मैं
अकेली लड़ रही हूँ
हे मनु पुत्र, तुमने आज
तक जो, नीति
विधि के नियम बांधे
सोचे बिना औचित्य क्या, प्रतिबन्ध
कर, बेखौफ
लादे
इन रीतियों का भार ढोते, थक गए
काँधे हमारे
होता नहीं चलना सहन, अब
दूसरों के ले सहारे
निष्प्राण कर इन रूढ़ियों
को, भर कफ़न ,
पुरुषार्थ की कीलें नुकीली, जड़ रहीं
हूँ
मैं अकेली लड़ रही हूँ
मैं जानती अच्छी तरह, है काम
यह मुश्किल बड़ा
पर पत्थरों के बिना फेंके, फूटे
नहीं कोई घड़ा
भरते रहें कितने घड़े, उनको न
कोई है फिकर
जूँ न रेंगे कान पर, मनुष्यत्व
जाए भले मर
ये कलुषता मेंटकर ही, चैन की
मैं सांस लूं
इस अमिट संकल्प में, मैं सदा
से दृढ़ रही हूँ
मैं अकेली लड़ रही हूँ
पाश फैलाए कि, शोषण हो
सके पर्यंत जीवन
लिंग के आधार पर, चलता रहे
अधिकार बंटन
विधि के प्रपत्रों में
समूचा, पुरुष का
ही हाथ हो
पुरुष को माने जो प्रतिनिधि, वो ही
महिला साथ हो
धारणाएं बन न पायें, प्रष्ट
नव इतिहास का
ऐसा अभेदी चक्रव्यू, मैं
संगठित हो, गढ़ रही
हूँ
मैं अकेली लड़ रही हूँ
रासायनिक वो तत्व जिनसे, प्रकृति
ने तुमको रचा
वो सभी मुझ में समाहित, है वही
पंजर समूचा
बुद्धिबल अन्विति पर, जिसका
तुम्हें अभिमान है
कम न तिलभर पास मेरे, इतना
मुझे भी भान है
जिस किसी भी क्षेत्र में
प्रतिमान जो तुमने बनाये
खींच रेखाएं बड़ी, तोड़ वो
मानक, सहज ही
बढ़ रही हूँ
मैं अकेली लड़ रही हूँ
श्रीप्रकाश शुक्ल
बहुत सार्थक रचना के साथ आपका इस ब्लॉग पर शुभागमन हुआ है .आपका स्वागत है .आभार
जवाब देंहटाएंkabhi to badlav aayega .......kabhi to kamjor kandhen bhar ko aasani se vahan karenge.....
जवाब देंहटाएंसोचे बिना औचित्य क्या, प्रतिबन्ध कर, बेखौफ लादे---
जवाब देंहटाएं--यही तो भूल कर रहा है आज भारतीय व --विश्व समाज...पुरुष व स्त्री समाज भी....ये प्रतिबन्ध सोचे-समझे हैं एवं इनका औचित्य भी है - युक्ति-युक्तिता भी...कोई ढंग से समझे-सोचे तो...नारी पर अत्याचार किस मान्य-स्मृति में लिखा है ....यह तो पुरुष व मनुष्य का लालच कराता है ..
---स्त्री भी तो मनु-पुत्री है ...यदि मनु ने नियम बनाए तो पिता क्यों विभेद करेगा?..