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शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

महिमामयी.......कविता ...डा श्याम गुप्त ...

कितनी  गरिमामयी हो गयी हो, तुम ,
कितनी महिमामयी होगई हो, तुम ;
नारीत्व का उच्चतम रूप पाकर |
मातृत्व की महान पदवी,
नारी जीवन की चिर आकांक्षा ,          
विश्व की किसी भी-
"पद्मश्री"   से बढ़ कर है |

यह उपनिषद् के  महान मन्त्र  को ,
जीवन के  महान सत्य को,
सबसे उज्जवलतम रूप में,
प्रस्तुत करती है,  जहां--
आत्म से आत्म मिलकर,
आत्ममय होजाता है ; और--
पुनः आत्म से --
नए आत्म का जन्म होता है ;
आत्म फिर भी आत्म रहता है |
यथा --पूर्ण से पूर्ण मिलकर ,
पूर्ण ही रहता है |
पूर्ण  से पूर्ण घटने पर भी-
पूर्ण ही शेष रहता है |

ब्रह्म सदैव पूर्ण है  |
आत्म सदैव पूर्ण है |
जीव से मिलने से पहले भी,
जीव से मिलने के बाद भी ;
जीव स्वयं पूर्ण है |

अतः --पूर्णाहुति के बाद भी ,
वही पूर्ण रहकर,
कितनी गरिमामयी होगई हो तुम |
कितनी महिमामयी होगई हो तुम |
कितनी  सम्पूर्ण  होगई  हो तुम  ||               (---काव्य दूत से )

4 टिप्‍पणियां:

  1. नारी का पुत्री जनम, सहज सरलतम सोझ |
    सज्जन रक्षे भ्रूण को, दुर्जन मारे खोज ||

    नारी बहना बने जो, हो दूजी संतान
    होवे दुल्हन जब मिटे, दाहिज का व्यवधान ||

    नारी का है श्रेष्ठतम, ममतामय अहसास |
    बच्चा पोसे गर्भ में, काया महक सुबास ||





    दस शिक्षक के तुल्य है, इक आचार्य महान |
    सौ आचार्यों से बड़ा, पिता तुम्हारा जान ||

    और हजारों गुनी है, इक माता की शान |
    उनकी शिक्षा सर्वदा, उत्तम और महान ||

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  2. धन्यवाद रविकर--आप तो दोहाचार्य बनते जारहे हैं...बधाई..
    ---धन्यवाद..मनीष जी,शिखाजी

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