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बुधवार, 24 अक्टूबर 2018

Safety guide for women -Sara Levavi - Eilat

आज EMMA का मेल प्राप्त हुआ जिसमें उन्होंने भारतीय नारी ब्लॉग की प्रशंसा की व ""  THE EMPOWERING INTERNET SAFETY GUIDE FOR WOMEN "" को आपके इस ब्लॉग पर साझा करने का निवेदन किया. हार्दिक धन्यवाद EMMA ब्लॉग अवलोकन हेतु व सार्थक निवेदन हेतु.
https://www.vpnmentor.com/blog/the-empowering-internet-safety-guide-for-women/

-डॉ शिखा कौशिक नूतन 

रविवार, 14 अक्टूबर 2018

मैं नारी हूँ मैं शक्ति हूँ

मैं सबला हूं पर अबला नहीं ,
मेरी शक्ति का तुम्हें भान नहीं। 

तुम जीत नहीं सकते मुझको, 
तुम हरा नहीं सकते मुझको। 

मैं सहती हूं पर कमजोर नहीं, 
मैं सुनती पर मजबूर नहीं । 

तुम भ्रम में जीवन जीते हो, 
मन ही मन खुश होते हो 

मेरे सब्र का प्याला छलकेगा, 
मेरा रौद्र रुप तब झलकेगा। 

तब मैं दुर्गा बन जाऊंगी, 
या फिर काली कहलाऊंगी। 

मैं स्वाभिमान की छाया हूं , 
रखती अपनी मर्यादा हूं। 

मेरी ममता मेरी शक्ति है, 
सतीत्व मेरा मेरी भक्ति है। 

मैं मां शक्ति का अंश बनूं, 
मैं उसके बताए पथ पर चलूं। 

अभिलाषा चौहान 
स्वरचित 


केवल पुरुषों को दोष देने से काम नहीं चलेगा।


केवल पुरुषों को दोष देने से काम नहीं चलेगा।

पुरानी यादें हमेशा हसीन और खूबसूरत नहीं होती। मी टू कैम्पेन के जरिए आज जब देश में कुछ महिलाएं अपनी जिंदगी के पुराने अनुभव साझा कर रही हैं तो यह पल निश्चित ही कुछ पुरुषों के लिए उनकी नींदें उड़ाने वाले साबित हो रहे होंगे और कुछ अपनी सांसें थाम कर बैठे होंगे। इतिहास वर्तमान पर कैसे हावी हो जाता है मी टू से बेहतर उदाहरण शायद इसका कोई और नहीं हो सकता।
दरअसल इसकी शुरुआत 2006 में तराना बुरके नाम की एक 45 वर्षीय अफ्रीकन- अमेरिकन सामाजिक कार्यकर्ता ने की थी जब एक 13 साल की लड़की ने उन्हें बातचीत के दौरान बताया कि कैसे उसकी मां के एक मित्र ने उसका यौन शोषण किया। तब तराना बुरके यह समझ नहीं पा रही थीं कि वे इस बच्ची से क्या बोलें। लेकिन वो उस पल को नहीं भुला पाईं, जब वे कहना चाह रही थीं , "मी टू", यानी "मैं भी", लेकिन हिम्मत नहीं कर पाईं।
शायद इसीलिए उन्होंने इसी नाम से एक आंदोलन की शुरुआत की जिसके लिए वे 2017 में "टाइम परसन आफ द ईयर" सम्मान से सम्मानित भी की गईं।
हालांकि मी टू की शुरुआत 12 साल पहले हुई थी लेकिन इसने सुर्खियाँ बटोरी 2017 में जब 80 से अधिक महिलाओं ने हॉलीवुड प्रोड्यूसर हार्वे वाइंस्टीन पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया जिसके परिणामस्वरूप 25 मई 2018 को वे गिरफ्तार कर लिए गए।
और अब भारत में मी टू की शुरुआत करने का श्रेय पूर्व अभिनेत्री तनुश्री दत्ता को जाता है जिन्होंने 10 साल पुरानी एक घटना के लिए नाना पाटेकर पर यौन प्रताड़ना के आरोप लगाकर उन्हें कठघड़े में खड़ा कर दिया। इसके बाद तो "मी टू" के तहत रोज नए नाम सामने आने लगे। पूर्व पत्रकार और वर्तमान केंद्रीय मंत्री एम जे अकबर, अभिनेता आलोक नाथ, रजत कपूर, गायक कैलाश खेर, फिल्म प्रोड्यूसर विकास बहल, लेखक चेतन भगत, गुरसिमरन खंभा, फेहरिस्त काफी लम्बी है।
मी टू सभ्य समाज की उस पोल को खोल रहा है जहाँ एक सफल महिला, एक सफल और ताकतवर पुरुष पर आरोप लगा कर अपनी सफलता अथवा असफलता का श्रेय मी टू को दे रही है। यानी अगर वो आज सफल है तो इस "सफलता" के लिए उसे "बहुत समझौते" करने पड़े। और अगर वो आज असफल है, तो इसलिए क्योंकि उसने अपने संघर्ष के दिनों में "किसी प्रकार के समझौते" करने से मना कर दिया था।
यह बात सही है कि हमारा समाज पुरुष प्रधान है और एक महिला को अपने लिए किसी भी क्षेत्र में अपनी पहचान बनाने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ता है।
लेकिन यह संघर्ष इसलिए नहीं होता कि ईश्वर ने उसे पुरुष के मुकाबले शारीरिक रूप से कमजोर बनाकर उसके साथ नाइंसाफी की है बल्कि इसलिए होता है कि पुरुष स्त्री के बारे में उसके शरीर से ऊपर उठकर कभी सोच ही नहीं पाता। लेकिन इसका पूरा दोष पुरुषों पर ही मढ़ दिया जाए तो यह पुरुष जाति के साथ भी नाइंसाफी ही होगी क्योंकि काफी हद तक महिला जाति स्वयं इसकी जिम्मेदार है।
इसलिए नहीं कि हर महिला ऐसा सोचती हैं कि वे केवल अपनी प्रतिभा और मेहनत के बल पर सफल नहीं हो सकतीं किन्तु इसलिए कि जो महिलाएँ बिना प्रतिभा के सफलता की सीढ़ियाँ आसानी से चढ़ जाती हैं वो इन्हें हताश कर देती हैं।
इसलिए नहीं कि एक भौतिक देह जीत जाती है बल्कि इसलिए कि एक बौद्धिक क्षमता हार जाती है।
इसलिए नहीं कि शारीरिक आकर्षण जीत जाता है बल्कि इसलिए कि हुनर और कौशल हार जाते हैं।
इसलिए नहीं कि योग्यता दिखाई नहीं देती बल्कि इसलिए कि देह से दृष्टि हट नहीं पाती।
आज जब मी टू के जरिए अनेक महिलाएं आगे आकर समाज का चेहरा बेनकाब कर रही हैं तो काफी हद तक कटघड़े में वे खुद भी हैं। क्योंकि सबसे पहली बात तो यह है कि आज इतने सालों बाद सोशल मीडिया पर जो "सच" कहा जा रहा है उससे किसे क्या हासिल होगा? अगर न्याय की बात करें तो सोशल मीडिया का बयान कोई सुबूत नहीं होता जो इन्हें न्याय दिला पाए या फिर आरोपी को कानूनी सज़ा। हाँ आरोपी को मीडिया ट्रायल और उससे उपजी मानसिक और सामाजिक प्रतिष्ठा की हानि की पीड़ा जरूर दी जा सकती है। लेकिन क्या ये महिलाएं जो सालों पहले अपने साथ हुए यौन अपराध और बलात्कार पर तब चुप रहीं इनका यह आचरण उचित है? नहीं, ये तब भी गलत थी और आज भी गलत हैं। क्योंकि कल जब उनके साथ किसी ने गलत आचरण किया था उनके पास दो रास्ते थे। उसके खिलाफ आवाज उठाने का या चुप रहने का, तब वो चुप रहीं।
 आज भी उनके पास दो रास्ते थे, चुप रहने का या फिर मी टू की आवाज़ में आवाज़ मिलाने का, और उन्होंने अपनी आवाज उठाई। वो आज भी गलत हैं। क्योंकि सालों तक एक मुद्दे पर चुप रहने के बजाय अगर वो सही समय पर आवाज उठा लेतीं तो यह सिर्फ उनकी अपने लिए लड़ाई नहीं होती बल्कि हजारों लड़कियों के उस स्वाभिमान की रक्षा के लिए लड़ाई होती जो उन पुरुषों को दोबारा किसी और लड़की या महिला के साथ दुराचार करने से रोक देता लेकिन इनके चुप रहने ने उन पुरुषों का हौसला बढ़ा दिया। उस समय उनकी आवाज इस समाज में एक मधुर बदलाव ला सकती थी लेकिन आज जब वो आवाज़ उठा रही हैं तो वो केवल शोर बनकर सामने आ रही हैं। वो कल भी स्वार्थी थीं, वो आज भी स्वार्थी हैं। कल वो अपने भविष्य को संवारने के लिए चुप थीं आज शायद अपना वर्तमान संवारने के लिए बोल रही हैं। यहाँ यह समझना जरूरी है कि यह नहीं कहा जा रहा ये महिलाएँ गलत बोल रही हैं बल्कि यह कहा जा रहा है कि गलत समय पर पर बोल रही हैं। अगर सही समय पर ये आवाजें उठ गई होती तो शायद हमारे समाज का चेहरा आज इतना बदसूरत नहीं दिखाई देता। केवल पुरुषों को दोष देने से काम नहीं चलेगा। गीता में भी कहा गया है कि अन्याय सहना सबसे बड़ा अपराध है।
डॉ नीलम महेंद्र

शुक्रवार, 12 अक्टूबर 2018

पिता ...डा श्याम गुप्त

पिता ...डा श्याम गुप्त



पिता
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एक पिता
झेलता है कितने झंझावात,
संसार के द्वेष-द्वन्द्व, छल-छंद;
भरने हेतु
समाज के सरोकार |
करने हेतु,
सात बचनों की पूर्ति
परिवार की आशाओं
पत्नी की इच्छाओं,
संतान की सुख अभिलाषाओं
व उनका भविष्य संवारने,
के लिए खटता है दिन-रात चुपचाप ,
बिना किसी शिकायत के, संताप के |
जीवन के स्वर्णिम पल-छिन,
युवावस्था के सुहाने दिन
उड़ जाते हैं न जाने कब
अधिकाधिक कमाने में,
आश्रितों को आनंद प्रदान हेतु
करता है सर्वस्व न्योछावर,
बनकर एक पुत्र, भाई, पति, पिता |
खुश होता है पिता,
सफल हुआ उसका श्रम, त्याग
उसकी शिक्षा |
बच्चे जब बड़े होकर ,
जाते हैं देश-विदेश, उच्च शिक्षा हेतु
बनाते हैं अपना भविष्य,
सजाते हैं अपना स्वयं का संसार |
पर जब वे,
अपनी सभ्यता, संस्कृति को भुलाकर ,
पाश्चात्य रंग में रंग जाते हैं ।
विस्मृत कर देते हैं,
परिवार को, माता-पिता को;
उस पिता को जिसने
उसे जीवन का अर्थ दिया
जीवन जीने का अर्थ दिया
जीवन जीने का सामर्थ्य दिया ,
तब उसकी आन्तरिक पीड़ा को समझना,
अनुभव करना
किसके वश के बात है ?



चित्र-गूगल साभार

बुधवार, 10 अक्टूबर 2018

मी टू----- डा श्याम गुप्त

मी टू-----
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------जबसे हिन्दुस्तान पर अंग्रेज़ी राज हुआ हम भारतीय अंग्रेजों के गुलाम हुए, गुलामी की आदत सी होगयी---अर्थात हर बात में उन्हीं की नक़ल ---- चाहे वह हिन्दी की बात हो, भारतीय संस्कृति की बात हो या कुछ और----
----अब जबसे अमेरिका की महिलायें 'मी टू' कह कर अपने स्वार्थवश , अपने लाभ के लिए किये गए पापों को, सारा सुख भोग लेने के बाद मुद्दतों बाद प्रसिद्द पुरुषों पर डालने में लगीं है ------हमारी भारतीय महिलायें भी --हम क्यों पीछे --के भाव नक़ल मारने में लगीं हैं|
\
---- प्रश्न है कि आखिर उसी समय ये महिलायें क्यों नहीं शोर मचातीं जब उनका शोषण किया जाता है --
----क्योंकि वे स्वयं लाभ की स्थिति में होती हैं , क्या आर्थिक, भौतिक, नौकरी का, धंधे का लाभ इतना महत्वपूर्ण है कि शोषण करवाते रहना आवश्यक है | यह स्वयं का स्वार्थ ही है ---महिलायें पहले तो स्वयं के स्वार्थ हेतु स्वयं को चारा बनाकर पेश करती हैं, जब मतलब निकल जाता है एवं उनका बाज़ार गिरने लगता है तो लाइम लाईट में आने के लिए आरोप लगाने लगती हैं |
\
----ऐसा कौन सा समाज, देश है जिसमें स्त्रियाँ ,महिमा मंडित पुरुषों के आगे-पीछे नहीं दौड़तीं, स्व-लाभ हेतु | हर युग में यह होता आया है परन्तु स्त्रियाँ व पुरुष अपने कृत्यों का बोझा ढोने से कतराते नहीं थे |
---- परन्तु आज यह नया चलन प्रारम्भ हुआ है , काम निकल जाने पर दोषारोपण का |
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-----कब स्त्री इतनी, मजबूत, हिम्मतवर होगी कि किसी को अपना शोषण न करने दे चाहे कितना भी बड़ा लालच, स्वार्थ क्यों न हो | और 'मी टू' कहने, करने की आवश्यकता न रहे |