सोमवार, 31 अक्तूबर 2011

राजीनामा फिर शादीनामा

                                                                                                    -प्रेम प्रकाश
बाजार की सीध में चले दौर ने परिवार संस्था को नई वैचारिक तमीज के साथ समझने की दरकार बार-बार रखी है। इस दरकार ने इस संस्था के मिथ और मिथक पर नई रौशनी डाली भी है। अलबत्ता, अब तक अब तक विवाह और परिवार के रूप में विकसित हुई संस्था की पारंपरिकता पर खीझ उतारने वाली सनक तो कई बार जाहिर हो चुकी है पर इसके विकल्प की जमीन अब भी वीरान ही है। साफ है कि मनुष्य की सामाजिकता का तर्क आज भी अकाट्य  है और इस पर लाख विवाद और वितंडा के बावजूद इसे खारिज कर पाना आसान नहीं है।
ऐसा ही एक सवाल संबंधों की रचना प्रक्रिया को लेकर बार-बार उठता है। विवाह की एक कानूनी व्याख्या भी है। इस व्याख्या और मान्यता की जरूरत भी है। पर यह भी उतना ही सही है कि कानूनी धाराओं से वैवाहिक संबंध को न तो गढ़ा जा सकता है और न ही इसके निर्वाह का गाढ़ापन इससे तय होता है। इसके लिए तो लोक और परंपरा की लीक ही पीढ़ियों की सीख रही है। दिलचस्प है कि इस सीख को ताक पर रखकर कानूनी ओट में विवाह संस्था को मन माफिक आकार देने की कोशिश हाल के सालों में काफी बढ़ी है। परिवार और समाज को दरकिनार कर जीवनसाथी के चुनाव का युवा तर्क आजकल सुनने में खूब आता है। स्वतंत्रता के रकबे को अगर स्वच्छंदता तक फैला दें तो यह तर्क आपको प्रभावशाली भी लग सकता है। पर यह आवेगी उत्साह कई खामियाजाओं का कारण बन सकता है।
अच्छी बात है कि अपने एक नए फैसले में अदालत ने भी तकरीबन ऐसी ही बात कही है। जो लोग सीधे कोर्ट और वकील के चक्कर से बचते हुए मंदिरों में विवाह रचाने का रास्ता चुनते रहे हैं, उनके लिए अदालत का नया फैसला महत्वपूर्ण है। हाईकोर्ट ने आर्य समाजी विवाह के एक मामले में साफ कहा है कि मंदिर में शादी करने का यह कतई मतलब नहीं कि दो व्यस्कों की सहमति भर को सात फेरे लेने का न्यूनतम आधार मान लिया जाए। इस फैसले में कहा गया है कि किसी भी विवाह के लिए दोनों पक्षों के माता-पिता या अभिभावक की सहमति जरूरी है। और अगर शादी मां-पिता की बगैर मर्जी के की जा रही है तो इस असहमति की वजह लिखित रूप में रिकार्ड पर होनी चाहिए। साथ ही ऐसी स्थिति में गवाह के तौर पर दोनों पक्षों की तरफ से अभिभावक के रूप में नजदीकी रिश्तेदार की मौजूदगी जरूरी है। यही नहीं मंदिर में विवाह संपन्न होने से पूर्व माता-पिता और संबंधित इलाके के थाने और सरकारी कार्यालयों को सूचित करना होगा।
साफ है कि अदालत ने विवाह को परिवारिकता और सामाजिकता से जुड़ा एक महत्वपूर्ण अनुष्ठान माना है। उसकी नजर में विवाह संस्था के महत्व का आधार और सरोकार दोनों व्यापक है। इस व्यापकता में सबसे महत्वपूर्ण रोल उन सहमतियों का है जो पारंपरिक शादियों में खासतौर पर महत्व रखती हैं। बच्चों को जन्म देने का विवेकपूर्ण फैसला करने वाले मां-बाप को एकबारगी अपने बच्चों के जीवन के सबसे महत्वपूर्ण फैसले से बाहर नहीं किया जा सकता है। आज तक यह सीख परंपरा की गोद में दूध पीती रही है अब इसे कानूनी अनुमोदन भी हासिल हो गया है। 
                                                                          (http://puravia.blogspot.com/2011/10/blog-post_31.html)

स्त्री -पुरुष विमर्श गाथा --भाग ३ --स्त्री सत्तात्मक समाज .... डा श्याम गुप्त ...


                                                

   चित्र-१..मातृ-देवी ---                चित्र-२-मातृ-देवी व पुजारी -                                        चित्र-३--मातृ-देवी द्वारा पशु से युद्ध- 






                        इस प्रकार मानव द्वारा सहजीवन अपनाने के पश्चात अपनी प्रकृतिगत कार्य दक्षता, कार्य-लगन, तीक्ष्ण-बुद्धि, दूरदर्शिता व प्रत्युत्पन्नमति एवं संतान के प्रति स्वाभाविक अधिक लगाव के कारण स्त्री ने स्वयं ही श्रम विभाजन की आवश्यकतानुसार संतान-परिवार-समूह- कबीला -के साथ गुफा, बृक्ष-आवास या एक स्थान पर स्थित आवास पर ( घर पर )  ही रहकर ही समस्त आतंरिक व वाह्य प्रबंधन व्यवस्था स्वीकार की | इस प्रकार स्त्री-प्रवंधन समाज का गठन हुआ |  समाज मूलतः खाद्य-वस्तु एकत्रक (फ़ूड-गेदरर) था |  बाहर जाकर अन्न, फल, या शिकार एकत्र करना पुरुष का व उसका प्रबंधन, वितरण, संरक्षण व समस्त आतंरिक प्रबंधन स्त्री का कार्य हुआ| स्त्री-पुरुष सम्बन्ध स्वच्छंद थे | मूलतः समाज "लिव इन रिलेशन शिप " के रूप में था | स्त्रियाँ व पुरुष स्वच्छंद थे व अपनी इच्छानुसार किसी भी एक या अधिक पुरुष-स्त्री के साथ सम्बन्ध रख सकते थे |
               ज्ञान बढ़ा, मानव गुफाओं से झोपडियों में आया | घुमंतू से स्थिर हुआ | वह प्रकृति के अंगों ...सूर्य, चन्द्र, वर्षा आदि की आश्चर्य, भय व श्रृद्धा वश आराधना तो करता था परन्तु ईश्वर का कोई स्थान न था ,न पुरुष देवताओं का | स्त्री सत्ता अधिक दृढ हुई और स्त्री प्रबंधन से स्त्री-सत्तात्मक समाज की स्थापना हुई |सभी पुरुष पूर्णतया स्त्री-सत्ता के अधीन होकर ही कार्य करते थे | पुरुष धीरे धीरे सिर्फ आज्ञापालक की भांति होता गया | संतान आदि .माताओं के सन्दर्भ से ही जाने व माने जाते थे ..., वन-देवी , आदि-माता, माँ , मातृका , सप्तमातृका , प्रकृति-देवी के साथ, वन देवी आदि विभिन्न देवियों की पूजा स्त्री सत्तात्मक समाज की ही देन है | उस काल में किसी पुरुष देवता की पूजा या मूर्ति -लिंग का उल्लेख नहीं मिलता | सबसे प्राचीन मूर्तियां  पुरुष देवताओं की न होकर, देवी के थान -(स्थान-सिर्फ चबूतरा बिना किसी मूर्ति के )  व मातृका, सप्तमातृका की ही मूर्तियां हैं |
                  इस प्रकार स्त्रियाँ शासक व पुरुष प्राय: सैनिक की भांति -सुरक्षा व कार्मिक व सलाहकार - हेतु उपयोग होने लगे...स्वच्छंदता व सामूहिकता के दुष्परिणाम आने लगे, स्त्रियाँ अत्यंत स्वच्छंद व स्वेच्छाचारी होने लगीं तो पुरुष द्वारा भी बल प्रयोग की घटनाएँ होने लगीं |  दोनों के आचरण से द्वंद्व बढ़ने लगे|  धीरे धीरे शक्ति- सलाहकार-सैनिक-सेनापति के रूप में पुरुष के हाथ में आती गयी | गर्भावस्था के दौरान अक्रिय रहने व संतति -पालन के दौरान शक्तिहीन होने के कारण पुरुष स्त्री का सुरक्षा -भाव बनने लगा | शारीरिक शक्ति व बल का बर्चस्व बढ़ा और समाज का प्रबंधन पुरुष के हाथ में चलागया| इस प्रकार पुरुष प्रवंधित समाज की स्थापना हुई | यद्यपि आवागमन आदि के संसाधन न  होने से सुदूर स्थानों से तारतम्य, आदान प्रदान  व आपसी संपर्क  होने की दुष्करता व असंभवता  के  फलस्वरूप  दोनों ही व्यवस्थाएं अपने अपने क्षेत्रों में साथ साथ चलती रहीं |
                                        चित्र--गूगल ..साभार......
                  
              ---क्रमश ...भाग ४ ...
                                                   

गुरुवार, 27 अक्तूबर 2011

रखो याद हे राम, लखन की बहन शान्ता

भैया दूज पर-

सम्बन्धों  की  श्रृंखला,  निर्विकार - निष्काम |
जननी सम भगिनी दिखे, भर-जीवन अविराम ||

बहना के जियरा बसे, स्नेह परम-उत्ताल |
भाई  स्वारथ  में  पड़े,  दूर होय हर साल ||

करुणामयी पुकार पर,  धाये  भैया  हर्ष |
हर बहना महफूज हो, सामाजिक-उत्कर्ष ||
 
जीजाबाई मातु की, जसुमति पन्ना धाय |
लक्ष्मी दुर्गावती की, महिमा गाय अघाय |

लोकगीत में है भरा,  भाई-बहना प्यार |
पर आदर्शों की कमी, रहा झेल संसार ||

अनदेखी   भारी   पड़े,  पाप - कर्म  से  बाज  |
भ्रूण प्रौढ़ तक पोसिये, माँ मत भूल समाज ||
Bhai Duj
कुण्डली
राम-लखन की शान्ता,  भूले  तुलसीदास |
बहनों के बलिदान को,  भूला यह इतिहास |
 भूला यह इतिहास, नहीं आकर्षण दिखता |
पावन प्यार-दुलार, ग्रन्थ न कोई लिखता ||
कह रविकर अफ़सोस, बहन को नहीं जानता |
रखो याद हे राम,  लखन की बहन शान्ता ||

बुधवार, 26 अक्तूबर 2011

मंगलवार, 25 अक्तूबर 2011

स्त्री-पुरुष विमर्श गाथा...भाग दो ..सहजीवन.व श्रम विभाजन ...डा श्याम गुप्त...



                   वह आकृति अपनी गुफा में से अपने फल आदि उठाकर आगंतुक की गुफा में साथ रहने चली आई | यह मैत्री भाव था, साहचर्य --निश्चय ही संरक्षण-सुरक्षा भाव था..पर अधीनता नहीं ....बिना अनिवार्यता..बिना किसी बंधन के.....| इस प्रकार प्रथम बार मानव जीवन में सहजीवन की नींव पडी | साथ साथ रहना...फल जुटाना ..कार्य करना..स्वरक्षण...स्वजीवन रक्षा...अन्य प्राणियों की भांति | चाहे कोई भी फल या खाना जुटाए...एक बाहर जाए या दोनों ...पर मिल बाँट कर खाना व रहने की निश्चित प्रक्रिया -सहजीविता - ने जीवन की कुछ चिंताओं को -खतरे की आशंका व खाना जुटाने की चिंता -अवश्य ही कुछ कम किया | और सिर्फ खाना जुटाने की अपेक्षा कुछ और देखने समझने जानने का समय मिलने लगा | 
                               फिर एक दिन उन्होंने  ज्ञान का फल चखा वास्तव में यह फल खाने-खिलाने व स्त्री द्वारा पुरुष को भटकाने -स्त्री को शैतान की कृति मानने की कथा -मुस्लिम व ईसाई जगत में ही प्रचलित  है ---हिन्दू जगत --भारतीय कथ्यों में यह कथा नहीं है ..अपितु आदि एवं साथ साथ उत्पन्न -स्त्री-पुरुष --मनु व श्रृद्धा हैं जो साथ साथ मानवता व श्रद्धात्मकता भाव से साथ साथ रहते हैं ....हाँ जयशंकर प्रसाद ने कामायनी में इडा ( बुद्धि ) नामक चरित्र की स्थापना की है जिसके कारण मनु ( मानव ) श्रृद्धा को भूल जाते हैं ...कष्ट उठाते हैं ..और पुनः स्मरण पर वे दोनों का समन्वय करते हैं |) ....स्त्री-पुरुष का भेद जाना ... वे पत्तियों से अपना शरीर ढंकने लगे, बृक्षों पर आवास बनने की प्रक्रिया हुई, अन्य अपने जैसे मानवों की खोज व सहजीवन के बढ़ने से अन्य साथियों का साहचर्य..सहजीवन..के कारण
.. सामूहिकता का विकास हुआ...नारी स्वच्छंदथी....स्त्री-पुरुष सम्बन्ध बंधन हीन  उन्मुक्त थे | एक प्रकार से आजकल के 'लिव इन रिलेशन ' की भांति |  स्त्री-पुरुष सम्बन्ध विकास से  संतति  मानव समाज के विकास  के  साथ ही संतति सुरक्षा  के प्रश्न  खड़े हुए, जो मानवता का सबसे बड़ा मूल प्रश्न बना, क्योंकि प्रायः नर-नारी दोनों ही भोजन की खोज में दूर दूर चले जाते थे व बच्चे जानवरों के बच्चों के भांति पीछे असुरक्षित होजाते थे ...| समाज बढ़ने से द्वंद्व भी बढ़ने लगे |  अतः शत्रु से संपत्ति व संतति रक्षा के लिए किसी को आवास स्थान पर रहना आवश्यक समझा जाने लगा,  इसप्रकार प्रथम बार  कार्य विभाजन,  श्रम विभाजन (Division of labour) की आवश्यकता पडी |
--------क्योंकि नारी शारीरिक रूप से चपल, स्फूर्त, प्रत्युत्पन्न मति, तात्कालिक उपायों में पुरुष से अधिक सक्षम, तीक्ष्ण बुद्धि वाली,  दूरदर्शी होने के साथ साथ, संतति की विभिन्न आवश्यकताओं व प्रेम भावना की पूर्ति हित सक्षम होने के कारण --उसने स्वेक्षा से निवास-स्थान पर असहाय संतान के साथ रहना स्वीकार किया , और  स्त्री प्रबंधन समाज  की स्थापना हुई | जो बाद में  स्त्री -सत्तात्मक समाज भी कहलाया  |

                               -----चित्र गूगल साभार ...
----------------क्रमश : भाग तीन..स्त्री-सत्तात्मक समाज.....

दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें !


दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें !


'' भारतीय  नारी ब्लॉग '' के सभी सम्मानित योगदानकर्ताओं व् पाठकों को दीपोत्सव की हार्दिक शुभकामनायें !
दीपों का उत्सव आया है,
दीपों का उत्सव आया है .

तम का अभिमान घटाने को ;
दुष्टों का दंभ मिटाने  को ;
आशा कलिया चटकाने  को ;
खुशियों  के  दर खटकाने  को ;
दीपों का उत्सव आया है,
दीपों का उत्सव आया है .

सोया विश्वास जगाने को ;
मायूसी दूर भगाने को ;
नयनों में स्वप्न सजाने को ;
नए तराने  गाने  को ;

दीपों का उत्सव आया है,
दीपों का उत्सव आया है .
                                   शिखा  कौशिक 
                             [विख्यात ]




सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

दीप खुशियों के जलें & Let the lamps light ......डा श्याम गुप्त ...

दीप खुशियों के जलें ऐसे |
पुष्प दामन में खिलें जैसे |

खूब रोशनी हो जीवन में ,
सफलताएं सब मिलें जैसे |

आशा व उत्साह से पूरित ,
जीवन राह में चलें जैसे |

उमंगें  व उल्लास के पौधे,
उर्वरा भूमि में फलें जैसे |

मुस्कुराइए जला कर दिए,
सामने हम खड़े हों जैसे  |

खुश हो लेना कि तरन्नुम में ,
श्याम की गज़लें सुनलें जैसे ||






















Let the lamps light ,
Life comes to be bright .
Let the candles of hope,
Happiness & harmony ignite.

Think of me my dear,
When you light a light.
Think of me my dear,
When you pray in the night.

The darkness of your heart,
The loneliness of the dark.
In the wilderness of thoughts,
Let  the  hope  spark.

Here comes the dawn of hope,
  To do away this night.
 Let the lamps light,
 Life comes to be bright.

                                                                                                               
                                                                                                              

एक बेटी का परम्परा के मुंह पर करारा तमाचा


 एक बेटी  का  परम्परा   के  मुंह  पर करारा  तमाचा 
हमारे  समाज  में  सदियों  से वंश  चलाने  व्  अंत्येष्टि  संस्कार  के  नाम  पर  पुत्रों  के जन्म  पर  हर्ष  व्  उत्साह  प्रदर्शित  करने  की  परम्परा  रही  है  .पुत्र -उत्पत्ति  की इच्छा  के पीछे  हमारे  मान्य  ग्रंथों   में  पुत्रों  को  ही  मुक्ति  दिलाने  वाला  ,वंश  चलाने  वाला  के रूप  में  वर्णित  किया  जाना  एक  बड़ा  कारण  रहा  है  .''श्रीमदवाल्मीकीय  रामायण   '' में  इस  सन्दर्भ  में  उल्लेख  आता  है -
''''पुत्र्नाम्नों नरकाद यस्मात  पितरं त्रायते  सुत   
                   तस्मात्  पुत्र इति प्रोक्त:  पितरं  म: पाति सर्वतः ''
[श्री मद वाल्मीकीय रामायण ,अयोध्या काण्ड   ,सप्ताधिक्   शततम: सर्ग:,पृष्ठ -४४७,गीता  प्रेस गोरखपुर ] 
          स्मृतिकारों द्वारा उल्लिखित सोलह संस्कारों में भी ''अंत्येष्टि क्रिया ' पुत्रादि के द्वारा किया  जाना विधानित किये जाने से भी कन्या  जन्म की तुलना   में पुत्र   जन्म हर्ष  का कारण बन  गया  .इस एक कारण ने भारतीय समाज की मानसिकता  कन्या  जन्म विरोधी  बना  डाली .पिण्ड दान ,मोक्ष,स्वर्ग की भ्रांत धारणाओं  ने कन्या  -जन्म को एक अभिशाप    बना  डाला किन्तु   18 अक्टूबर   2011 को एक बेटी ने इस परम्परा   के मुंह  पर करारा  तमाचा  लगा डाला .मेरठ के प्रभातनगर निवासी   श्री खेमराज  की मृत्यु  ने जहाँ  उसकी दो पुत्रियों व् पत्नी को अन्दर तक तोड़ डाला होगा वहीँ उसकी १५ वर्षीय बेटी 'पूजा 'ने  पचास आदमियों  के समूह के आगे सिर पर सफ़ेद कपडा बांधकर  - आगे-आगे चलकर  सारे  समाज का ध्यान   अपनी  और खीचा  कि '' देखो एक बेटी भी अपने पिता की अंतिम  क्रिया  हेतु  शमशान घाट तक जा  सकती है वहीँ सूरजकुंड  शमशान घाट पर अपने पिता को मुखाग्नि देकर ''पुत्री'' शब्द  को सार्थक  कर दिया '' यदि  पुत्र  नरक  से मुक्ति  दिला  सकता  है तो  'पुत्री' क्यों नहीं  ?
          इस सब  में 'पूजा' का साथ उसके पूरे मोहल्ले ने दिया  जो इस और सकारात्मक संकेत है की हमारे  पुरुष प्रधान  समाज की मानसिकता  में परिवर्तन  आ रहा है .पुरुष प्रधान  समाज की मजबूत दीवारों को हिला कर रख देने वाली ''पूजा '' जैसी बेटी  को मेरा  सलाम  है . 
                                                        शिखा  कौशिक 
                                    [विचारों का चबूतरा ]

शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2011

स्त्री-पुरुष विमर्श गाथा ....एक एतिहासिक दृष्टि ...डा श्याम गुप्त....


 

                                      स्त्री वस्तुतः मानव जीवन या कहें तो.....सृष्टि, जीवन- जगत  का  आधार है | सृष्टि के समन्वय, समन्वित जीवन ,समन्वित सामाजिक व्यवस्था का मूल है | अतः ------स्त्री-पुरुष विमर्श का इतिहास -मूलतः मानव के सामाजिक विकास का इतिहास है,  जो आदिमानव से प्रारम्भ होता है | यहाँ पर हम इसे निम्न शीर्षकों में --काल खंडानुसार - 7  खण्डों में वर्णन करेंगे ....

--भाग १-- आदि मानव -स्त्री-पुरुष ...
--भाग २- सहजीवन व श्रम-विभाजन..
--भाग ३ - स्त्री सत्तात्मक समाज..
--भाग ४ - पुरुष सत्तात्मक समाज ...
--भाग ५ - पुरुष अधिकारत्व समाज...
--भग ६  - आत्म-विस्मृति का युग
---भाग -७- नव-जागरण काल ....


                                  भाग -आदिमानव -स्त्री-पुरुष
 
             एक प्रागैतिहासिक  पुरा कथा है;   जो उस समय की गाथा है जब मानव ने ज्ञान का फल नहीं चखा था, वह किसी बाटिका में भी नहीं रहता था , वनचारी था, एकाकी घुमंतू, जानवरों की भांति गुफा मानव |
 
            झरने में झुक कर जल पीतेहुए उस आदिमानव ने सामने की पहाडी पर किसी आकृति को चलते हुए देखा |  वह आश्चर्यचकित हुए बिना न रह सका |  अब तक वह स्वयं को एकाकी ही समझता था |  उसने जल्दी जल्दी झरना पार किया और उस आकृति का पीछा करने लगा |वह आकृति पहाडी के पीछे जाकर लुप्त होगई | वहां एक गुफा देखकर वह उसमें प्रवेश कर गया |  उसने उसी आकृति को झुक कर कुछ खाते हुए देखा | आहट होते ही आकृति तेजी से हाथ का हथौड़ा लेकर पलटी और अपनी जैसी ही आकृति को देखकर आश्चर्य चकित रह गयी |  आने वाला शत्रु नहीं है यह आश्वस्त होते ही उसने आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता का स्वर निकाला | और कहा---
     " मुझे चौंका दिया, यदि मैं अभी वार कर देता तो !"
     " कोई बात नहीं, मुझे बचना आता है ",  उसने अपना हथौड़ा दिखाते हुए       कहा |
        उसने उसे खाने को फल दिए | आगंतुक ने उसे अपनी गुफा में आमंत्रित किया और अपने एकत्रित फल खाने को दिए और उसकी गुफा में ही रहने के लिए आमंत्रित किया | उसने आगंतुक को ध्यान से देखा और तौला, आगंतुक डील-डौल में उससे अधिक था, उसने उसे छूकर देखा;  उसकी मांस-पेशियाँ भी अधिक स्पष्ट व शरीर उससे अधिक सुगठित था, उसका हथौड़ा भी अधिक बड़ा व भारी था |  उसकी गुफा भी अधिक बड़ी, आरामदेह व सुरक्षित थी, फल भी अधिक मात्रा में एकत्रित व ताजा थे जबकि उसके फल कम थे एवं हिंसक जानवरों के कारण अधिक एकत्र भी नहीं हो पाते थे | वह अपने फल व हथौड़ा उठाकर आगंतुक की गुफा में चली आयी |
                 और यही वह समय था जब स्त्री ने स्वेच्छा से प्रथम बार ..पुरुष से सहजीवन   संरक्षण - समन्वय स्वीकार किया |

                      यह शायद वह समय था जब जल से जीव के विकास का स्थलीय जीव में व तदुपरांत मानव के रूप में विकास होरहा होगा... भारतीय भूभाग मानव का प्रथम पालना बना , अर्थात प्रथम मानव उत्पत्ति इस भूखंड पर ही हुई | पृथ्वी का समस्त भूभाग पेंजिया, गोंडवाना लेंड व लारेंशिया में विभाजित हुआ | यह उत्तरी महा भूभाग -( पेंजिया के विभाजन के बाद आदि काल में पृथ्वी - बीचो- बीच में टेथिस महा सागर था और उत्तर व दक्षिण में महा भूखंडों से निर्मित थी)- शायद पामीर का पठार , तिब्बत, उत्तरी भारतीय भूखंड, ईरान, इराक अरब ....आदि का सम्मिलित भू भाग...जम्बू द्वीप या गोंडबाना लेंड रहा होगा...भारतीय भूभाग इस भूखंड के मध्य में स्थित था, शायद इसीलिये आज भी मध्य भारत का भूभाग गोंडवाना लेण्ड के नाम से जाना जाता है | क्योंकि पृथ्वी के भूभाग बार बार अपनी स्थिति बदल रहे थे , टूट व बन रहे थे अतः नए नए धरती स्थलों का निर्माण होने से ये भूभाग पूर्व, पश्चिम, उत्तर दक्षिण की ओर आते जाते रहे | भारतीय भूखंड  उत्तर की ओर खिसक कर जब एक प्रायद्वीप की भांति स्थिर हुआ तो वह जल से चारों ओर व पामीर के पठार से उत्तर की ओर घिरा होने से जीवन के लिए सर्व-उपयुक्त स्थल भूभाग रहा होगा अतःयह भूखंड मानव का प्रथम पालना बना | भारतीय भूखंड से आदि-मानव का उत्तर-पश्चिम की ओर( यूरोप व भूमध्य सागर के उत्तर के देश) प्रयाण करना प्रारम्भ हुआ | पृथ्वी के दक्षिणी महा भूभाग के उत्तर की ओर खिसकने पर द अमेरिकी, अफ्रीकी भूखंडों का निर्माण व भारतीय प्रायद्वीप का उत्तरी भूखंड से मिलकर सम्पूर्ण -भारत भूखंड बनने पर हिमालय आदि उत्तरी पर्वत श्रेणियों की उत्पत्ति हुई जिससे जीवन की उत्पत्ति व विकास के लिए के लिए और अधिक अनुकूल परिस्थितियाँ बनीं एवं कालान्तर में ...भारतीय मानव का उत्तर भारत से विन्ध्य पार दक्षिण भारत की ओर अपनी वर्त्तमान संस्कृति सहित क्रमिक प्रयाण प्रारम्भ हुआ |
                                                                                                                       -----चित्र ..गूगल साभार 

------------क्रमश : भाग - सहजीवन....