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शनिवार, 28 अक्टूबर 2017

कामकाजी महिलाएं और कानून


आज यदि देखा जाये तो महिलाओं के लिए घर से बाहर जाकर काम करना ज़रूरी हो गया है और इसका एक परिणाम तो ये हुआ है कि स्त्री सशक्तिकरण के कार्य बढ़ गए है और स्त्री का आगे बढ़ने में भी तेज़ी आई है किन्तु इसके दुष्परिणाम भी कम नहीं हुए हैं जहाँ एक तरफ महिलाओं को कार्यस्थल के बाहर के लोगों से खतरा बना हुआ है वहीँ कार्यस्थल पर भी यौन शोषण को लेकर  उसे नित्य-प्रति नए खतरों का सामना करना पड़ता है .
कानून में महिलाओं की सुरक्षा को लेकर पहले भी काफी सतर्कता बरती गयी हैं किन्तु फिर भी इन घटनाओं पर अंकुश लगाया जाना संभव  नहीं हो पाया है.इस सम्बन्ध में उच्चतम न्यायालय का ''विशाखा बनाम राजस्थान राज्य ए.आई.आर.१९९७ एस.सी.सी.३०११ ''का निर्णय विशेष महत्व रखता है इस केस में सुप्रीम कोर्ट के तीन न्यायाधीशों की खंडपीठ ने महिलाओं के प्रति काम के स्थान में होने वाले यौन उत्पीडन को रोकने के लिए विस्तृत मार्गदर्शक सिद्धांत विहित किये हैं .न्यायालय ने यह कहा ''कि देश की वर्तमान सिविल विधियाँ या अपराधिक विधियाँ काम के स्थान पर महिलाओं के यौन शोषण से बचाने के लिए पर्याप्त संरक्षण प्रदान नहीं करती हैं और इसके लिए विधि बनाने में काफी समय लगेगा ;अतः जब तक विधान मंडल समुचित विधि नहीं बनाता है न्यायालय द्वारा विहित मार्गदर्शक सिद्धांत को लागू किया जायेगा .

न्यायालय ने ये भी निर्णय दिया कि ''प्रत्येक नियोक्ता या अन्य व्यक्तियों का यह कि काम के स्थान या अन्य स्थानों में चाहे प्राईवेट हो या पब्लिक ,श्रमजीवी महिलाओं के यौन उत्पीडन को रोकने के लिए समुचित उपाय करे .इस मामले में महिलाओं के अनु.१४,१९ और २१ में प्रदत्त मूल अधिकारों को लागू करने के लिए विशाखा नाम की एक गैर सरकारी संस्था ने लोकहित वाद न्यायालय में फाईल किया था .याचिका फाईल करने का तत्कालीन कारण राजस्थान राज्य में एक सामाजिक महिला कार्यकर्ता के साथ सामूहिक बलात्कार की घटना थी .न्यायालय ने अपने निर्णय में निम्नलिखित मार्गदर्शक सिद्धांत विहित किये-
[१] सभी नियोक्ता या अन्य व्यक्ति जो काम के स्थान के प्रभारी हैं उन्हें  चाहे वे प्राईवेट क्षेत्र में हों या पब्लिक क्षेत्र में ,अपने सामान्य दायित्वों के होते हुए महिलाओं के प्रति यौन उत्पीडन को रोकने के लिए समुचित कदम उठाना चाहिए.
[अ] यौन उत्पीडन पर अभिव्यक्त रोक लगाना जिसमे निम्न बातें शामिल हैं -शारीरिक  सम्बन्ध और प्रस्ताव,उसके लिए आगे बढ़ना ,यौन सम्बन्ध के लिए मांग या प्रार्थना करना ,यौन सम्बन्धी छींटाकशी   करना ,अश्लील साहित्य या कोई अन्य शारीरिक मौखिक या यौन सम्बन्धी मौन आचरण को दिखाना आदि.
[ब]सरकारी या सार्वजानिक क्षेत्र के निकायों के आचरण और अनुशासन सम्बन्धी नियम [१] सभी नियोक्ता या अन्य व्यक्ति जो काम के स्थान के प्रभारी हैं उन्हें  चाहे वे प्राईवेट क्षेत्र में हों या पब्लिक क्षेत्र में ,अपने सामान्य दायित्वों के होते हुए महिलाओं के प्रति यौन उत्पीडन को रोकने के लिए समुचित कदम उठाना चाहिए.
[अ] यौन उत्पीडन पर अभिव्यक्त रोक लगाना जिसमे निम्न बातें शामिल हैं -शारीरिक  सम्बन्ध और प्रस्ताव,उसके लिए आगे बढ़ना ,यौन सम्बन्ध के लिए मांग या प्रार्थना करना ,यौन सम्बन्धी छींटाकशी  करना ,अश्लील साहित्य या कोई अन्य शारीरिक मौखिक या यौन सम्बन्धी मौन आचरण को दिखाना आदि.
[ब]सरकारी या सार्वजानिक क्षेत्र के निकायों के आचरण और अनुशासन सम्बन्धी नियम या विनियमों में यौन उत्पीडन रोकने सम्बन्धी नियम शामिल किये जाने चाहिए और ऐसे नियमों में दोषी व्यक्तियों के लिए समुचित दंड का प्रावधान किया जाना चाहिए .
[स] प्राईवेट क्षेत्र के नियोक्ताओं के सम्बन्ध में औद्योगिक नियोजन [standing order  ]अधिनयम १९४६ के अधीन ऐसे निषेधों को शामिल किया जाना चाहिए.
[द] महिलाओं को काम,आराम,स्वास्थ्य और स्वास्थ्य विज्ञानं के सम्बन्ध में समुचित परिस्थितियों का प्रावधान होना चाहिए और यह सुनिश्चित किया  जाना चाहिए  कि महिलाओं को काम के स्थान में कोई विद्वेष पूर्ण वातावरण न हो उनके मन में ऐसा विश्वास करने का कारण हो कि वे नियोजन आदि के मामले में अलाभकारी स्थिति में हैं .
[२] जहाँ ऐसा आचरण भारतीय दंड सहिंता या किसी अन्य विधि के अधीन विशिष्ट अपराध होता हो तो नियोक्ता को विधि के अनुसार उसके विरुद्ध समुचित प्राधिकारी को शिकायत करके समुचित कार्यवाही प्रारंभ करनी चाहिए .
[३]यौन उत्पीडन की शिकार महिला को अपना या उत्पीडनकर्ता  का स्थानांतरण करवाने का विकल्प होना चाहिए.
न्यायालय ने कहा कि ''किसी वृत्ति ,व्यापार  या पेशा के चलाने के लिए सुरक्षित काम का वातावरण होना चाहिए .''प्राण के अधिकार का तात्पर्य मानव गरिमा से जीवन जीना है ऐसी सुरक्षा और गरिमा की सुरक्षा को समुचित कानून द्वारा सुनिश्चित कराने तथा लागू करने का प्रमुख दायित्व विधान मंडल और कार्यपालिका का है किन्तु जब कभी न्यायालय के समक्ष अनु.३२ के अधीन महिलाओं के यौन उत्पीडन का मामला लाया जाता है तो उनके मूल अधिकारों की संरक्षा के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत विहित करना ,जब तक कि  समुचित विधान नहीं बनाये जाते उच्चतम न्यायालय का संविधानिक कर्त्तव्य है.

इस प्रकार यदि इस निर्णय के सिद्धांतों को नियोक्ताओं द्वारा प्रयोग में लाया जाये तो श्रमजीवी महिलाओं की स्थिति में पर्याप्त सुधार लाया जा सकता है.
शालिनी कौशिक 
एडवोकेट 
 [कानूनी ज्ञान ]

गुरुवार, 26 अक्टूबर 2017

अपनी हैसियत पहचान -गुलाम

अभी अभी एक नए जोड़े को देखा पति चैन से जा रहा था और पत्नी घूंघट में ,भले ही दिखाई दे या न दे किन्तु उसे अब ऐसे ही चलने का अभ्यास करना होगा आखिर करे भी क्यूँ न अब वह विवाहित जो है जो कि एक सामान्य धारणा के अनुसार यह है कि अब वह धरती पर बोझ नहीं है ऐसा हमारे एक परिचित हैं उनका कहना है कि ''जब तक लड़की का ब्याह न हो जाये वह धरती पर बोझ है .''
मैंने अपने ही एक पूर्व आलेख ''विवाहित स्त्री होना :दासी होने का परिचायक नहीं '' में विवाह को दासता जैसी कुरीति से अलग बताया था किन्तु यह वह स्थिति है जिसमे विवाह संस्कार को वास्तविक रूप में होना चाहिए किन्तु ऐसा होता कहाँ है ?वास्तविक रूप में यहाँ कोई इस संस्था को रहने ही कहाँ देता है कहीं लड़के के माँ-बाप इस संस्कार का उद्देश्य मात्र लड़की वालों को लूटना -खसोटना और यदि देहाती भाषा में कहूँ तो'' मूंडना '' मान लेते हैं तो कहीं स्वयं लड़की वाले कानून के दम पर लड़के वालों को कानूनी दबाव में लेकर इसके बल पर ''कि दहेज़ में फंसाकर जेल कटवाएंगे ''उन्हें अपने जाल में फंसाते हैं और धन ऐंठकर ही छोड़ते हैं .कहीं लड़का ये सोचकर ''कि नारी हीन घर भूतों का डेरा ,नारी बिना कौन करेगा ढेर काम मेरा ''या ''इस लड्डू को जब जो खाये वह पछताए जो न खाये वह पछताए तो क्यूँ न खा कर पछताऊं ''किसी लड़की को ब्याहकर घर लाता है तो कहीं लड़की भी अपनी सामाजिक स्थिति को मजबूत करने के लिए,क्योंकि उसे समाज में ''बाप के ऊपर पहाड़ '' जैसी उक्तियों से नवाज़ा जाता है ,से मुक्ति पाने के लिए तो कहीं [कहने वालों और भुक्तभोगियों के अनुसार ]अपने कई स्वार्थ संजोये बहू बन आती है किन्तु जो सच्चाई हो कही वही जाती है और सच्चाई यही है कि आदमी औरत को अपनी गुलाम से बढ़कर कुछ नहीं समझता और अगर ऐसा नहीं है -
* तो क्यूँ एक जगह विवाह के समय लड़के द्वारा यह मांग कि लड़की अपने बड़े बड़े बालों को कटवाकर छोटा कर ले और एक जगह छोटे बालों वाली लड़की से अपने बाल बढाकर शादी करने की शर्त रखी जाती है ?
*क्यूँ शादी के बाद लड़की के रहन सहन ,पहनावे का बदल जाना ,मांग में सिन्दूर ,गले में मंगलसूत्र ,साडी या सूट हो किन्तु सिर ढका होना ,कहीं कहीं पूरे मुंह पर घूंघट पड़ा होना ,पैरों में बिछुए कहने को ये सब विवाहित होने की पहचान हैं ,स्त्री के सुहाग की रक्षा के लिए तो फिर पुरुष के रहन सहन पहनावे में कोई अंतर क्यूँ नहीं ?
*क्यूँ उसपर अपनी सुहागन की रक्षा का कोई दायित्व नहीं ,हाथ पैरों से तो उसकी पत्नी भी उसकी सेवा करती है तब भी उसपर इतने प्रतिबन्ध फिर सिर्फ उसके साथ को ही क्यूँ उसकी पत्नी की मजबूती माना जाता है उसे क्यूँ नहीं पहनने होते ये आभूषण आदि ?
* क्यूँ उसका विवाहित दिखना उसी तरह ज़रूरी नहीं जैसे नारी का विवाहित दिखना ज़रूरी है ?
* क्यूँ वही अगले जन्म में भी अपने पति को पाने के लिए व्रत रखे ,क्यूँ पति पर इस व्रत का दायित्व नहीं इसलिए तो नहीं क्योंकि वह धरती पर बोझ नहीं है उसका ब्याह हो या न हो वह तारणहार की भूमिका में ही है .अगर किसी नारी का पति किसी बीमारी या दुर्घटना वश मर जाये तो उसपर विधवा का ठप्पा लग जाता है और अगर किसी तरह उसका दूसरा विवाह होता है तो एक ''बेचारी ''कहकर ही किया जाता है किन्तु एक पुरुष भले ही दहेज़ के लिए स्वयं ही पत्नी की हत्या कर दे उसके लिए लड़कियों की ''कुंवारी ''लड़कियों की लाइन लगी रहती है ,यहाँ तक कि बुज़ुर्ग से बुजुर्ग पुरुषों को भी ''बेचारी तो बेचारी ''कुंवारी छोटी उम्र की लड़कियां भी सहजता से विवाह के लिए उपलब्ध हो जाती हैं भले ही उनके अपने बच्चे भी उस लड़की से बड़ी उम्र के ही क्यूँ न हों .
आज ''लिव इन रिलेशन ''को न्याय की संरक्षक सर्वोच्च संस्था सुप्रीम कोर्ट ही कानूनी जामा पहनाने में लगी है जबकि इसमें भी औरत की स्थिति रखैल की स्थिति से बेहतर नहीं है क्योंकि पुरुष विवाहित है या नहीं है उसकी कोई पहचान नहीं है और पहचान होने पर भी नारी की जो स्थिति है वह ''दिल के हाथों मजबूर'' की है और ऐसे में चंद्रमोहन चंद्रमोहन रहे या चाँद ,लाभ में रहता है और अनुराधा बाली फ़िज़ा बन लाश बन जाती है .
लड़कियां ही शादी के लिए खरीदी जाती हैं ,लड़कियां ही भ्रूण हत्या का शिकार बनती हैं , न कोई बड़ी उम्र की औरत शादी के लिए लड़का खरीदती है न कोई लड़का भ्रूण हत्या का शिकार होता है ऐसी बहुत सी स्थितियां हैं जहाँ ये स्पष्ट होता है कि नारी को पुरुषों ने केवल अपने गुलाम का दर्जा ही दिया है इससे बढ़कर कुछ नहीं जबकि हमारे शास्त्रों में पुराणों में नारी हीन घर भूतों का डेरा ,कहा गया है ,नारी की स्थिति को ''यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता ''कहकर सम्मानजनक स्थान दिया गया है किन्तु पहले कभी मिलने वाला ये सम्मान आज कहीं नहीं दिखाई देता आज नारी का केवल एक उत्पाद ,एक गुलाम की तरह ही इस्तेमाल नज़र आता है .कहीं नारी का घूंघट से ढका चेहरा तो कहीं छत के कुंडे में लटकता शरीर नज़र आता है .

शालिनी कौशिक

[कौशल ]

रविवार, 22 अक्टूबर 2017

बेघर बेचारी नारी

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निकल जाओ मेरे घर से

एक पुरुष का ये कहना
अपनी पत्नी से
आसान
बहुत आसान
किन्तु
क्या घर बनाना
उसे बसाना
सीखा कभी
पुरुष ने
पैसा कमाना
घर में लाना
क्या मात्र
पैसे से बनता है घर
नहीं जानता
घर
ईंट सीमेंट रेत का नाम नहीं
बल्कि
ये वह पौधा
जो नारी के त्याग, समर्पण ,बलिदान
से होता है पोषित
उसकी कोमल भावनाओं से
होता पल्लवित
पुरुष अकेला केवल
बना सकता है
मकान
जिसमे कड़ियाँ ,सरिये ही
रहते सिर पर सवार
घर
बनाती है नारी
उसे सजाती -सँवारती है
नारी
उसके आँचल की छाया
देती वह संरक्षण
जिसे जीवन की तप्त धूप
भी जला नहीं पाती है
और नारी
पहले पिता का
फिर पति का
घर बसाती जाती है
किन्तु न पिता का घर
और न पति का घर
उसे अपना पाता
पिता अपने कंधे से
बोझ उतारकर
पति के गले में डाल देता
और पति
अपनी गर्दन झुकते देख
उसे बाहर फेंक देता
और नारी
रह जाती
हमेशा बेघर
कही जाती
बेचारी
जिसे न मिले
जगह उस बगीचे में
जिसकी बना आती वो क्यारी- क्यारी .

शालिनी कौशिक
[कौशल ]

मंगलवार, 17 अक्टूबर 2017

दीपावली महापर्व की हार्दिक शुभकामनायें


इस बार दीपक वे जगें ,फैले उजाला प्यार का ,
अंत हो इस मुल्क में मज़हबी तकरार का !
.................................................................
हो मिठाई से भी मीठा , मुंह से निकले बोल जो ,
ये ही मौका है मोहब्बत के खुले इक़रार का !
....................................................................
इस अमावस को बदल दें चांदनी की रात में ,
तब मज़ा आएगा असली दीपों के त्यौहार का !
.............................................................
नफ़रतें मिट जाएँ सारी , फिरकापरस्ती दफ़न हो ,
इस दीवाली काट देंगें सिर हर एक गद्दार का !
.................................................
अब दिलों में झिलमिलाएँ प्रेम से रोशन दिए ,
कारोबार ठप्प हो 'नूतन' नफरत-ए-बाजार का !
शिखा कौशिक 'नूतन'

सोमवार, 9 अक्टूबर 2017

...जननी गयी हैं मुझसे रूठ .

माँ तुझे सलाम


वो चेहरा जो
        शक्ति था मेरी ,
वो आवाज़ जो
      थी भरती ऊर्जा मुझमें ,
वो ऊँगली जो
     बढ़ी थी थाम आगे मैं ,

वो कदम जो
    साथ रहते थे हरदम,
वो आँखें जो
   दिखाती रोशनी मुझको ,

वो चेहरा
   ख़ुशी में मेरी हँसता था ,
वो चेहरा
   दुखों में मेरे रोता था ,
वो आवाज़
   सही बातें  ही बतलाती ,
वो आवाज़
   गलत करने पर धमकाती ,

वो ऊँगली
   बढाती कर्तव्य-पथ पर ,
वो ऊँगली
  भटकने से थी बचाती ,
वो कदम
   निष्कंटक राह बनाते ,
वो कदम
   साथ मेरे बढ़ते जाते ,
वो आँखें
   सदा थी नेह बरसाती ,
वो आँखें
   सदा हित ही मेरा चाहती ,
मेरे जीवन के हर पहलू
   संवारें जिसने बढ़ चढ़कर ,
चुनौती झेलने का गुर
     सिखाया उससे खुद लड़कर ,
संभलना जीवन में हरदम
     उन्होंने मुझको सिखलाया ,
सभी के काम तुम आना
    मदद कर खुद था दिखलाया ,

वो मेरे सुख थे जो सारे
   सभी से नाता गया है छूट ,
वो मेरी बगिया की माली
   जननी गयी हैं मुझसे रूठ ,
गुणों की खान माँ को मैं
    भला कैसे दूं श्रद्धांजली ,
ह्रदय की वेदना में बंध
    कलम आगे न अब चली .
           शालिनी कौशिक
                [कौशल ]

रविवार, 8 अक्टूबर 2017

गौतम से पहले मुनेश को सलाम

''दरों दीवार पे हसरत से नज़र रखते हैं ,
खुश रहो अहले वतन हम तो सफर करते हैं .''
    कह एलम का नौजवान गौतम पंवार भी अपने  देश पर शहीद हो गया और नाम रोशन कर गया न केवल अपने छोटे से कसबे एलम का बल्कि पूरे प्रदेश का जहाँ से कोई भी अब ये नहीं कह सकता कि यहाँ की मिटटी में केवल नेता ही जन्म लेते हैं .गौतम की निपुणता के मुरीद थे अफसर .एक युवा ,बहादुर नौजवान का इस तरह चले जाना बहुत दुखद है और सबसे ज्यादा उस माँ के लिए जो अपना जीवन अपने बच्चों के लिए ही कुर्बान कर देती है .
      जानती हूँ मेरी पोस्ट का  शीर्षक सबको अजीब लगेगा और कुछ को तो गुस्सा भी आ जायेगा किन्तु मैं यहाँ गौतम से भी ज्यादा बड़ी शहादत देख रही हूँ मुनेश की जो सौभाग्य से गौतम के ही कहूँगी ,माँ है ,समाचारपत्र से ही पता लगा कि मुनेश देवी के पति तो नौकरी के कारण घर से बाहर ही रहते थे और मुनेश देवी ने ही अपने तीनों बच्चों में वो प्रेरणा उत्पन्न की कि वे देश सेवा के योग्य बन सके .
      माँ का रिश्ता होता ही ऐसा है जो अपने बारे में कुछ नहीं सोचता ,उसके मन में चौबीस घंटे अपने बच्चे की चिंताएं हावी रहती हैं ,ऐसे में अपने लाल के यूँ बिछड़ जाना कि अब कभी नहीं मिलेगा ,सोचना भी ह्रदय विदारक है फिर यहाँ तो ये हो गया .
      पर हम जानते हैं जो माँ अपने एक बेटे के गम में डूबी हुई भी हो वह अपने और बच्चों की बेहतरी के लिए अपने ह्रदय पर पत्थर रख ही लेती है और यही अब मुनेश को भी करना है ,अर्जुन और वैशाली भले ही सेना में हों ,पुलिस में हों लेकिन मुनेश के बच्चे हैं और इनके लिए माँ अपने फ़र्ज़ को निभाएगी ,हमेशा से निभाती आयी है ,क्योंकि हम तो सिवाय सांत्वना के उन्हें कुछ नहीं दे सकते केवल इतना कह सकते हैं कि भगवान गौतम की आत्मा को शांति दे [ जिसे कहने की कोई आवश्यकता ही नहीं है क्योंकि वह देश पर कुर्बान हुआ है और देश पर कुर्बान होने वालों को तो स्वयं भगवान भी सलाम करते हैं ]और उसके परिजनों को यह दुःख सहन करने की शक्ति दे .
         गौतम पंवार को सलाम और उनसे भी पहले मुनेश को मेरा बार बार सलाम क्योंकि आपने माँ का पद एक बार फिर नमन योग्य बना दिया है .बस अब केवल यही -
ए मेरे वतन के लोगों,
ज़रा आँख में भर लो पानी ,
जो शहीद हुए हैं उनकी 
ज़रा याद करो क़ुरबानी .''
जय हिन्द -जय गौतम -जय मुनेश 

शालिनी कौशिक 
      [कौशल ]

बुधवार, 4 अक्टूबर 2017

इज़्ज़तघर मतलब नया बलात्कार घर

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PM मोदी ने रखी शौचालय की नींव, बोले-शौचालय महिलाओं के लिए इज्जतघर

वाराणसी : प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वाराणसी दौरे पर शहंशाहपुर में शौचालय की नींव रख स्वच्छता अभियान की शुरुआत की पीएम ने यहां एक जमसभा को संबोधित करते हुए कहा कि हम में से कोई गंदगी में नहीं रहना चाहता लेकिन फिर भी स्वच्छता हमारी जिम्मेदारी है यह स्वभाव हमारे देश में पनपा नहीं है उन्होंने कहा कि गंदगी हम करते हैं और स्वच्छता कोई औतारीफ र करेगा यह प्रवृत्ति हमारे समाज से गई नहीं है .
     प्रधानमंत्री  मोदी जी की जितनी की जाये कम है क्योंकि उन्होंने जिस काम का बीड़ा उठाया है वह हमारे देश का एक बहुत बड़ा कलंक है और आश्चर्य है कि आज से पहले इस ओर किसी का ध्यान गया ही नहीं .बस में होते थे या ट्रेन में खेतों में शौच के लिए जाते लोग दिख जाते थे और महिलाओं की स्थिति तो इतनी ख़राब थी या कहूं कि अब भी है क्योंकि अभी भी इसका समूल निपटारा थोड़े ही हुआ है ,यही कि महिलाओं के साथ कितने ही बलात्कार उनके शौच जाने के समय ही होते थे और होते हैं भी ,किन्तु शौचालय को इज़्ज़तघर नाम देना गले से नीचे नहीं उतर रहा .
            हमारे समाज में शायद सर्वाधिक अपराध महिलाओं के साथ ही होते हैं-दहेज़ प्रथा ,कन्या भ्रूण हत्या ,छेड़छाड़ ,तेजाब डालना और सबसे निकृष्ट बलात्कार जिसके बारे में मैं बेखटके कह सकती हूँ कि इसका एक मुख्य कारण इसे नारी की व् उसके परिवार की इज़्ज़त से जोड़ दिया जाता है और इसके बाद नारी की व् उसके परिवार की ज़िंदगी लगभग खत्म ही हो जाती है और अब प्रधानमंत्री  जी ने  भी इसे इज़्ज़तघर नाम दे दिया इसका साफ़ साफ इशारा ऐसे वहशियों को मिला है जिनका कार्य केवल औरतों से बलात्कार करना है और अब निश्चित ये आक्रमण वहीँ होने हैं ,गुड़गांव का प्रद्युम्न हत्याकांड भी शौचालय में ही हुआ है ,और अगर हम थोड़ा सा विचार करें तो हम पाएंगे कि गाँधी जी ने हरिजन नाम दिया इस जाति के लोगों को नीचे दिखाने के लिए नहीं अपितु भगवान का इनके प्रति अटूट स्नेह दिखाने के लिए और आज यही नाम इनके लिए नफरत की श्रेणी में है .
       ऐसे में मेरा कहना है कि इसे इज़्ज़त से न जोड़कर सुविधा सुरक्षा से जोड़ा जाये तो ज्यादा उपयुक्त रहेगा क्योंकि ये एक मानने लायक बात है कि यदि बलात्कार से नारी व् उसके परिवार की इज़्ज़त के लूटने से जोड़ना बंद हो जाये ,इसे मात्र एक अपराध की श्रेणी मिल जाये तो ये अपराध नगण्य होते देर नहीं लगेगी .
शालिनी कौशिक 
[कौशल]

सोमवार, 2 अक्टूबर 2017

संस्कृति रक्षक केवल नारी

यूनान ,मिस्र ,रोमां सब मिट गए जहाँ से ,
बाकी अभी है लेकिन ,नामों निशां हमारा .
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी ,
सदियों रहा है दुश्मन ,दौरे ज़मां हमारा .
भारतीय संस्कृति की अक्षुणता को लक्ष्य कर कवि इक़बाल ने ये ऐसी अभिव्यक्ति दी जो हमारे जागृत व् अवचेतन मन में चाहे -अनचाहे विद्यमान  रहती है  और साथ ही इसके अस्तित्व में रहता है वह गौरवशाली व्यक्तित्व जिसे प्रभु ने गढ़ा ही इसके रक्षण के लिए है और वह व्यक्तित्व विद्यमान है हम सभी के सामने नारी रूप में .दया, करूणा, ममता ,प्रेम की पवित्र मूर्ति ,समय पड़ने पर प्रचंड चंडी ,मनुष्य के जीवन की जन्मदात्री ,माता के समान हमारी रक्षा करने वाली ,मित्र और गुरु के समान हमें शुभ कार्यों  के लिए प्रेरित करने वाली ,भारतीय संस्कृति की विद्यमान मूर्ति श्रद्धामयी  नारी के विषय में ''प्रसाद''जी लिखते हैं -
''नारी तुम केवल श्रद्धा हो ,विश्वास रजत नग-पग तल में ,
पियूष स्रोत सी बहा करो ,जीवन के सुन्दर समतल में .''
संस्कृति और नारी एक दूसरे के पूरक कहे जा सकते हैं .नारी के गुण ही हमें संस्कृति के लक्षणों के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं .जैसे भारतीय नारी में ये गुण है  कि वह सभी को अपनाते हुए गैरों को भी अपना बना लेती है वैसे ही भारतीय संस्कृति में विश्व के विभिन्न क्षेत्रों से आई संस्कृतियाँ समाहित होती गयी और वह तब भी आज अपना अस्तित्व कायम रखे हुए है और यह गुण उसने नारी से ही ग्रहण किया है .
   संस्कृति मनुष्य की विभिन्न साधनाओं की अंतिम परिणति है .संस्कृति उस अवधारणा को कहते हैं जिसके आधार पर कोई समुदाय जीवन की समस्याओं पर दृष्टि निक्षेप करता है .''आचार्य हजारी प्रसाद द्वैदी  ''के शब्दों में ,-
''नाना प्रकार की धार्मिक साधनाओं कलात्मक प्रयत्नों और भक्ति तथा योगमूलक अनुभूतियों के भीतर मनुष्य उस महान सत्य के व्यापक और परिपूर्ण रूप को क्रमशः  प्राप्त करता जा रहा है जिसे हम ''संस्कृति''शब्द द्वारा व्यक्त करते हैं .''
    इस प्रकार किसी समुदाय की अनुभूतियों के संस्कारों के अनुरूप ही सांस्कृतिक अवधारणा का स्वरुप निर्धारित होता है .संस्कृति किसी समुदाय,जाति अथवा देश का प्राण या आत्मा होती है ,संस्कृति द्वारा उस जाति ,राष्ट्र अथवा समुदाय के उन समस्त संस्कारों का बोध होता है जिनके सहारे वह अपने आदर्शों ,जीवन मूल्यों आदि का निर्धारण करता है और ये समस्त संस्कार जीवन के समस्त क्षेत्रों में नारी अपने हाथों  से प्रवाहित  करती  है .जीवन के आरम्भ  से लेकर अंत तक नारी की भूमिका संस्कृति के रक्षण में अमूल्य है .
    भारतीय संस्कृति का मूल तत्व ''वसुधैव कुटुम्बकम ''है .सारी वसुधा को अपना घर मानने वाली संस्कृति का ये गुण नारी के व्यव्हार में स्पष्ट दृष्टि गोचर होता है .पूरे परिवार को साथ लेकर चलने वाली नारी होती है .बाप से बेटे में पीढ़ी  दर पीढ़ी संस्कार भले ही न दिखाई दें किन्तु सास से बहू तक किसी भी खानदान के रीति-रिवाज़ व् परम्पराएँ हस्तांतरित होते सभी देखते हैं .
    ''जियो और जीने दो''की परंपरा को मुख्य सूत्र के रूप में अपनाने वाली हमारी संस्कृति अपना ये गुण भी नारी के माध्यम  से जीवित रखते दिखाई देती है .हमारे नाखून जो हमारे शरीर पर मृत कोशिकाओं के रूप में होते हैं किन्तु नित्य प्रति उनका बढ़ना जारी रहता है ..हमारी मम्मी ने ही हमें बताया था कि उनकी दादी ने ही उनको बताया था -''कि नाखून काटने के बाद इधर-उधर नहीं फेंकने चाहियें बल्कि नाली में बहा देना चाहिए .''हमारे द्वारा ऐसा करने का कारण पूछने पर मम्मी ने बताया -''कि यदि ये नाखून कोई चिड़िया खाले तो वह बाँझ हो सकती है और इस प्रकार हम अनजाने में चिड़ियों की प्रजाति के खात्मे के उत्तरदायी हो सकते हैं .''
         इन्सान जितना पैसे बचाने के लिए प्रयत्नशील रहता है शायद किसी अन्य कार्य के लिए रहता हो .हमारी मम्मी ने ही हमें बताया -''कि जब पानी भर जाये तो टंकी बंद कर देनी चाहिए क्योंकि पानी यदि व्यर्थ में बहता है तो पैसा भी व्यर्थ में बहता है अर्थात खर्च होता है व्यर्थ में .
     घरों में आम तौर पर सफाई के लिए प्रयोग होने वाली झाड़ू के सम्बन्ध में दादी ,नानी ,मम्मी सभी से ये धारणा हम तक आई है कि झाड़ू लक्ष्मी स्वरुप होती है इसे पैर नहीं लगाना चाहिए और यदि गलती से लग भी जाये तो इससे क्षमा मांग लेनी चाहिए . और ये भावना नारी की ही हो सकती है कि एक छोटी सी वस्तु का भी तिरस्कार न हो . हमारी संस्कृति कहती है कि ''जैसा व्यवहार आप दूसरों से स्वयं के लिए चाहते हो वही दूसरों के साथ करो .''अब चूंकि सभी अपने लिए सम्मान चाहते हैं ऐसे में नारी द्वारा झाड़ू जैसी छोटी वस्तु को भी लक्ष्मी का दर्जा दिया जाना संस्कृति की इसी भावना का पोषण है वैसे भी ये मर्म एक नारी ही समझ सकती है कि यदि झाड़ू न हो तो घर की सफाई कितनी मुश्किल है और गंदे घर से लक्ष्मी वैसे भी दूर ही रहती हैं .
    हमारी संस्कृति कहती है -
   ''यही पशु प्रवर्ति है कि आप आप ही चरे ,
    मनुष्य है वही कि जो मनुष्य के लिए मरे .''
भूखे को भोजन खिला उसकी भूख शांत करना हमारी संस्कृति में मुख्य कार्य के रूप में सिखाया गया है और इसका अनुसरण करते हुए ही हमारी मम्मी ने हमें सिखाया -''कि तुम दूसरे को खिलाओ ,वह तुम्हे मुहं से दुआएँ दे या न दे आत्मा से ज़रूर देगा .''
      भारतीय संस्कृति की दूसरों की सेवा सहायता की भावना ने विदेशी महिलाओं को भी प्रेरित किया .मदर टेरेसा ने यहाँ आकर इसी भावना से प्रेरित होकर अपना सम्पूर्ण जीवन इसी संस्कृति के रक्षण में अर्पित कर दिया .आरम्भ से लेकर आज तक नर्स की भूमिका नारी ही निभाती आ रही है क्योंकि स्नेह व् प्रेम का जो स्पर्श मनुष्य को जीवन देने के काम आता है वह प्रकृति ने नारी के ही हाथों में दिया है .
    हमारी ये महान संस्कृति परोपकार के लिए ही बनी है और इसके कण कण में ये भावना व्याप्त है .संस्कृत का एक श्लोक कहता  है -
  ''पिबन्ति नद्यः स्वयमेव नाम्भः ,
  स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षाः.
  नादन्ति शस्याम खलु वारिवाहा ,
  परोपकाराय  सताम विभूतयः ."    
    और नारी अपने फ़र्ज़ के लिए अपना सारा जीवन कुर्बान कर देती है .अपना या अपने प्रिय से प्रिय का भी बलिदान देने से वह नहीं हिचकती है .जैसे इस संस्कृति में पेड़ छाया दे शीतलता पहुंचाते हैं नदियाँ प्यास बुझाने के लिए जल धारण करती हैं .माँ ''गंगा ''का अवतरण भी इस धरती पर जन जन की प्यास बुझाने व् मृत आत्माओं की शांति व् मुक्ति के लिए हुआ वैसे ही नारी जीवन भी त्याग बलिदान की अपूर्व गाथाओं से भरा है इसी भावना से भर पन्ना धाय ने अपने पुत्र चन्दन का बलिदान दे कुंवर उदय सिंह की रक्षा की .महारानी सुमित्रा ने इसी संस्कृति का अनुसरण करते हुए बड़े भाइयों की सेवा में अपने दोनों पुत्र लगा दिए .देवी सीता ने इस संस्कृति के अनुरूप ही अपने पति चरणों की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया .उर्मिला ने लक्ष्मण की आज्ञा पालन के कारण अपने नयनों से अश्रुओं को बहुत दूर कर दिया ..
      नारी का संस्कृति रक्षण में सहभाग ऐसी अनेकों कहानियों को अपने में संजोये है इससे हमारा इतिहास भरा है वर्तमान जगमगा रहा है और भविष्य भी निश्चित रूप में सुनहरे अक्षरों में दर्ज होगा .

                              शालिनी कौशिक 
                        [   कौशल ]