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गुरुवार, 19 जुलाई 2012

सास-बहू, परिजन एवं संतान व संस्कार —डा श्याम गुप्त


                    

      जीवन के उद्धव व विकास के अति-प्रारंभिक चरण में जीवन यापन हेतु ऊर्जा प्राप्ति की खोज करते-करते एक अति-लघु जीव-कण( जीव-अणु कोशिका---आर्किया ) ने अपेक्षाकृत बड़े जीव-अणु-कोष-कण ( प्रोकेरियेट) के अंदर प्रवेश किया | वह लघु–जीव-कण अपने मेजबान के अवशिष्ट पदार्थों से ऊर्जा /भोजन बनाने लगा  एवं इस प्रक्रिया में कुछ अतिरिक्त ऊर्जा अपने शरणदाता को भी उपलब्ध कराने लगा और शरणदाता, शरणागत को सुरक्षा व आवश्यक कच्चा-माल | कालान्तर में उनका पृथक अस्तित्व कठिन व असंभव होगया| वे एक दूसरे पर आश्रित होगये और दोनों में एक सहजीविता उत्पन्न होगई| यह जीव-जगत का सर्व-प्रथम सहजीवन था | अंततः लघु जीव-अणु .. केन्द्रक (न्यूक्लियस) बना व बड़ा जीव-अणु... बाह्य-शरीर | इस प्रकार एक दूसरे में विलय होकर सृष्टि में प्रथम एक कोशीय-जीव की संरचना हुई |

      वस्तुतः जीवन व जीव प्रत्येक स्तर पर सहजीवन द्वारा ही विकासमान होते हैं | संसार में अपने ‘स्व’ को अन्य के ‘स्व’ से जोडने पर ही पूर्ण हुआ जा सकता है | प्रत्येक जीव-तत्त्व व जीव अपूर्ण है और वह सहजीवन द्वारा ही पूर्णत्व प्राप्त करता है|  प्रेम, विवाह, मैत्री व सामाजिक सम्बन्ध इसी सहभागिता एवं अपने ‘स्व’ के सामंजस्य पर आधारित हैं और इनकी सफलता हेतु ...तीन मुख्य तत्त्व हैं - सामंजस्य, सहनशीलता व समर्पण |

      हमारे यहाँ लडकी अर्थात पत्नी अपना घर, परिवार, समाज, संस्कार छोडकर पराये घर-पतिगृह आती है |  नए-माहौल में, नए समाज-संस्कारों में| लड़का –पुरुष ..तो अपने घर में बैठा है..सुरक्षित, संतुष्ट, पूर्णता का ज्ञान-भाव लिए हुए| उसका चिंतन तो बदलने वाला है नहीं| पत्नी को ही नए-घर, समाज-संस्कारों में सुरक्षा ढूंढनी होती है | पति व परिवार की इच्छा, अपेक्षा व धारणा होती है कि बहू हमारी आने वाली पीढ़ी व संतान द्वारा हमारा प्रतिनिधित्व करेगी व करायेगी, उसमें संस्कार भरेगी | हमारा, स्वजनों, परिजनों का भार उठाएगी | अतः उसे सम्मान मिलता है| यहाँ यह भी एक सच है कि पति व परिवार को भी अपना चिंतन गुणात्मक करना होगा | पुरुष को, लड़कों को भी अपना चिंतन बदलना होगा ताकि नया प्राणी तादाम्य बिठा पाये |

     यदि बहू अपने स्व को परिवार के स्व से जोडकर तादाम्यीकरण करती है तो उसे पारिवारिक सुरक्षा व सहृदयता स्वतः प्राप्त होती है| पारिवारिक-जनों का यह दायित्व होता है कि बहू को नए माहौल से प्रेम व आदरपूर्वक परिचित कराया जाए न कि जोर-जबरदस्ती से, ऐंठ-अकड से | नए मेहमान को परिवार में ससम्मान स्वीकृति प्रदान की जाए ताकि वह असुरक्षित अनुभव न करे | यहीं पर घर की स्त्री--सास का महत्वपूर्ण योगदान होता है जो स्वयं भी एक दिन इस नए परिवार में आई थी एवं जीवन के इसी मोड पर थी| अतः उसे बदले हुए देश-कालानुसार व्यवहार करना चाहिए | सास-बहू के रिश्ते पर ही भविष्य के पारिवारिक सुख-समृद्धि की दीवार खड़ी होती है |

     यदि बहू अपने स्व को परिवार के स्व से न जोडकर अपनी स्वतंत्र पहचान, केरियर व सुख हेतु या पाश्चात्य शिक्षा-प्रभाववश, गृहकार्य से दूर पुरुषवत जीने की ललक रखती है तो वह अपनों के बीच ही संघर्षरत होकर अलग-थलग पड जायगी एवं स्वयं को असुरक्षित अनुभव करने लगेगी| इस प्रकार स्त्रियोचित गुणों के स्थान पर पुरुषोचित अहं के भाव व केरियर–सुख के द्वंद्वों, झगडों की स्थिति से पारिवारिक विघटन की राह तैयार होती है |

    अपने स्व में जीने की ललक में एक अच्छी पत्नी व माँ खोजाती है|  वह सिर्फ एक स्त्री मात्र रह जाती है, अपने बराबर अधिकार के लिए संघर्षरत स्त्री, एक प्रगतिशील व आधुनिक नारी, अपने स्व के लिए जीती हुई; मात्र बुद्धि पर यंत्रवत चलता हुआ संवेदनशून्य जीवन जीती हुई ...एक भोग्या;  न कि दायित्व के भार की गुरु-गंभीरता ओढ़े, नारीत्व के अधिकार की अपेक्षा, नारीत्व के कर्तव्य व प्रेम द्वारा सम्माननीय साधिकार, अधिकार जताती हुई सखी, मित्र, प्रेमिका व पत्नी एवं मातृत्व की महानता व दैवीयभाव युत महान व सम्माननीय माँ |

     ऐसे परिवार संतान को क्या देंगे...न संस्कार न मूल्य |  बस अपने ‘स्व’ के लिए जीना, शरीर के लिए, सुख के लिए जीना | धर्म, अध्यात्म, सहिष्णुता, सामाजिकता, संस्कार व आनंद के भाव कहाँ उत्पन्न हो पाते हैं, जो एक अच्छे  नागरिक के लिए आवश्यक हैं | बस समाज एक जंतु-प्राणी की योनि जीता है-भोग व रोग के साथ, द्वंदों- द्वेषों के साथ,  न कि भोग व योग के साथ; समता, सामंजस्य के सौख्य के साथ, आनंद के साथ |  यही तो आज हो रहा है जो नहीं होना चाहिए |
        

8 टिप्‍पणियां:

  1. सटीक प्रस्तुति |
    आभार सर जी ||

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  2. यदि बहू अपने स्व को परिवार के स्व से जोडकर तादाम्यीकरण करती है तो उसे पारिवारिक सुरक्षा व सहृदयता स्वतः प्राप्त होती है| पारिवारिक-जनों का यह दायित्व होता है कि बहू को नए माहौल से प्रेम व आदरपूर्वक परिचित कराया जाए न कि जोर-जबरदस्ती से, ऐंठ-अकड से | नए मेहमान को परिवार में ससम्मान स्वीकृति प्रदान की जाए ताकि वह असुरक्षित अनुभव न करे | यहीं पर घर की स्त्री--सास का महत्वपूर्ण योगदान होता है जो स्वयं भी एक दिन इस नए परिवार में आई थी एवं जीवन के इसी मोड पर थी| अतः उसे बदले हुए देश-कालानुसार व्यवहार करना चाहिए | सास-बहू के रिश्ते पर ही भविष्य के पारिवारिक सुख-समृद्धि की दीवार खड़ी होती है |

    बढ़िया सिमली ,लिविंग टुगेदर की दायित्व ओर देय से जोड़ आपने प्रस्तुत की है .लेख का शुभारम्भ थोड़ा क्लिष्ट जान पड़ा है .अंग्रेजी के समतुल्य भी देवें तो सम्प्रेषण ओर बढे .
    तादात्मय ओर तदानुभूति स्थापित करने के लिए नए परिवेश के साथ स्व :भाव विसर्जन ज़रूरी है .स्वभाव बदल भी .बढ़िया पोस्ट .

    ब्लॉग पे दराल साहब के जाया जाए .
    कृपया यहाँ भी पधारें -
    जिसने लास वेगास नहीं देखा
    जिसने लास वेगास नहीं देखा


    रविकर फैजाबादी
    नंगों के इस शहर में, नंगों का क्या काम ।

    बहु-रुपिया पॉकेट धरो, तभी जमेगी शाम ।

    तभी जमेगी शाम, जमी बहुरुपिया लाबी ।

    है शबाब निर्बंध, कबाबी विकट शराबी ।

    मन्त्र भूल निष्काम, काम-मय जग यह सारा ।
    http://kabirakhadabazarmein.blogspot.com/

    चल रविकर उड़ चलें, घूम न मारामारा ।।

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  3. rajesh kumari ji .post par comment ke liye aabhaar,aapake blog ko dekhane ka awasar mila baareeki se pariwar ko samjhane-samajhane wala post.sadhuwad.

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  4. धन्यवाद, शिखाजी, शालिनी जी, रविकर एवं जोगा सिंह जी.... कुछ तो समझें हम...

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  5. धन्यवाद वीरू भाई जी....विश्लेषणात्मक टिप्पणी हेतु.....
    ----वह तो विषय ही क्लिष्ट है परन्तु सरल बनाकर प्रस्तुत किया गया है...

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