
विदा भरत को किया राम ने ||
२-
सखा निषाद-राज को प्रभु ने,
विदा किया सम्मान सहित फिर |
पर्णकुटी सम्मुख बट-छाया,
सीता-अनुज सहित प्रभु बैठे;
और भरे मन बातें करते ,
भरत के निश्छल प्रेम भाव की ||
३-
लक्षमण ! यह प्रेम भाव जग में,
सुन्दरतम, अनुपम, अतुल भाव |
जीवन-जग की सब परिभाषा,
है निहित इसी के अंतर में |
यह प्रेम बसा है कण कण में,
इसलिए ईश कण कण बसता ||
४-
लक्षमण बोले ,'प्रभु कण कण में,
है राम नाम की ही माया |'
जो नाम आपका एक बार,
लेता है, भव तर जाता है |
है प्रेम आपका ही प्रभुवर!
जो सरसाता है कण कण को ||
५-
पर भ्रात भरत के अतुल प्रेम,
की लक्ष्मण कोइ परिधि नहीं |
वह निश्छल निस्पृह भ्रातृ-प्रेम,
सब सीमाओं की सीमा है |
इस प्रेम-भाव का हे लक्ष्मण !
प्रभु स्वयं भक्त बन जाता है ||
६-
बन भक्ति, प्रेम और धर्मं-ध्वजा,
लक्ष्मण यह नेह-भक्ति जग में;
फहरेगी बन कर नाम -'भरत' |
भ्रातृ, सेव्य और भक्ति प्रेम,
का होगा जग में नाम -भरत;
यश गाथा गायें दिग-दिगंत ||
७-
सीता बोलीं , ’लक्ष्मण तुम क्यों,
हो चुप चुप से उर में अधीर ?’
क्या भरत-प्रेम पर राम-कृपा -
से मन द्विधा के भाव भरे |
'माता मैं तो अति पुलकित मन',
लक्ष्मण बोले , पद गहि सिय के ||
८-
८-
बड़भागी भरत,बसे उर प्रभु,
मैं अति बडभागी जो प्रभु की ;
नित नित सेवा-सुख पाता हूँ |
सुर मुनि व जगत को जो दुर्लभ,
सिय मातु सहित जो रघुवर की;
छवि के दर्शन नित नित पाऊँ ||
९-
क्या भला चाह कर मुक्ति-मोक्ष,
प्रत्येक जन्म में हे माता!
इन चरणों का अनुगामी बन,
बस भक्ति मिले श्रेयस्कर है |
प्रभु-सुधा कृपा के वर्षण की,
अमृत-बूंदों का पान करूँ ||
१०-
मंदाकिनी-तट जल धारा में,
पद निरखि सिया के प्रभु पूछें -
बतलाएं प्रिये! ये पैर भला,
हम दोनों में किसके सुन्दर ?
बोलीं सिय,'भव्य चरण प्रभु के'-
इन चरणों से समता किसकी ||
११-
"जग-वन्दित पद जग-जननी के,
रति के भी पाँव लजाते हैं |''-
फिर भी हम कहते सत्य, नाथ !
'सुन्दर पद कमल आपके हैं ' |
विहँसे रघुनाथ न मानो तो,
तुम कहो उसी को बुलवाएँ ||
१२-
लक्ष्मण को दोनों ही प्रिय हैं,
हम दोनों के ही प्रिय लक्ष्मण |
वे सत्य-भाव से ही निर्णय ,
लेकर के हमें बताएँगे |
हँसि, राम बुलाये लक्ष्मण तब,
हे भ्रात ! करो निर्णय इसका ||
१३-
पग भव्य आपके प्रभु अति ही,
जो सकल भुवन के धारक हैं।
पर नेह-जलधि प्रभु के मन की,
सिय की पद-गागरि में छलके।
पद निरखि चलें, प्रभु के पीछे,
हो सिय पद की सुषमा दुगुनी ॥
१४-
पद-पंकज युगल, राम-सीता,
उर धारण करलें, तर जायें।
अनुगमन करे इन चरणों का,
वह पाजाता है -अमृतत्व१ |
हरषाकर तब सिय-रघुवर ने,
लक्ष्मण को बहु आशीष दिए ||
१५-
पुष्पों को चुनकर निज कर से,
भूषण रघुवर ने बना दिए |
स्फटिक-शिला पर हो आसीन,
सिय को पहनाये प्रीति सहित |
भ्रमित हुआ ,देखी नर-लीला-
जब सुरपति-सुत उस जयंत ने ||
१६-
समझाया था भार्या ने भी ,
देवांगना२ नाम- सुकुमारी ;
रूपवती, विदुषी नारी थी ,
भक्तिभाव,सतब्रत अनुगामिनि |
समझ न पाया, अहंभाव में ,
विधि इच्छा पर कब किसका वश ||
१७-
रघुवर बल की करूँ परीक्षा,
सोचा, धर कर रूप काग का ;
चौंच मारकर सिय चरणों में ,
लगा भागने, मूढ़ -अभागा |
एक सींक को चढ़ा धनुष पर,
छोड़ दिया पीछे रघुवर ने ||
१८-
देवांगना ने किया उग्र तप,
यदि में प्रभु की सत्य पुजारिन;
क्षमा करें अपराध, हरि-प्रिया,
प्रभु-द्रोह-पाप से मुक्ति मिले;
जीवन दान मिले जयंत को,
अनुपम प्रीति राम की पाऊँ ||
१९-
धरकर राधारूप३ बनी वह,
पुनर्जन्म में प्रिया-पुजारिन;
भक्ति-प्रति की एक साधना,
स्वयं ईश की जो आराधना |
सफल हुआ तप, पूर्ण कामना,
कृष्ण रूप में, राम मिले थे ||
२०-
छिपने को सारे भुवनों में,
रहा दौड़ता इधर से उधर;
पर, नारी के अपराधी को,
भला कौन और क्यों प्रश्रय दे |
नारद बोले, क्षमा करेंगे,
वे, तू है जिनका अपराधी ||
२१-
प्रभु चरणों में लोट-लोट कर,
माँ सीता की चरण वन्दना;
करके , क्षमा-दान फिर पाया-
रघुवर से, पर बिना दंड के;
अपराधी क्यों कोई छूटे,
एक नेत्र से हीन४ कर दिया ||
२२-
बनचारी एवं ऋषि-मुनि गण,
खग मृग मीन ग्राम-नर-नारी |
थे प्रसन्न,सिय राम लखन जो,
बसे निकट ही, पर्णकुटी में |
जैसे, शोभित होते वन में,
ज्ञान भक्ति वैराग्य, रूप धर ||
२३-
यहाँ सभी हमको पहचाने-
यदि परिजन आते रहते हैं,
कैसा फ़िर वनवास हमारा ।
कैसे हो उद्देश्य पूर्ण फ़िर।
गहन विचार राम के मन था,
स्वगत कहा,’अब चलना होगा’॥
२४-
क्या उद्देश्य! क्या कहा प्रभु ने,
एक प्रश्न की बनी भूमिका;
लक्षमण के मन में, आतुर हो-
प्रश्न भाव प्रभु तरफ़ निहारा।
किन्तु राम थे गहन सोच में,
चुप रहना ही था श्रेयस्कर ॥
२५-
अन्तर्द्वद्व राम के मन था,
विश्वामित्र-बशिष्ठ योजना;
माँ कैकेयी का त्याग५, सभी-
यहीं रहे तो व्यर्थ रहें सब ।
राक्षस यहां तक नहीं आते,
आगे तो जाना ही होगा६ ॥ ------ क्रमश: अगले अंक में...सर्ग-दो..अरण्यपथ...
{कुन्जिका--१=मोक्ष, अमरता, परम ग्यान, परम-पद; २= देवांगना जयन्त की पत्नी थी, विष्णु भक्त थी, चित्रकूट में एक स्थान (गांव) देवान्गना है संभवतया वह जयंत का राज्य रहा होगा।;३= चित्रकूट के अन्चल में यह लोक-कथा है कि देवान्गना ही अगले जन्म में राधा बनी अपनी विष्णु भक्ति व बरदान के कारण ।;४= यही कारण है इस किम्बदन्ती का, कि कौए को एक आंख से ही दिखाई देता है, परन्तु वह दोनों ओर आन्तरिक-नेत्र बदल बद्ल कर देख सकता है ।; ५= कुछ मतों के अनुसार राम का वनबास...वास्तव में कैकेयी (जिसे रामकथा का एक अन्य निर्णायक स्त्री कुपात्र समझा जाता है), जो एक चतुर कूटनीतिग्य थी-वशिष्ठ व विश्वामित्र और राम की दक्षिणान्चल स्वाधीनता नीति का एक कूट उद्देश्य था। ६= चित्रकूट वस्तुतःलंकापति रावण के भारतीय अधिग्रहीत क्षेत्र व अवध क्षेत्र की सीमा पर था, उसके आगे घनघोर वन प्रदेश था-जन स्थान जो राक्षसी अत्याचारों-अनाचारों के कारण अत्यन्त पिछड चुका था। आज भी चित्रकूट स्थित गहन वन प्रदेश को देखकर उस समय की गहनता व रमणीयता-प्राकृतिक सौन्दर्य का अनुमान किया जासकता है।}
उत्कृष्ट प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंआभार डाक्टर साहब ।।
धन्यवाद रविकर .....जय श्री राम ...
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंभइयादूज की हार्दिक शुभकामनाएँ!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति बहुत बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंधन्यवाद शास्त्रीजी , रविकर एवं राजेश जी.....
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