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बुधवार, 4 जनवरी 2012

अब क्या करना है |




इत्मिनान से जी लूँ
लिख लूँ कुछ नगमें
जो ज़ज्बात से भरें हों
फिर सोचूँगी की मुझे
अब क्या करना है |

गढ़ लूँ कुछ नये आयाम
सतत बढूँ दीर्घ गूंज से
ले मैं रुख पर नकाब
फिर सोचूँगी की मुझे
अब क्या करना है |

स्मरण कर उन्मुक्त स्वर
स्वछन्द गगन में टहलूं
सहजभाव से स्मृतियों में
कुछ ख्यालों को छुला लूँ
फिर सोचूँगी की मुझे
अब क्या करना है |

महसूस कर लूँ एहसास
तेरे यहाँ आने का
बरस जाये बरखा
सावन भर आये और
तुझसे मिलन हो जाएँ
फिर सोचूँगी की मुझे
अब क्या करना है |
--- दीप्ति शर्मा


5 टिप्‍पणियां:

  1. बरस जाये बरखा
    सावन भर आये और
    तुझसे मिलन हो जाएँ
    फिर सोचूँगी की मुझे
    अब क्या करना है |
    बहुत खूब!
    kalamdaan.blogspot.com

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  2. सजीव अभिव्यक्ति सुन्दर मनोहर .नव वर्ष मुबारक .

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  3. अपने अंतर्मन को कितनी सजीवता से उकेरा है |

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