नारी- पुरुष के लिए सांसारिक योग द्वारा ब्रह्म प्राप्ति का साधन है । एक पत्नी कठोरतम मार्गदर्शक
होती है । रूप-गर्व , गर्व, व्यंग्य, कटाक्ष व अपमान द्वारा वह ही पुरुष
के आत्म-तत्व को उद्वेलित, उद्भाषित व प्रकाशित करने में समर्थ है । शायद
गुरु से भी अधिक। वह काली को महाकवि कालिदास, रामबोला को तुलसीदास बना सकती
है।
वस्तुतः
ब्रह्म रूप, पुरुष तो निर्गुण ही होता है। गुण तो शक्ति, प्रकृति, माया या
स्त्री-रूप में ही होते है । अव्यक्त परब्रह्म के व्यक्त रूप-- ब्रह्म या
पुरुष व आदि-शक्ति या प्रकृति-माया में --पुरुष तो निर्गुण होता है परन्तु आदि-शक्ति मूलतः त्रिगुणमयी होती है ...सत, रज, और तम
। आदि-शक्ति जहां प्रत्येक तत्व को ये गुण प्रदान करती है जिससे वह
शक्तिमान होता है, तथा प्रकृति -माया रूप में वह प्रत्येक संसारी रूप-भाव
में ये तीनों गुण उत्पन्न करती है, जो सरस्वती, लक्ष्मी व काली रूप
होते हैं । वहीं नारी रूप में वही रूप-भाव सरस्वती, लक्ष्मी व काली के रूप
में अवस्थित होते हैं जिसके कारण स्त्री अपने विभिन्न मायाभाव प्रकट कर
पाती है, बाह्यांतर या आभ्यंतर रूप-भावों के प्रकटन द्वारा।
ये सत, रज, तम गुण-रूप--शक्ति, प्रकृति या नारी-- सरस्वती, लक्ष्मी व
काली ... निर्गुण परब्रह्म या उसके संसारी रूप 'अर्धनारीश्वर' के नारी-भाग हैं शक्ति भाग हैं जिनके शक्तिमान भाग ...पुरुष भाग से बनते हैं ...ब्रह्मा..विष्णु...शिव
...नियामक, पोषक व संहारक शक्तियुत । मानव ह्रदय- जिसमें प्राणों का बास कहा जाता है.. तीनों भाव युत होता
है--- ह्र = हर = प्राण को हरने वाला...शिव --- द = प्राण देने वाला
अर्थात विष्णु ....य = नियमनकारी = ब्रह्मा । ये तीनों शक्तियां व
शक्तिमान के संतुलन, संयोजन ...मिलन से ही सृष्टि होती है। अतः निश्चय ही
स्त्री-पुरुष का आपसी संयोजन, संतुलन प्रत्येक प्रकार के सृष्टि-भाव के
लिए आवश्यक है ।
परब्रह्म शुद्ध अव्यक्त रूप में निर्गुण होता है, संपूर्ण होता है । यथा ......
"ॐ पूर्णमदं पूर्णमिदं , पूर्णं पूर्णामेव उदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय ,पूर्नामेवावशिष्यते ।"
व्यक्त
व सगुण होने पर.... वे पुरुष व प्रकृति रूप में अपने आप में पूर्ण होते
हैं परन्तु संसारी रूप में --प्रकृति अपने आपमें तो संपूर्ण होती है
परन्तु सृष्टि-भाव हित, जीव रूप में,नारी-भाव में वह अपूर्ण होती है । पुरुष भी सान्सारिक रूप-जीव रूप
में अपने में अपूर्ण होता है। अतः दोनों ही अपनी अपनी अपूर्णता के पूर्णता हित संसारी-योग अर्थात 'स्त्री-पुरुष मिलन ' के लिए आकुल-तत्पर रहते हैं ( सृष्टि के प्रत्येक तत्व में यही आकुलता होती है ) । विवाह इसी कमी के पूरा करने हेतु संकल्प को कहते हैं तभी इसे योग मिलना भी कहा जाता है ।
अतः निश्चय ही विवाह या स्त्री-पुरुष सम्बन्ध, पति-पत्नी सम्बन्ध .... प्रकृति-पुरुष के आपसी सामंजस्य का नाम है ...योग है।
इस योग द्वारा वे एक दूसरे को बाह्य व आतंरिक रूप -भाव में पूर्णता से समझ
पाते हैं । एक दूसरे के समस्त विभिन्न बाह्य व आतंरिक माया के आवरणों को
समझकर , हटाकर विराग मार्ग द्वारा मुक्ति, मोक्ष व अमृतत्व-प्राप्ति तक पहुंचते है और संपूर्ण होकर अपने मूल स्वरुप ब्रह्म को प्राप्त होते हैं ।
संपूर्ण होकर अपने मूल स्वरुप ब्रह्म को प्राप्त होते हैं । shandar post hae bdhai.
जवाब देंहटाएंshodhpoorn v sarthak post .aabhar
जवाब देंहटाएंइस संग्रहणीय पोस्ट के लिए आप प्रशंसा के पात्र हैं । धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सन्गीताजी...शिखाजी एवं प्रेम सरोवर जी...आभार..
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