टीक टीक चलती जनसंख्या की घडी हमें रोज इस बात के लिए आगाह करती है कि बेतहाषा बढती जनसंख्या विस्फोटक की गति को रोक लगाने के लिए राष्ट्ीय परिवार कल्याण कार्यक्रम द्धारा जगह-जगह नियमित नसबंदी षिविर लगाये जाते है।पुरूष और महिला नसबंदी ही एक मात्र परिवार नियोजन का स्थाई समाधान है।
हमारे देष में छोटे परिवार की अवधारणा पर जोर लगाना होगा। ग्रामीण और अनपढ महिलाये नौ महिनों की गर्भावस्था और प्रसव वेदना के बाद षिषु पालन का बोझ जिन्दगी भर उठाती रहती है।अधिकाष करीबन 99प्रतिषत मामलों में महिलाऐ ही नसबंदी ;ट्यूवेक्टामीद्ध कराती है,पुरूष नसबंदी ;वेसेक्टोमीद्ध करीब करीब कम ही देखी जाती है।
अस्पताल में डिलेवरी के बाद चिकित्सक मरिज की रजाबंददी से नसबंदी करते है,जो एक अच्छी बात है, जबकि पुरूष कभी भी नसबंदी के लिए राजी नही होते है,वे महिलाओं को आगे धकेल देते है कि बच्चा पैदा करना पत्नि का काम है अतः बच्चे पैदा करने वाली फैक्ट्ी पर नसबंदी रूपी ताला लगा दिया जाना ही परिवार नियोजन है और यह काम पत्नि का है।
जहां एक और महिलाओं के षरीर की रचना जटिल होती है।अधिकाष महिलाए जनन मू़त्र संस्थान के संक्रमण, ल्युकोरिया, एनिमिया और आॅस्टियोपोरोसिस से ग्रसित होती है।ऐसी स्थिति में उनको उनका बच्चा जनने का दायित्व बताकर नसबंदी कराइ्र्र जाती है।पुरूष प्रधान समाज में महिलाए आम तौर पर चुुपचाप यह स्वीकार कर आॅपरेषन करा लेती है क्योंकि नसबंदी न कराने पर गर्भवती होने का व प्रसव पीडा पुनः भोगने का डर उसे हमेषा बना रहता है।महिला न कराती है तो उसे गृह कलह का भी सामना करना पडता है। ऐसी विडम्बना में नारी के पास एक ही उपाय है कि वह सर्मपण कर दे और अपनी नसबंदी करा दे।
जबकि इसके विपरित पुरूष अपनी नसबंदी नही करवाकर अपनी स्वेच्छा से सभी आनन्द लेना चाहता,उसको यह मिथ्या गुमान रहता है कि बच्चे पैदा करने का काम महिलाओं का ही है जब की वह पूर्ण रूप से बीजारोपण का जिम्मेदार वह स्वयं है, अतः दोनो की समान भागीदारी आन पडती है ऐसे में इस तरह के कुठित विचारो से समाज मे इस कार्यक्रम के प्रति अलग ही नजरिया बन गया है ।कई पुरूष यह सोचते है कि नसबंदी कराने से उनकी मर्दानगी चली जायेगी और यौन क्षमता क्षीण हो जायेगी, जबकि वैज्ञानिक दृष्टि से पुरूष नसबंदी कुछ ही मिनटो का आउटडोर प्रोसिजर है।आजकल बीना टीका लगाये पुरूष नसबंदी होने का प्रचलन बन गया है। जो कोई भी पुरूष चलते फिरते कभी भी करा सकता है। इसे चिकित्सक लंच ब्रेक आपरेषन भी कहते है।
परिवार की खुषहाली के लिए पति-पत्नि दोनों का समान अधिकार है तथा वे दोनो ही संयुक्त रूप से जिम्मेदार है।पुरूष नसबंदी बहुत ही सरल,सुलभ और व्यवहारिक आॅपरेषन है,ऐसे में महिलाओं को आगे नसबंदी कराने धकेल देना कहा तक न्याय संगत है।
प्रषेकः-
श्रीमति भुवनेश्वरी मालोत
महादेव कालोनी
बासवाडा;राज
हमारे देष में छोटे परिवार की अवधारणा पर जोर लगाना होगा। ग्रामीण और अनपढ महिलाये नौ महिनों की गर्भावस्था और प्रसव वेदना के बाद षिषु पालन का बोझ जिन्दगी भर उठाती रहती है।अधिकाष करीबन 99प्रतिषत मामलों में महिलाऐ ही नसबंदी ;ट्यूवेक्टामीद्ध कराती है,पुरूष नसबंदी ;वेसेक्टोमीद्ध करीब करीब कम ही देखी जाती है।
अस्पताल में डिलेवरी के बाद चिकित्सक मरिज की रजाबंददी से नसबंदी करते है,जो एक अच्छी बात है, जबकि पुरूष कभी भी नसबंदी के लिए राजी नही होते है,वे महिलाओं को आगे धकेल देते है कि बच्चा पैदा करना पत्नि का काम है अतः बच्चे पैदा करने वाली फैक्ट्ी पर नसबंदी रूपी ताला लगा दिया जाना ही परिवार नियोजन है और यह काम पत्नि का है।
जहां एक और महिलाओं के षरीर की रचना जटिल होती है।अधिकाष महिलाए जनन मू़त्र संस्थान के संक्रमण, ल्युकोरिया, एनिमिया और आॅस्टियोपोरोसिस से ग्रसित होती है।ऐसी स्थिति में उनको उनका बच्चा जनने का दायित्व बताकर नसबंदी कराइ्र्र जाती है।पुरूष प्रधान समाज में महिलाए आम तौर पर चुुपचाप यह स्वीकार कर आॅपरेषन करा लेती है क्योंकि नसबंदी न कराने पर गर्भवती होने का व प्रसव पीडा पुनः भोगने का डर उसे हमेषा बना रहता है।महिला न कराती है तो उसे गृह कलह का भी सामना करना पडता है। ऐसी विडम्बना में नारी के पास एक ही उपाय है कि वह सर्मपण कर दे और अपनी नसबंदी करा दे।
जबकि इसके विपरित पुरूष अपनी नसबंदी नही करवाकर अपनी स्वेच्छा से सभी आनन्द लेना चाहता,उसको यह मिथ्या गुमान रहता है कि बच्चे पैदा करने का काम महिलाओं का ही है जब की वह पूर्ण रूप से बीजारोपण का जिम्मेदार वह स्वयं है, अतः दोनो की समान भागीदारी आन पडती है ऐसे में इस तरह के कुठित विचारो से समाज मे इस कार्यक्रम के प्रति अलग ही नजरिया बन गया है ।कई पुरूष यह सोचते है कि नसबंदी कराने से उनकी मर्दानगी चली जायेगी और यौन क्षमता क्षीण हो जायेगी, जबकि वैज्ञानिक दृष्टि से पुरूष नसबंदी कुछ ही मिनटो का आउटडोर प्रोसिजर है।आजकल बीना टीका लगाये पुरूष नसबंदी होने का प्रचलन बन गया है। जो कोई भी पुरूष चलते फिरते कभी भी करा सकता है। इसे चिकित्सक लंच ब्रेक आपरेषन भी कहते है।
परिवार की खुषहाली के लिए पति-पत्नि दोनों का समान अधिकार है तथा वे दोनो ही संयुक्त रूप से जिम्मेदार है।पुरूष नसबंदी बहुत ही सरल,सुलभ और व्यवहारिक आॅपरेषन है,ऐसे में महिलाओं को आगे नसबंदी कराने धकेल देना कहा तक न्याय संगत है।
प्रषेकः-
श्रीमति भुवनेश्वरी मालोत
महादेव कालोनी
बासवाडा;राज
बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी आपने उपलब्ध कराइ है पर विडंबना ये है कि अब्बल तो इसे पढेगे ही नहीं
जवाब देंहटाएंपढ़ ही लिया तो मानता कौन है महिलाओं को अपने हक के लिए सदा ही लड़ना पड़ता है ..ये तो एक सतत क्रम है कोई उपय नहीं .....
Nice .
जवाब देंहटाएंhttp://www.facebook.com/pages/vedquran/169900346384691
आपका पोस्ट अच्छा लगा । मेरे नए पोस्ट उपेंद्र नाथ अश्क पर आपके प्रतिक्रियाओं की आतुरता से प्रतीक्षा रहेगी । धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंहाँ कुछ अंधविश्वास .कुछ अज्ञानता .नपुंसक कहे समझे जाने का काल्पनिक भय भी पुरुष को नसबंदी करवाने में प्रतिरोधी साबित होता है .जबकि यह एक रिवार्सिबिल प्रोसीज़र है .नासन की गठान खोली जा सकतीं हैं ज़रुरत के मुताबिक़ .महिला को ही आखिर में प्रसव वेदना झेलनी पडती है परवरिश भी उसी के जिम्मे कमोबेश आती है प्रतिबद्ध रुढी- बद्ध सामाजिक परतों में .इसलिए नलबंदी (त्युबकतमी )कुछ तो राहत देती ही है महिला को जो प्रसव के फ़ौरन बाद भी लगे हाथ करवाई जा सकती है .
जवाब देंहटाएंएक पक्ष और है नस बंदी करवा चुका पुरुष छुट्टा घूम सकता है .भरोसे का आदमी नहीं रहता .
और बदलाव के साथ ये बदलाव भी जरुरी है.......पर उसके लिए लिए सबसे पहली जरुरत है मानसिकता का खुला होना,और जो पुरुष ये समझता है वो आगे भी आता है, पर कुछ सामाजिक रूढ़ियाँ और लोगों की अनर्गल बातें ऐसा करने से रोकती हैं..........
जवाब देंहटाएं---बहुत सही कहा गया है..हां वर्तनी की अशुद्धियां खटकती हैं.....
जवाब देंहटाएं---और नसबन्दी कराने वाली महिला का क्या भरोसा....यह तो उभयपक्षीय बात है...
-- सारी बात तो मानसिकता की ही है...
Happy new year. sub ko aabhar
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