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गुरुवार, 21 जुलाई 2022

दहेज - इकलौती पुत्री की आग की सेज

 


 एक ऐसा जीवन जिसमे निरंतर कंटीले पथ पर चलना और वो भी नंगे पैर सोचिये कितना कठिन होगा पर बेटी ऐसे ही जीवन के साथ इस धरती पर आती है .बहुत कम ही माँ-बाप के मुख ऐसे होते होंगे जो ''बेटी पैदा हुई है ,या लक्ष्मी घर आई है ''सुनकर खिल उठते हों .
  'पैदा हुई है बेटी खबर माँ-बाप ने सुनी ,
                उम्मीदों का बवंडर उसी पल में थम गया .''

बचपन से लेकर बड़े होने तक बेटी को अपना घर शायद ही कभी अपना लगता हो क्योंकि बात बात में उसे ''पराया धन ''व् ''दूसरे  घर जाएगी तो क्या ऐसे लच्छन [लक्षण ]लेकर जाएगी ''जैसी उक्तियों से संबोधित कर उसके उत्साह को ठंडा कर दिया जाता है .ऐसा नहीं है कि उसे माँ-बाप के घर में खुशियाँ नहीं मिलती ,मिलती हैं ,बहुत मिलती हैं किन्तु ''पराया धन '' या ''माँ-बाप पर बौझ '' ऐसे कटाक्ष हैं जो उसके कोमल मन को तार तार कर देते  हैं .ऐसे में जिंदगी गुज़ारते गुज़ारते जब एक बेटी और विशेष रूप से इकलौती बेटी का ससुराल में पदार्पण होता है तब उसके जीवन में और अधिकांशतया  इकलौती पुत्री के जीवन में उस दौर की शुरुआत होती है जिसे हम अग्नि-परीक्षा कह सकते हैं .
               एक तो पहले ही बेटे के परिवार वाले बेटे पर जन्म से लेकर उसके विवाह तक पर किया गया खर्च बेटी वाले से वसूलना चाहते हैं उस पर यदि बेटी इकलौती हो तब तो उनकी यही सोच हो जाती है कि वे अपना पेट तक काटकर उन्हें दे दें .इकलौती बेटी को बहू बनाने  वाले एक परिवार के  सामने जब बेटी के पिता के पास किसी ज़मीन के 10-12 लाख रूपए आये तो उनके लालची मन को पहले तो ये हुआ कि ये  अपनी बेटी को स्वयं देगा और जब उन्होंने कुछ समय देखा कि बेटी को उसमे से कुछ नहीं दिया तो कुछ समय में ही उन्होंने अपनी बहू को परेशान करना शुरू कर दिया.हद तो यह कि बहू के लिए अपने बेटे से कहा ''कि इसे एक बच्चा गोद में व् एक पेट में डालकर इसके बाप के घर भेज दे .''उनके मन कि यदि कहूं तो यही थी कि बेटी का होना इतना बड़ा अपराध था जो उसके मायके वालों ने किया था कि अब बेटी की शादी के बाद वे पिता ,माँ व् भाई बस बेटी के ससुराल की ख़ुशी ही देख सकते थे और वह भी अपना सर्वस्व अर्पण करके.
     एक मामले में पांच भाइयों की अकेली बहन को दहेज़ की मांग के कारण बेटे के पास न भेजकर सास ने  अपनी ही सेवा में रखा जबकि सास कि ऐसी कोई स्थिति  नहीं थी कि उसे सेवा करवाने की आवश्यकता हो.ऐसा नहीं कि इकलौती बेटी के साथ अन्याय केवल इसी हद तक सीमित रहता हो बेटे वालों की भूख बार बार शांत करने के बावजूद बेटी के विवाह में 12  लाख रूपए जेवर और विवाह के बाद बेटी की ख़ुशी के लिए फ्लैट देने के बावजूद इकलौती बेटी को सोने का अंडा देने वाली मुर्गी समझा जाता है और उच्च शिक्षित होते हुए भी उसके माँ-बाप ससुराल वालों के आगे लाचार से फिरते हैं और उन्हें बेटी के साथ दरिंदगी का पूरा अवसर देते हैं और ये दरिंदगी इतनी हद तक भी बढ़ जाती है कि या तो उसे मौत के घाट उतार दिया जाता है या वह स्वयं ही मौत को गले लगा लेती है क्योंकि एक गुनाह तो उसके माँ-बाप का है कि उन्होंने बेटी पैदा की और दूसरा गुनाह जो कि सबसे बड़ा है कि वह ही वह बेटी है.
                 इस तरह माँ-बाप के घर नाजुक कली से फूल बनकर पली-बढ़ी इकलौती बेटी जिसे इकलौती होने के कारण अतुलनीय स्नेह प्राप्त होता है ससुराल में आकर घोर यातना को सहना पड़ता है .हमारा दहेज़ कानून दहेज़ के लेन-देन को अपराध घोषित करता है किन्तु न तो वह दहेज़ का लेना रोक सकता है न ही देना क्योंकि हमारी सामाजिक परम्पराएँ हमारे कानूनों पर आज भी हावी हैं .स्वयं की बेटी को दहेज़ की बलिवेदी पर चढाने वाले माँ-बाप भी अपने बेटे के विवाह में दहेज़ के लिए झोले लटकाए घूमते हैं .जिस तरह दहेज़ के भूखे भेड़िये निंदा के पात्र हैं उसी तरह सामाजिक बहिष्कार के भागी हैं दहेज़ के दानी जो इनके मुहं पर दहेज़ का खून लगाते हैं और अपनी बेटी के लिए आग की सेज सजाते हैं .
                शालिनी कौशिक
                    एडवोकेट 



मंगलवार, 19 जुलाई 2022

नारी......... का नाम

 





निकल जाओ मेरे घर से

एक पुरुष का ये कहना

अपनी पत्नी से

आसान

बहुत आसान

किन्तु

क्या घर बनाना

उसे बसाना

सीखा कभी

पुरुष ने

पैसा कमाना

घर में लाना

क्या मात्र

पैसे से बनता है घर

नहीं जानता

घर

ईंट सीमेंट रेत का नाम नहीं

बल्कि

ये वह पौधा

जो नारी के त्याग, समर्पण ,बलिदान

से होता है पोषित

उसकी कोमल भावनाओं से

होता पल्लवित

पुरुष अकेला केवल

बना सकता है

मकान

जिसमे कड़ियाँ ,सरिये ही

रहते सिर पर सवार

घर

बनाती है नारी

उसे सजाती -सँवारती है

नारी

उसके आँचल की छाया

देती वह संरक्षण

जिसे जीवन की तप्त धूप

भी जला नहीं पाती है

और नारी

पहले पिता का

फिर पति का

घर बसाती जाती है

किन्तु न पिता का घर

और न पति का घर

उसे अपना पाता

पिता अपने कंधे से

बोझ उतारकर

पति के गले में डाल देता

और पति

अपनी गर्दन झुकते देख

उसे बाहर फेंक देता

और नारी

रह जाती

हमेशा बेघर

कही जाती

बेचारी

जिसे न मिले

जगह उस बगीचे में

जिसकी बना आती वो क्यारी- क्यारी .


शालिनी कौशिक
एडवोकेट 


रविवार, 17 जुलाई 2022

बेटी को इंसाफ़ - मरने से पहले या मरने के बाद

 


   '' वकील साहब '' कुछ करो ,हम तो लुट  गए ,पैसे-पैसे को मोहताज़ हो गए ,हमारी बेटी को मारकर वो तो बरी हो गए और हम .....तारीख दर तारीख अदालत के सामने गुहार लगाने के बावजूद कुछ नहीं कर पाए ,क्या वकील साहब अब कहीं इंसाफ नहीं है ? " रोते रोते उसने मेरे सामने अपनी बहन की दहेज़ हत्या में अदालत के निर्णय पर नाखुशी ज़ाहिर करते हुए फूट-फूटकर रोना आरम्भ कर दिया ,मैंने मामले के एक-एक बिंदु के बारे में उससे समझा-बुझाकर जानने की कोशिश की. किसी तरह उसने अपनी बहन की शादी से लेकर दहेज़-हत्या तक व् फिर अदालत में चली सारी कार्यवाही के बारे में बताया ,वो बहन के पति व् ससुर को ,पुलिस वालों को ,अपने वकील को ,निर्णय देने वाले न्यायाधीश को कुछ न कुछ कहे जा रहा था और रोये जा रहा था और मुझे गुस्सा आये जा रहा था उसकी बेबसी पर ,जो उसने खुद ओढ़ रखी थी .             जो भी उसने बताया ,उसके अनुसार ,उसकी बहन को उसके पति व् ससुर ने कई बार प्रताड़ित कर घर से निकाल दिया था और तब ये उसे उसकी विनती पर घर ले आये थे ,फिर बार-बार पंचायतें कर उसे वापस ससुराल भेजा जाता रहा और उसका परिणाम यह रहा कि एक दिन वही हो गया जिसका सामना आज तक बहुत सी बेटियों-बहनो को करना पड़ा है और करना पड़ रहा है .             ''दहेज़ हत्या'' कोई एक दिन में ही नहीं हो जाती उससे पहले कई दिनों,हफ्तों,महीनो तो कभी सालों की प्रताड़ना लड़की को झेलनी पड़ती है और बार बार लड़के वालों की मांगों का कटोरा उसके हाथों में दे ससुराल वालों द्वारा उसे मायके के द्वार पर टरका दिया जाता है जैसे वह कोई भिखारन हो और मायके वालों द्वारा, जिनकी गोद में वो खेल-कूदकर बड़ी हुई है ,जिनसे यदि अपना पालन-पोषण कराया है तो उनकी अपनी हिम्मत से बढ़कर सेवा-सुश्रुषा भी की है,भी कोई प्यार-स्नेह का व्यव्हार उसके साथ नहीं किया जाता ,समाज के विवाह की अनिवार्यता के नियम का पालन करते हुए जैसे-तैसे बेटी का ब्याह कर उसके अधिकांश मायके वाले उसके विवाह पर उसकी समस्त ज़िम्मेदारियों से मुक्ति मान लेते हैं और ऐसे में अगर उसके ससुराल वाले ,जो कि उन मायके वालों ने ही चुने हैं न कि उनकी बेटी ने ,अपनी कोई अनाप-शनाप ''डिमांड'' रख उनकी बेटी को ही उनके घर भेज देते हैं तो वह उनके लिए एक आपदा सामान हो जाती है और फिर वे उससे मुक्ति का नया हथियार उठाते हैं और ससुराल वालों की मांग कभी थोड़ी तो कभी पूरी मान ''कुत्ते के मुंह में खून लगाने के समान ''अपनी बेटी को फिर बलि का बकरा बनाकर वहीँ धकिया देते हैं .               वैसे जैसे जैसे हमारा समाज विकास कर रहा है कुछ परिवर्तन तो आया है किन्तु इसका बेटी को फायदा अभी नज़र नहीं आ रहा है क्योंकि मायके वालों में थोड़ी हिम्मत तो अब आयी है .उन्होंने अब बेटी पर ससुराल में हो रहे अत्याचारों के खिलाफ आवाज़ उठानी तो अब शुरू की है जबकि पहले बेटी को उसकी ससुराल में परेशान होते हुए जानकर भी वे इसे बेटी की और घर की बदनामी के रूप में ही लेते थे और चुपचाप होंठ सीकर बेटी को ससुरालियों की प्रताड़ना सहने को मजबूर करते थे और इस तरह अनजाने में बेटी को मारने में उसके ससुरालियों का सहयोग ही करते थे ,कर तो आज भी वैसे वही रहे हैं बस आज थोड़ा बदलाव है अब लड़की वालों व् ससुरालवालों के बीच में कहीं पंचायतें हैं तो कहीं मध्यस्थ हैं और दोनों का लक्ष्य वही ....लड़की को परिस्थिति से समझौता करने को मजबूर करना और उसे उस ससुराल में मिल-जुलकर रहने को विवश करना जहाँ केवल उसका खून चूसने -निचोड़ने के लिए ही पति-सास-ससुर-ननद-देवर बैठे हैं .               आज इसी का परिणाम है कि जो लड़की थोड़ी सी भी अपने दम पर समाज में खड़ी है वह शादी से बच रही है क्योंकि घुटने को वो,मरने को वो ,सबका करने को वो और उसको अगर कुछ हो जाये तो कोई नहीं ,न मायका उसका न ससुराल ,ससुरालियों को बहू के नाम पर केवल दौलत प्यारी और मायके वालों को बेटी के नाम पर केवल इज़्ज़त...प्यारी...ससुरालिए तो पैसे के नाम पर उसे उसके मायके धकिया देंगे और मायके वाले उसे मरने को ससुराल ,कोई उसे रखने को तैयार नहीं जबकि कहने को ''नारी हीन घर भूतों का डेरा ,यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते,रमन्ते तत्र देवता '' ऐसे पवित्र वाक्यों को सभी जानते हैं किन्तु केवल परीक्षाओं में लिखने व् भाषणों  में बोलने के लिए ,अपने जीवन में अपनाने के लिए नहीं .                       बेटी को अगर ससुराल में कुछ हो जाये तो उसके मायके वाले दूसरों को ही कोसते हैं जो कि बहुत आसान है क्यों नहीं झांकते अपने गिरेबान में जो उनकी असलियत को उनके सामने एक पल में रख देगा .भला कोई बताये ,पति हो,सास हो ,ससुर हो,ननद-देवर-जेठ-पुलिस-वकील-जज कौन हैं ये आपकी बेटी के ? जब आप ही अपनी बेटी को आग में झोंक रहे हैं तो इन गैरों पर ऐसा करते क्या फर्क पड़ता है ? पहले खुद तो बेटी-बहन के प्रति इंसाफ करो तभी दूसरों से इंसाफ की दरकार करो .शादी करना अच्छी बात है लेकिन अगर बेटी की कोई गलती न होने पर भी ससुराल वाले उसके साथ अमानवीय बर्ताव करते हैं तो उसका मायका तो उससे दूर नहीं होना चाहिए ,कम से कम बेटी को ऐसा तो नहीं लगना चाहिए कि उसका इस दुनिया में कोई भी नहीं है .केवल दहेज़ हत्या हो जाने के बाद न्यायालय की शरण में जाना तो एक मजबूरी है ,कानून ने आज बेटी को बहुत से अधिकार दिए हैं लेकिन उनका साथ वो पूरे मन से तभी ले सकती है जब उसके अपने उसके साथ हो .अब ऐसे में एक बाप को ,एक भाई को ये तो सोचना ही पड़ेगा कि इन्साफ की ज़रुरत बेटी को कब है -मरने से पहले या मरने के बाद ?

शालिनी कौशिक 

      एडवोकेट