अमृता जी का पुराना घर जिसकी नेम प्लेट उनकी कलात्कता को दर्शाती है
हरकीरत हीर जी के ब्लाग से पता चला कि अमृता जी का हौज खास वाला घर बिक गया है। विस्तार से पढने पर जाना घर बिका ही नहीं घूल घूसरित भी हो चुका है। इमरोज जी ने इस बात की दिलासा दी है कि अमृता जी की यादों से जुडी तस्बीरें और अन्य सारी चीजें वे अपने साथ ले जाये है साथ ही मकान को बेचने का कारण बच्चों को पैसे की जरूरत बताया।
वाह रे इमरोज! पैसों की चाहे जैसी भी जरूरत क्यों न रही हो , अमृता जी से जुडी से जुडी इस विरासत को बेचने में तुम्हे कोई तकलीफ नहीं हुयी? फिर तुम कैसे दावा करते थे कि अमृता तो अब भी इसी घर में बसती है और वह तुम्हारे लिये मरी नहीं है।तुमने साबित कर दिया है कि तुमने हमेशा अमृताजी का उपयोग स्वार्थ के लिये ही किया। चाहे वे जीवित रही हों या अब उनके मरने के बाद ।
अमृताजी की तस्बीरो की नुमाइश लगा बैठे ये हैं इमरोज
अपनी जीवनी में अमृता जी के द्वारा लिखे हुये शब्द यह हकीकत खुद ही बयाँ कर रहे हैं
......
1964 में जब इमरोज ने हौज खास में रहने के लिये पटेलनगर का मकान छोडा था तब अपने नौकर की आधी तनख्वाह देकर उसके पास एक सौ और कुछ रूपये बचे थे । पर उन दिनो उसने एक एडवरजाइजिंग फर्म में नौकरी कर ली थी, बारह तेरह सौ वेतन था, इसलिये उसे कोई चिंता भी नहीं थी। पर एक दिन - दो तीन महीने बाद - उसने लाउड-थिंकिंग के तौर पर मुझसे कहा था -‘मेरा जी करता है, मेरे पास इस हजार रूपया हो, ताकि जब भी जी में आये नौकरी छोड सकूँ।’ मंहगाई बढ रही थी पर इसकी कही हुयी बात , मेरा जी करता था पूरी हो जाय।
तुम्हे याद होगा इमरोज कि तुम्हारी इस ख्वाइश को पूरा करने में तब भी अमृता जी ने तुम्हारी मदद की थी और ग्रीन पार्क में किराये का मकान लेकर बाटिक का तजुर्बा शुरू किया था और इसका हश्र पुनः यहाँ लिखने की जरूरत नहीं है।
आज अमृता जी को बिदा हुये छः बरस पूरे हो चुके है तो फिर बच्चों को पैसे की जरूरत के नाम पर हौज खास के मकान का सौदा करने में भी तुम्हे कोई हिचक नहीं हुयी?
तुम कैसे परजीवी हो इमरोज जो अमृता की मौत के बाद भी विरासत के रूप में छोडे गये उसके घर पैसे की जरूरत के नाम पर बेच सकते हो।
और यह रही धूल धूसरित मकान की आज की सूरत
वाह रे इमरोज! मेरे पास शब्द नहीं है पंजाब की संस्कृतिक विभाग और तुम्हें कोसने के लिये। कोई भी जरूरत सांस्कृतिक विरासत से बडी नहीं हो सकती।
आदरणीय इमरोज जी आप मुन्शी प्रेमचन्द्र का लमही हो या सुमित्रानंदन पंत का कौसानी कभी देखना जाकर इन जगहों को कैसे रहेजकर रखी गयी हैं इन साहित्यकारों से जुडी वस्तुये और उनके निवास स्थान को?
आदरणीय इमरोज जी आप अमृता जी के सच्चे दोस्त तो नहीं अमृता के नाम पर जीने वाले सच्चे परजीवी अवश्य साबित हुये हो सो आपसे क्या उम्मीद करूँ? मुझे तो लगता है कि आप कल अमृता जी से जुडी वस्तुओं की नीलामी करते हुये भी नजर आ सकते हैं। इसलिये अमृताजी के नाम पर चलने वाली अनेक संस्थाओं तथा इनसे जुडे तथाकथित साहित्यिक लोगों से उम्मीद करूँगा कि वे आगे आकर हौज खास की उस जगह पर बनने वाली बहु मंजिली इमारत का एक तल अमृताजी को समर्पित करते हुये उनकी सांस्कृतिक विरासत को बचाये रखने के लिये कोई अभियान अवश्य चलायें। पहली पहल करते हुये भारत के राष्ट्रपति और पंजाब सरकार के संस्कृति सचिव को मै इस संदर्भ में एक पत्र अवश्य भेज रहा हुँ।
एक पहल आप भी अवश्य करें!!
महामहिम राष्ट्रपति जी का लिंक यहां है । कृपया एक पहल आप भी अवश्य करें!!!!
प्रिय अशोक शुक्ल जी सच में बड़ी चिंता का विषय है तो दर्शाता है हमारे यहाँ कवि लेखकों और साहित्यकारों का क्या मोल है कितना आदर रखते हैं सब ...
जवाब देंहटाएंकाश ये कहानी उनके गले उतरे..स्वार्थ की हद आज नहीं ...
भ्रमर ५
बहुत ही आपत्तिजनक कार्य। निन्दनीय।
जवाब देंहटाएंआपका पोस्ट अच्छा लगा ।मेरे नए पोस्ट पर आप आमंत्रित हैं । धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंताउम्र, जो साहित्य की आराधना करते रहें।
जवाब देंहटाएंक्यूँ भूल जाती हैं उन्हें, सरकार और सोसायटी।।
दुखद..............
अफ़सोसनाक!!!
जवाब देंहटाएंदुखद घटना,ईश्वर कृपा करे !
जवाब देंहटाएंअफसोसजनक कृत्य !!
जवाब देंहटाएंकोई भी जरूरत सांस्कृतिक विरासत से बडी नहीं हो सकती।दुखदकृत्य !!
जवाब देंहटाएंये बात मुझे भी खट्की थी मगर मै चुप रही………हरकीरात जी की भावनाये मै समझती हूँ उन्हे कितना दुख हुआ जानती हूँ मगर इमरोज जी की ये हरकत तो मुझे भी नागवार गुजरी कि कैसी मोहब्बत? क्या यही होती है मोहब्बत? या शायद मोहब्बत को उसने जाना ही नही या सिर्फ़ पैसे से बढकर कुछ नही होता साबित कर दिया…………लेकिन सुना है प्यार का दावा करने वाले तो खुद मिट जाते है मगर अपनी मोहब्बत को कभी नही मिटने देते…………लगता है सब सिर्फ़ किताबी रह गया है …………हकीकत मे मोहब्बत का शायद कोई वजूद ही नही होता………इसीलिये मैने वहाँ ये कमेंट किया था ----------
जवाब देंहटाएंसुलगती आग पर रोटियाँ तो सभी सेंक लेते हैं
कभी राख पर कोशिश करके देखी होती
हर जर्रे मे सिर्फ़ अमृता दिख रही होती…………
जिस्म गया, जान गयी ,रूह गयी
अब ईंट- पत्थरों को समेटने से क्या होगा
मै तो फ़िज़ा के जर्रे जर्रे मे बिखर गयी
अब मिट्टी को खंगालने से क्या होगा
यादों को... विरासत के संवंर्धन की दिशा में काम होना चाहिए।
जवाब देंहटाएंसार्थक लेखन।
क्या कवि- साहित्यकार ...नाम, याद रखे जाने के लिये लिखते हैं...क्या कभी किसी साहित्य्कार ने स्वयं यह कहा ?????
जवाब देंहटाएं- यह ओछी मनोव्रित्ति आज के व्यापारी साहित्य्कार की है....क्या प्रेम्चन्द या अम्रता का मकान नष्त होजाने से समाज में उनकी मौजूदगी उनका काल्जयी साहित्य नष्ट होजायगा ??????
---छोडये ये व्यर्थ की बातें ....साहित्य रचिये...कहिये ...छपवाइये.....बिना किसी भी लाभ की सोच के...
---वैसे ये अम्रता--इमरोज़ है कौन....?