बेटा मस्ती ...बेटी एक जबरदस्ती है !
मंहगाई के दौर में भी कितनी सस्ती है ;
जान बेटियों की सब्जी से भी सस्ती है .
कोख में आई कन्या इसको क़त्ल करा दो ;
जन्म दिया तो फाँस गले में आ फंसती है .
क़त्ल किया कन्या का इसने ..उसने ..सबने ;
मैं कैसे रूक जाऊं मेरी क्या हस्ती है ?
बेटी के कारण झुकते हैं बाप के कंधे ;
इसी सोच की फांसी बेटी को लगती है .
''कन्या भ्रूण बचाओ ''नारों से क्या होता ?
बेटा मस्ती ...बेटी एक जबरदस्ती है .
क्या आप इन बातों से सहमत हैं ?.....
शिखा कौशिक
रचना सशक्त है पर भैया वर्तनी की अशुद्धियाँ बहुत हैं शीला जी अपने नाम का अशुद्ध रूप पढके नाराज हो जाएँगी .अच्छी सशक्त रचना जन -मानस तक सन्देश पहुंचाती .सन्देश जाना चाहिए ,बेटा बेटी का काल्पनिक भेद मिटाना चाहिए ....बेटा बड़ा होकर निहाल नहीं करता ,जीना मुहाल कर देता है .
जवाब देंहटाएंसमाज में तो यह सोच बनती जा रही है-
जवाब देंहटाएंपर मेरे १ पुत्र और दो मेधावी पुत्रियाँ हैं-
जो अपने पैरों पर खड़ी हैं ||
मेरे कुल में कन्याओं की संख्या बालकोंसे अधिक |
और कोई पक्षपात नहीं-
सबसे ज्यादा मुखर हमारी बुआ ही तो हैं-
बहनें भी-
सादर |
अत्यंत सशक्त रचना, अब बेटियां भी ज्यादा पीछे नही रह गई हैं बेटों से. इतने लंबे समय का सोच बदलने में अब ज्यादा वक्त नही लगेगा. शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंरामराम.
शिखा जी आपने जो कहा शब्द शब्द सच हैं ...यही हो रहा हैं ..पता नही कब समझेगा यह समाज की बेटी का होना उतना ही जरुरी हैं जितना बेटे का ..दुःख होता हैं ऐसी खबरे देखकर लेकिन उसी पुरानी साड़ी हुई सोच का क्या करे जो बरसो से दिमागों में बैठी हैं ...मुझे इस तरह की सोच से नफ़रत हैं ..नफ़रत होती हैं जब बेटी के जन्म पर परिवारों में उदासी छा जाती हैं ...
जवाब देंहटाएंआपकी पोस्ट अच्छी लगी ..ऐसे ही लिखती रहिये
वीणा साधिका
सही कहा...
जवाब देंहटाएंsarthak v sahi prastuti..समझें हम
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