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शनिवार, 18 फ़रवरी 2012

एक मुलाकात बस यूंही.....लघु कथा......डा श्याम गुप्त...

             चाचा चल रहे हैं, केबुल लाइन देखने जारहा हूँ किरावली । रास्ते में अपने गाँव रुक जाइए बापस में लेलूंगा । भतीजे संजय  ने अचानक ही पूछा ।
           मैं छुट्टियों में अपने शहर आया हुआ था और हम लोग कई दिन से अपने पैत्रिक  गाँव के बारे में चर्चा कर रहे थे  कि  अचानक संजय ने पूछ लिया ।  
          ठीक है चलते हैं, मैंने कहा।  हम मोटर साइकल पर अपने गाँव को चल दिए जो शहर से लगभग १८ की मी था ।  गाँव पहुँच कर मैंने संजय से कहा, अच्छा तुम अपना काम करके आओ तब तक मैं घूमकर आता हूँ ।
          मैं  घूमता रहा ..मंदिर, खेत ..कुआ..रहंट ..कहीं कहीं नालियों में बहता हुआ ठंडा ठंडा पारदर्शी पानी ..जो आजकल अधिकाँश कुए-रहंट  की बजाय ट्यूब-वैल से पाइपों द्वारा नालियों में भेजा जा रहा था । पोखर के नज़दीक पहुंचकर मैं पुरानी यादों में खोजाता हूँ ..नहर से ...पोखर में धीरे-धीरे आता हुआ पानी  फिर उतरता हुआ पानी.... वर्षा में  पानी व मेढकों से भरा हुआ पोखर, मेढकों को पकड़ते हुए ...टर्र-टर्र की  'धैवत'  ध्वनि के समवेत स्वर में गाते हुए मेढकों का संगीत ...बच्चों का तैरना ..डुबकी लगाना...और पानी पर पत्थरों को तैराने की प्रतियोगिता....पोखर के किनारे चलते चलते  मैं अचानक एक पत्थर उठा कर तेज़ी से पोखर में फैंकता हूँ ...पत्थर तेजी से तैरता सा कुलांचें मारता हुआ दूसरी ओर तक चला जाता है । मैं स्वतः ही मुस्कुराने लगता हूँ । 
            उई ! कौन है रे !  ...अचानक एक तेज़ आवाज से मेरा ध्यान भंग होता है । मैं सर उठाकर दूसरी ओर देखता हूँ । आवाज कुछ जानी पहचानी लगती है । पत्थर तैरता हुआ शायद दूसरी और जाकर किसी किनारे खड़ी हुई महिला को या पानी पीते हुए जानवर को लग गया है ।
               कौन है रे ! जो इतने बड़े होकर भी कंकड़ चला रहे हो पोखर में । तब तक मैं क्षमा-मुद्रा  में आता हुआ...किनारे किनारे चलता हुआ समीप आ पहुंचता हूं । आवाज कुछ और अधिक पहचानी सी लगती है ।
             अरे, तुम हो ! 'बनिया का छोरा ' ! आश्चर्य मिश्रित स्वर में महिला कहने लगी । तुम तो शहर में जाकर डाक्टर बन गए हो । अभी भी पत्थर फैंकते हो पोखर में ..। जानवरों को हड़का दिया न । तुम यहाँ कैसे !
            मैं झेंपते हुए मुस्कुराया ..तो तुम हो..."जाटिनी की छोरी "...
            क्या पुरानी बचपन की याद आगई है ?
            क्यों, क्या तुम्हें नहीं आती ?
            नहीं ।
            मुझे भी नहीं ..... मैंने कहा ।
            तो पत्थर क्यों चला रहे  हो, भूले नहीं हो ।
             क्या ?
            अरे पत्थर चलाना, और क्या ।
             अरे नहीं, बस यूं ही । तुम तो शादी करके, अन्य गाँव चली गयीं थी ।
            क्यों ? क्या तुम चाहते हो कि मैं भैया के घर नहीं आऊँ। कल ही तो आई हूँ अतरसों चली जाऊंगी । सोचा गाय को पानी पिला लाऊँ, पोखर देख आऊँ,पर तुम यहाँ क्या कर रहे हो ?
              क्यों ? क्या तुम चाहती हो कि  मैं तुम्हारे गाँव आऊँ भी नहीं ।
              नहीं, मेरा वो मतलब नहीं। फिर मेरा गाँव क्या ,तुम्हारा भी  तो गाँव है ,रोज आओ।
              तुम रोज आओगी क्या ।
              अब ज्यादा न बोलो, अपना रास्ता नापो ।
              वही तो कर रहा हूँ ।
              'क्या हुआ कम्मो । उसकी तेज आवाज शायद भाभी ने सुन ली थी । कम्मो जल्दी से बोली, ’कुछ नहीं भाभी बस ज़रा पैर फिसलने लगा था ।’
              'इस उम्र में तो पैर संभालकर रखा करो, लाड़ो ।'  भाभी ने हंसते हुए कहा, 'ननदोई जी को क्या जबाव देंगे हम ।' ...कहते कहते सरला भाभी नज़दीक आगई थी । फिर अचानक मुझे सामने देखकर,  झेंपकर चुप होते हुए बोली ,  ' अरे कौन ! रमेश बाबू हैं ......लालाजी  के बेटे । यहाँ कहाँ,  तुम तो सुना है शहर में बड़े डाक्टर होगये हो । ....तो पुरानी मुलाक़ात हो रही थी । वे  भोंहें चढ़ाकर कम्मो की ओर देखते हुए बोलीं ।'
                 अरे भाभी तुम तो बस .......कम्मो बोली ।
                 भाभी मैं एक काम से इधर से गुज़र रहा था तो मैंने सोचा कि अपना गाँव देखता जाऊं, पुरानी यादें ताज़ा करलूं । मुद्दतों बाद तो इधर से गुज़रा हूँ ।
                 अच्छा किया ....अरे ! मेरी तो दाल चूल्हे पर रखी है......चलो कम्मो  जल्दी पानी पिला कर आओ ....कहती हुई वो तेजी से चली गयीं । मुस्कुराती हुई कम्मो पीछे-पीछे गाय को हांकते  हुए चलदी ।     
              

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