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मंगलवार, 20 मार्च 2012

’ इन्द्रधनुष’ -- अंक सात ---- स्त्री-पुरुष विमर्श पर ....डा श्याम गुप्त का उपन्यास....

        ’ इन्द्रधनुष’ ------ स्त्री-पुरुष विमर्श पर एक नवीन दृष्टि प्रदायक उपन्यास
 (शीघ्र प्रकाश्य....)....पिछले अंक छः  से क्रमश:......
 
                                                      अंक सात 
                           धीरे धीरे  जब चर्चाएँ गुनगुनाने लगीं तो एक दिन सुमि कहने लगी, 'कोई सफाई नहीं कृष्ण । भ्रम में जीने दो सभी को । परवाह नहीं । अधिकाँश तो बड़ी बड़ी डिग्रियां लेकर अर्थ के पुजारी बनने वाले हैं । प्रेम, मित्रता, जीवन-दर्शन, मूल्य, संस्कृति , कला, सत्य, परमार्थ, साहित्य आदि व्यर्थ हैं , महत्वहीन  हैं उनकी कल्पना में । शायद मैं कुछ स्वार्थी होरही हूँ , तुम्हें यूज़ कर रही हूँ ; पर मेरे विश्वासी राजदार मित्र हो न, तुम्हारे साथ रहते कोई अन्य तो लाइन मार कर बोर नहीं करेगा न ।', वह आँखों में गहराई तक झांकते हुए कहती गयी ।
             मैंने प्रश्नवाचक निगाहों से देखा तो उसने अचानक पूछ लिया, 'कोई गम या अविश्वास मन ही मन ?' 
            ' कभी एसा लगा?' मैंने प्रत्युत्तर में कहा ।
            'नहीं ।
            तो सुनो ,
                                  'ग़म की तलाश कितनी आसान है । सिर्फ ग़मगीन इंसान ही है जो खुदकुशी पर आमादा  होजाता है, वर्ना ये चहचहाते हुए परिंदे, ये लहलहाते हुए फूल अपनी मुख़्तसर सी ज़िंदगी में इतने गमगीन नहीं होते कि खुदकुशी करलें ।'   
           
          ' वाह !  मीनाकुमारी पढ़ रहे हो आजकल ।' 
           'अभी तो सुमित्रा कुमारी पढ़ रहा हूँ ।'
           'हूँ, ......तो सुनो सुमि का लालची आत्म निवेदन ----
                              
                              "  मैं हूँ लालच की मारी, ये पल प्यार के,
                                      चुनके सारे के सारे ही, संसार के,
                                           रखलूँ आँचल में अपने यूं संभाल के ।
                                               चाहती हूँ, कोई लम्हा रूठे नहीं ,
                                                       ज़िंदगी का कोई रंग छूटे नहीं ।।     
                और---
                                        " प्यार का जो खिला है ये इन्द्रधनुष ,
                                                 जो है कायनात पै सारी छाया हुआ।
                                                      प्यार के गहरे सागर में दो छोर पर,
                                                            डूबकर मेरे मन में समाया हुआ ।
                                                                उसके झूले में मैं झूलती हूँ मगन,
                                                                     सुख से लबरेज़ है मेरा मन मेरा तन ।।" 
         
              'वास्तव में  मेरी भी स्वार्थ पूर्ति होती है,  इसमें सुमि ! मैं कहा करता हूँ न कि हम सब कुछ  अपने लिए ही करते हैं ', मैंने कहा।
             ' क्या मतलब ?' 
             'घर वाले शादी की जल्दी नहीं करेंगे । जोर भी नहीं डाल पायेंगे ।' 
             'अच्छा, ये बात ! नहले पै दहला ।'  वह खिलखिलाते हुए बोली, 'चलने दो ।'

                          **                             **                                  **

                                   'बड़ी सुन्दर एतिहासिक इमारत है और नदिया का किनारा, क्या बात है । '  सुमि इमारत के दरवाजे पर  आकर कहने लगी।  तभी सामने से साइकल पर 'अनु' कम्पाउंड के अन्दर आती हुई दिखाई दी । मुझे अचानक सामने देखकर हड़बड़ाहट में  ब्रेक लग जाने से साइकल फिसल गयी ।  मैंने तुरंत उसे उठाते हुए पूछा,  'चोट तो नहीं आई, लाओ देखें ।'  वह झटके से हाथ छुड़ाकर सुमि की और देखती हुई बोली, 'तुम यहाँ ?'
              ' मैं... क्या तुम मुझे जानती हो ?'  मैंने एकदम निर्विकार भाव से पूछा ।
              ' अच्छा शाम को घर आओ, तब  बताती हूँ ।',  'वैसे ये कौन हैं ?'  उसने सुमित्रा की ओर इशारा किया ।
             ' ये डा सुमित्रा और मैं डा कृष्ण गोपाल । हम लोग डाक्टर हैं और मरीज़ ढूँढते रहते हैं ।  तभी तो पूछ रहा हूँ चोट तो नहीं आई,  देखें ।'  मैंने उसका हाथ पकड़ने का उपक्रम करते हुए कहा, ' ये हमारा फ़र्ज़ है न ।'
             अनु ने दूर होते हुए कहा, ' शाम को घर आकर फ़र्ज़ पूरा करना ।' और भुनभुनाते हुए चल दी, फिर मुड़ कर बोली , ' भूल गए हो तो बता देती हूँ, सामने ही है घर मेरा ।'
              ' क्या अधिकार है तुम्हारे ऊपर।  बड़ी प्यारी है, कौन है यह ।' सुमित्रा ने  पूछा।
              'अनु,  अनुराधा, मेरी बचपन की सखी ।'
              क्या बात है,  'लरिकाई कौ प्रेम कहो अलि कैसे छूटै  ।'  बड़े लकी हो तुम तो यार । तुम तो सचमुच ही.....  यारों के यार हो ।' मैंने स्वयं ही वाक्य पूरा किया तो सुमित्रा बोली, ' यस, इन्डीड '...तो यह है वो ।'
             'और तुम क्या हो ?'
             ' मैं तो कुछ भी नहीं हूँ केजी ।'  वह निश्वांस छोड़कर बोली,  'खैर, 'वो '  वो  ही रहेगी या.....????...बात आगे बढ़ेगी तो बहुत अच्छा रहेगा ।'
              ' आकाश-कुसुम ।'
              ' तुम या वह ?'
              ' परिस्थिति, सुमित्रा जी ।  मैं अभी काफी समय तक शादी की नहीं सोचता और अनु के घर वाले तब तक नहीं रुक पायेंगे ।'
              ' यद्यपि उसकी उम्र अधिक नहीं  है पर लगता है बहुत चाहती है तुम्हें ।  यह प्रेम का मामला होता ही एसा है ।'  सुमि बोली ।
              ' प्रेम..... मैंने हंसते हुए कहा ।  प्रेम क्या है, अभी से जानने लगी क्या अनु ?  यह कौतूहल, जिज्ञासा होती है एक आश्चर्यजनक नयी दुनिया के प्रति, विपरीत लिंगी के प्रति ।'
             ' अरे नहीं , केजी ! लड़कियां जल्दी मेच्योर हो जाती हैं।  प्रेम का अर्थ लड़कों से पहले जानने लगती हैं।'
             ' और लड़कों को फंसाकर प्राय: स्वयं फंस जाती हैं और बाद में दोनों ही पछताते हैं ', मैंने कहा  'विवाहेतर संबंधों का एक मूल कारण यह भी है ।  भारतीय समाज में तो  अधिक फर्क नहीं पड़ता था, यहाँ तो अपर-सम्बन्ध खूब चलते हैं और चुपचाप, सतही तौर पर,  मर्यादित -ताकि जिज्ञासा, कौतूहल एवं नयी उम्र की दुनिया से तादाम्य हो सके।  भाभी -देवर, जीजा-साली, सलहज़-जीजा...आदि के हँसीं-ठिठोली के पंजीकृत किन्तु मर्यादित, जाने-माने  भारतीय सन्दर्भ के सम्बन्ध - समाज में विपरीत लिंगी के प्रति आश्चर्य मिश्रित जिज्ञासा का शमन करते हैं और  उदाहरणात्मक व  प्रयोगात्मक सन्दर्भ में एक प्रकार की सेक्स- एज्यूकेशन बनते हैं । परन्तु पश्चिमी जगत में दिखाने को खुले परन्तु वास्तव में अज्ञानपूर्ण विवाहेतर सम्बन्ध खुलेआम व अंतर्संबंध - वासनात्मक ,होकर तनावों को जन्म देते हैं ।'
             ' हूँ....शाम को पेशी है ।' सुमि हंस कर बोली ।
            ' सब होजायगा, डोंट वरी, वह मुझे अच्छी तरह जानती है '  
            ' आई नो.... आई टू नो ।' 
                                
                                           ----अभी बाकी है..... अंक सात  का शेष ...अगली पोस्ट में .....


            
   

5 टिप्‍पणियां:

  1. बढ़िया प्रस्तुति |
    बधाई स्वीकारें ||

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  2. भारतीय समाज में तो अधिक फर्क नहीं पड़ता था, यहाँ तो अपर-सम्बन्ध खूब चलते हैं और चुपचाप, सतही तौर पर, मर्यादित -ताकि जिज्ञासा, कौतूहल एवं नयी उम्र की दुनिया से तादाम्य हो सके। भाभी -देवर, जीजा-साली, सलहज़-जीजा...आदि के हँसीं-ठिठोली के पंजीकृत किन्तु मर्यादित, जाने-माने भारतीय सन्दर्भ के सम्बन्ध - समाज में विपरीत लिंगी के प्रति आश्चर्य मिश्रित जिज्ञासा का शमन करते हैं और उदाहरणात्मक व प्रयोगात्मक सन्दर्भ में एक प्रकार की सेक्स- एज्यूकेशन बनते हैं । परन्तु पश्चिमी जगत में दिखाने को खुले परन्तु वास्तव में अज्ञानपूर्ण विवाहेतर सम्बन्ध खुलेआम व अंतर्संबंध - वासनात्मक ,होकर तनावों को जन्म देते हैं ।'..........वाह पढ़ना शुरू किया तो सोचा थोडा सा पड़कर आगे बढती पर जब तक पूरी कहानी खत्म नहीं कि चैन ही न पड़ा बहुत खूबसूरत कहानी सच्चाई को बयाँ करते हुए बहुत सुन्दर :)

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  3. धन्यवाद मीनाक्षी जी....आगे पढें अगले अन्क में..आभार.

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